इस तरह मैं जिया-1: बचपन में ही उजागर हो गई थी डेवलपमेंट वर्कर की एसेंशियल क्वालिफिकेशंस
कहते हैं होनहार बिरवान है होत है चीकने पात या पूत के पांव पालने में दिखाई देते हैं। यानी बचपन में तय हो जाता है कि भविष्य किस दिशा में विस्तार लेगा। हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
30 जुलाई 1965 शुक्रवार।
विदिशा चारों तरफ से बेतवा के बाढ़ के पानी से घिर चुका था। जबरदस्त बारिश लगभग पूरे सप्ताह से जारी थी। मेरे पापा वहां डिप्टी कलेक्टर के तौर पर नियुक्त थे। बाढ़ की स्थिति गंभीर होने पर, वे एक बचाव दल का नेतृत्व करते हुए, नाव पर सवार हो एक गांव के लिए निकले थे और उस दल की पिछले तीन दिनों से कोई खबर नहीं थी।
घर पे अफरा-तफरी का माहौल था। सभी लोग घर में घुसे चले आ रहे पानी को उलीचने में जुटे थे। मेरी दादी इस मोर्चे को लीड कर रही थी। वे अपने पुत्र की पांचवी संतान के आगमन के लिए ग्वालियर से विदिशा प्रवास पर थीं। मेरे घर वाले तनाव में थे। जहां एक ओर पापा की चिंता वहीं दूसरी ओर घर में नए सदस्य का आगमन!
जिला कलेक्टर ने सुबह की आपात बैठक में ये बताया कि प्रशासन की तमाम कोशिशों के बाद भी कुछ गावों से संपर्क नहीं हुआ है। साथ ही आशंका जाहिर की थी कि बचाव दल की नौका से कोई संदेश न आना दुर्घटना का संकेत हो सकता है। एक तरह से इसे शोक सभा के तौर पर देखा गया।
खैर, राम–राम कर दोपहर गुजारी, और लगभग चार बजे समाचार आया कि बचाव दल, उस गांव वालों को सुरक्षित निकाल कर वापस विदिशा आ गया है। ग्वालियर घराने के राजनेता माधव राव सिंधिया ने दल का स्वागत किया और मेरे पापा का पांच–साढ़े पांच बजे घर पर आगमन हुआ। ठीक शाम सात बजकर बीस मिनट पर आपको यह दास्तां सुनाने वाले का आगमन हुआ।
23 सितंबर 1965 भारत –पाक युद्ध खत्म हुआ।
कन्नोद 1967-70
विदिशा और देवास में रहने के दौरान मैं छोटा था। वहां की याद नहीं, पर कन्नोद का घर याद है। पापा को एक बड़ा सा बंगला मिला था। एक भिखारी जो ‘रोटा दे दे पानी दे दे, मैं, खातेगांव जाऊंगा’ बोलते हुए हमारे घर के सामने से गुजरता था, मुझे याद है।
खुरई 19720-72
सागर का एक सब–डिवीजन था खुरई। पापा वहां के मजिस्ट्रेट के पद पर नियुक्त हुए। ब्रिटिश काल के एक बड़़े से बंगले में हमारा प्रवेश हुआ। सामने बगीचा था जिसमें काफी फूलदार पौधे थे। बाउंड्री वाल की जगह मेहंदी की फेंसिंग थी। अक्सर मेरी दीदियां उसके पत्ते चुन कर, सिल-बट्टे पैर पिसवा कर मेहंदी रचाती थीं। घर के बीच बड़ा सा आँगन था जो हमारे खेलने के साथ-साथ और कई कामों में आता था। घर के पिछवाड़े में एक शेड था जहां हमारी श्यामा गाय बंधती थी। सब भाई-बहन उसका ही दूध पीते थे। मेरे लिए सबसे ज्यादा पसंद की जगह थी, वो विशाल आम का पेड़ जिसपर मां ने झूला डलवा दिया था। झूलने के अलावा पेड़ पर चढ़ने का आनंद शानदार होता। मेरी गर्मियों की दोपहर वहीं कटती थीं।
मेरी पढाई की शुरुआत यहीं हुई। मेरा पहला स्कूल एक बालवाडी थी। जहां एक भैया और दीदी, हमें तरह-तरह की कहानियां सुनाते और दुगाने गाते। कुछ महीने वहां गुजारने के बाद मुझे प्राथमिक शाला में दाखिल किया गया। ये एक बड़ा स्कूल था। हमारे माट साहब पान के शौकीन थे। हिंदी पढ़ाते थे। मुझे उनके मुंह में उछलता हुआ पान बड़ा आकर्षित करता था। एक दूसरे माट साहब बीडी के शौकीन थे। वे हर रोज किसी बच्चे को 5-10 पैसे देते और पास के पनवाड़ी से बीडी लाने को कहते। मेरा नंबर नहीं आया। मुझे ये काम बहुत इम्पोर्टेन्ट लगता था। इसलिए मैंने अपने आप को वालंटियर किया और आखिर एक दिन मुझे ये सौभाग्य प्राप्त हुआ जब माट साहब ने मुझे इस नेक काम के लिए चुना। पान वाले ने बिना हुज्जत मुझे 10 पैसे की बीडी थमाई। मैंने गर्व के साथ वो कंसाइनमेंट साहब को सौंपा और उनका आशीष पाया।
ईश्वर मुझ पर कितना मेहरबान है, इसका पूरी तरह अहसास यहीं हुआ। शायद 5 वर्ष या ज्यादा का होने पर ही उस पीढ़ी के बच्चों को इसकी समझ आती थी। ईश्वर ने मुझे एक अधिकारी पिता, एक ममता भरी; शानदार कुक मां, और चार दीदीयां दी। मुझे पता था कि किस काम के लिए किस को साधना है। सो अपनी बीड़ी की बहादुरी के बखान के लिए मैंने मुझसे ठीक बड़ी दीदी को चुना। हम अपने घर के साइड में बैठे कुछ बतिया रहे थे।
मैं: दीदी, क्या तू बीड़ी खरीद कर ला सकती है?
दीदी: अरे, मैं सिर्फ कक्षा 2 में हूं, मुझे कौन देगा?
मैं: मुझे देगा।
फिर क्या था, मैंने अपनी प्यारी मम्मी के फुटकर खजाने से 5 पैसे का आविष्कार किया, दुकान पर गया, पता नहीं 4-5 बीड़ियां ले कर घर आया। दीदी आश्चर्य से देखती रही कि मैंने उसे सुलगाया और धुआं उड़ाया। धुआं चूंकि मुंह में भर कर ही छोड़ा गया था इसलिए मुझ पर कोई खांसी अटैक नहीं आया। अब हमारी मुख्य समस्या थी, कि बाकियों का क्या करैं? मेरा मत था, की हम इसे अपने गार्ड को दे देते हें, कहेंगे कि हमें पड़ी मिली। दीदी मुझसे समझदार और तबुर्जेकार थी (आखिर डेढ़ साल बड़ी थी। इसलिए पार्टनर इन क्राइम भी थी)। बोली, इसे मिट्टी में गाड़ देते हें। वही किया। मुझे ये भरोसा हो गया था कि मैंने उसे ये सिद्ध कर दिया है कि उसका भाई कितना बहादुर/ डेयरिंग है। और शायद उसको भी।
सो अब तक मैंने अपने दो गुणो और दक्षताओं (skills and competencies) को साबित कर दिया था। वालेंटियर होना और डेयरिंग होना जो एक डेवलपमेंट वर्कर की एसेंशियल क्वालिफिकेशंस है।
हमारे घर में काफी फलदार पेड़ भी लगे थे। आम की चर्चा तो हो चुकी पर सहजन, अमरुद, नीम आदि पेड़ भी थे। पता नहीं क्यों मैं अपनी चार दीदीयों को हमेशा यह सिद्ध करने में लगा रहता था कि मैं कितना बहादुर हूं और उनके किसी भी चैलेंज के लिए सदा तत्पर हूं। अमरुद का मौसम समाप्ति पर था। जो भी फल पेड़ पर बचे थे वे ऊंचाई पर थे। उन फलों तक हमारे गैराज के ऊपर चढ़ कर भी पहुंचा जा सकता था। गैराज के ऊपर एक और पेड़ की छतरी थी, नीम की। नीम विशाल था जो कई पंखियों को आश्रय देता था।
एक दीदी की कुछ सखियां आई हुई थीं। उन्होंने अमरुद की इच्छा जताई। जाहिर है, बंदा तैयार था। मुझे इस बात का कोई इल्म और परवाह नहीं थी कि नीम की डगाल जो गैराज पे झुकी थी, उस पर कौए का घौंसला था, जहां उनके अंडे या चूजे मौजूद थे। मेरी अचानक मौजूदगी ने मां और बाप कौए को चौंका दिया। मुझ मासूम पर दोतरफा हमला हुआ। निशाना मेरी खोपड़ी। मैं आक्रमण से बचने के लिए गैराज की छत से कूद गया। मेरी खोपड़ी तो घायल थी ही, अब मेरे घुटने और कुहनियां छिल चुके थे। खाया पिया कुछ नहीं, गिलास तोडा बारह आना। मुझे इस बात का सदमा लगा कि, मैं एक बहादुर भाई साबित नहीं हुआ।
वैसे हम चार बहनों और भाई, इस तरह टूटते–फूटते रहते थे और मां एक कुशल ड्रेसर की तरह हमारे जख्मों की चीरफाड़ कर, मलहम–पट्टी कर हमें अपने दु:खों से निजात दिलाती थी।
इस घटना के कुछ दिनों बाद, बरसात शुरू हुई, और साथ ही शुरू हुआ सांपों और बिच्छुओं का निकलना। मेरी सबसे बड़ी दीदी इसका पहला शिकार हुई। उसे बिच्छु ने काटा। लगभग अगले 6–7 घंटे वो पूरे घर में नाचती रही और चीखती रही। मेरे सौभाग्य से, इस घटना के एक महीने के अंदर ही मैं भी इसका शिकार हुआ। पर मुझे कोई दर्द न हुआ। सुई चुभने का एक एहसास हुआ और वो बिच्छु चार कदम चल के मर गया।
मुझे बहुत अच्छा लगा। आखिर मैं साबित कर गया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता।’
दीदियों की ख़ुशबू आपके पास से अब भी आती है !
मुझे लगता है मैं भी दीदी हूँ !
जैसे मन रिश्तों में नियम काम नहीं करते ऐसे मुझे लगता है उम्र में भी होता है । किसी बड़े को भी देख के लगता है मुझे मैं इससे बड़ी हूँ और किसी हमउम्र को देख के भी लगता है छोटी हूँ !