मेहंदी रचे हाथों से अस्थि संचय! कैसा बिंब है न?

पंकज शुक्ला, पत्रकार-स्तंभकार
सभी फोटो: गिरीश शर्मा
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मंदिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मंदिर मेल कराती मधुशाला…
‘मधुशाला’ में हरिवंश राय बच्चन यही लिखा है। लेकिन यहां मधुशाला मेल नहीं करवा रही। भेद तो श्मशान मिटा रहा है! जी हां, मरघट।
छुआछूत, भेदभाव, जाति, धर्म, लैंगिक भेद से मुक्ति। वहां जहां देह को मुक्ति मिलती है।
भोपाल के श्मशान घाट की इन तस्वीरों को देख कर पहले पहल तो यही ख्याल आया।
लेकिन बात इतनी सी तो नहीं है। इन तस्वीरों कई पहलू हैं। ये पहलू एक दूसरे के समान हैं तो एकदम ठीक विपरीत भी। यह महिला सशक्तीकरण की जितनी अच्छी तस्वीर है, उतनी ही समाज के विद्रुप चेहरे की बानगी भी।
सबसे पहले बात मान्यता की। हिंदू धर्म में सोलह संस्कारों को मान्यता दी है। मृत्यु उपरांत होने वाला अंतिम संस्कार सोलहवां और आखिरी संस्कार है। सारी क्रियाओं के उपरांत पार्थिव देह को अग्नि के सुपुर्द कर अस्थि संचय किया जाता है। अस्थि संचय उपरांत राख व अस्थियों का विसर्जन नदियों में किया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में महिलाओं का शामिल होना वर्जित माना गया है।
मगर, अब समय के साथ बदलाव हुए हैं। महिलाएं न केवल श्मशान तक जा रही हैं बल्कि बेटियां मुखाग्नि भी दे रही हैं। अपने परिजन का अंतिम संस्कार करने वाली पुत्रियां अस्थि संचय के लिए भी जाती होंगी। यह प्रगतिशील समाज की एक तस्वीर है।
दूसरी तस्वीर है कि हर काम बराबरी से करने वाली महिलाएं श्मशान में भी बराबरी से काम कर रही हैं। वे वर्जनाओं को तोड़ रही हैं। एक शव के दाह के उपरांत दूसरी अर्थी के अंतिम संस्कार के लिए तैयारी कर रही हैं। वे लकडि़यों को जमाने का तरीका जानती हैं ताकि कम मात्रा में शव अच्छी तरह से खाक हो जाए। वे शव का अच्छी तरह जलना ही सुनिश्चित नहीं करती बल्कि अस्थि संचय का कार्य भी कुशलता के साथ करती हैं।
वह एक चिता तैयार करती हैं। फिर दूसरी, फिर तीसरी। अंतिम संस्कार के बाद राख साफ करती है। अगली अर्थी के आने तक वह पानी से प्लेटफॉर्म धो देती है।
उसे यंत्रवत, तन्मयता से कार्य करता देख सहसा ख्याल उपजता है कि वह भीतर से इतनी कठोर हो चुकी हैं कि श्मशान में होना भी कोई असर नहीं डालता। क्या उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अगली अर्थी किसी बच्चे की है, किसी बुजुर्ग की या किसी युवा की? कोई नामवर गया है जिसकी शवयात्रा में हुजूम उमड़ा है या कोई अनजान से शख्स विदा हुआ है जिसकी अर्थी को चार कांधें भी नसीब नहीं हुए।
क्या उनके भीतर की संवेदना खत्म हो गई है या इतनी बोथरा गई है कि मौत के मातम का भी उन पर कोई असर नहीं होता। उनके लिए हर लाश एक संख्या है और उनके अंतिम संस्कार की तैयारी एक काम। ऐसा काम जिसे वे गंभीरता से कर रही हैं। इतनी सख्त जान!
परिजन सहित अंतिम यात्रा में शामिल हर व्यक्ति किंकर्तव्यविमूढ़ इन क्रियाओं को होता देखता रहता है।

कुछ लोग शायद गर्व भी करते हों कि देखिए, स्त्रियां यहां तक कार्य कर रही हैं। कुछ सोचते होंगे कि आखिर, ये यहां तक आ पहुंची! (कोई जगह नहीं छोड़ी।) किसी के मन में सवाल उठता होगा, आखिर, कैसे कर लेती होंगी यह सब? उनका मतलब कोमल प्रकृति की मानी जाने वाली स्त्री का एक विदारक कार्य में जुटने से होगा। गौर से देखेंगे तो पाएंगे कि महिला के हाथ में मेहंदी भी रची है। मेहंदी रचे हाथों से अस्थि संचय! कैसा बिंब है न?
एक पहलू यह है कि काम तो काम होता है। कैसा भी काम हो, उसके कर्ता की तन्मयता से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उसके लिए कार्य और उसकी प्रक्रिया को श्रेष्ठ रूप में करने का क्या अर्थ है। यह उसके समर्पण और लगन का द्योतक है।

ये सारी बातें को एक तरह से रूमानियत भरी चर्चाएं हैं।
हकीकत का एक चेहरा काफी सख्त और नुकीला है। सीधे हमारे नकलीपन को बेंधता हुआ गढ़ जाने वाला नुकीलापन।
हकीकत यह है कि श्मशान में आ कर मरघटिया चिंतन या श्मशान वैराग्य ही नहीं उपजता बल्कि समाज का दोगला रूप में भी सामने आता है। भेदभाव और छुआछूत का दोगला रूप। एक वर्ग विशेष का व्यक्ति या किसी भी वर्ग की महिला हमें तब ही स्वीकार है जब वह हमारी सुविधा का मामला हो। जब हमारे अधिकारों व मनमर्जिेयों में हस्तक्षेप न हो रहा हो। हमारे किचन में किसका प्रवेश होगा यह भी हमारी सुविधा का मामला है और हमारे श्मशान में कौन सहायक होगा यह भी। यदि कथित उच्च वर्ग की महिला खाना पकाने को उपलब्ध होगी तो दूसरे वर्ग की महिला का किचन में प्रवेश मुमकीन नहीं है। कथित अछूत महिला तब ही किचन में पहुंच पाएगी जब उसका सवर्ण विकल्प उपलब्ध नहीं है।
ठीक वैसे ही श्मशान में काम करती महिला हमें स्वीकार्य है लेकिन दफ्तर में बराबरी से काम करती महिला पसंद नहीं है। आवाज उठाती महिला, अपनी सहमति को रखती महिला, रूढि़यों को तोड़ती महिला स्वीकार नहीं है। हां, वह श्मशान में रह कर रूढि़यां तोड़ रही है तो चलेगा।
है न यह दोगला रूप? हम श्मशान में काम करती महिला को देख कर तरह-तरह के विचार तो कर सकते हैं लेकिन समाज को बड़ी खाई में बांटने वाले मूल कारण की तरफ झांकना भी पसंद नहीं हैं। एक महिला कोई काम कैसे कर पा रही है, यह सोचना जितना जरूरी है उतनी ही यह जानना भी कि वह कोई काम क्यों कर रही है या वह कोई काम क्यों नहीं कर पा रही है।
काश कि मरघट में हिलौर मारने वाले श्मशान वैराग्य की तरह यह चिंतन भी तात्कालिक न हो, जरा अधिक देर हमारे भीतर उथल-पुथल मचाए। काश!
Ohhh….You’ve brought forth a significant issue, viewed through such distinct perspectives that it compels one to think deeper and see the subject in a new light….