शरद है साल की पहली प्यारी मुस्कान

चैतन्‍य नागर, स्‍वतंत्र पत्रकार

शरद के कदमों की आहट सुनाई दे रही है? थोड़ा गौर कीजिए, हवा में आर्द्रता कम हुई है; तड़के उठें तो हवा में बदलते मौसम का एक कोमल, सौम्य स्पर्श महसूस होता है। देर रात की हवा भी बदल रही है, पहले की तुलना में कितनी सुकून देने वाली और सुखदायी है! बाहर जब शरद आता है तो भीतर का मौसम भी अपने आप ही करवट लेने लगता है। उमस से उचाट मन में उल्लास की मीठी तरंगें उठनी शुरू होती हैं। गर्मी अब अपनी जलती हुई ढ़ेरों वेदनाओं के साथ शरद के आलिंगन में बस ढ़ह जाने के लिए आतुर है। आकाश में बारिश के और मन में मायूसी के उद्दंड, अनुशासनहीन बादल कम होने लगे हैं; उम्मीद के सूरज की रोशनी झांक रही है। उमस और गर्मी से क्लांत देह अरसे के बाद अब ताजी सांस ले पा रही है।

मौसम के साथ समूची कुदरत भी खिल रही है; नई-टटकी सुरभियां मन को सहला रही हैं। मधुमालती के बचे हुए फूल जाते-जाते भी हंसी का पैगाम दे रहे हैं। बिल्ला ‘गोर्की’ रात एक बजे के आसपास दरी पर लेट जाता है क्योंकि नंगी फर्श हल्की ठंडी हो जाती है। दीवारों पर रेंगने वाली शीत-रक्तक छिपकलियां अपनी बिरादरी के दूसरे सरीसृपों के साथ धीरे-धीरे गायब होकर अब दीर्घ शीतनिद्रा की तैयारी में हैं। शरद वर्ष की पहली, सबसे प्यारी मुस्कान है। इसे महसूस करना अपने आप में एक वरदान ही है। इंसान की दुनिया में इन दिनों भले ही डर और संदेह की गंध हो, फिर भी कुदरत अपने खास अदाओं से लगातार सकारात्मक इशारे करती रहती है, भले ही अपनी बेहोशी में हम उन्हें अनदेखा, अनसुना करते रहें।

आसमान में इन दिनों रंगों का अपना अनूठा खेल चल रहा है। धुल कर वह पूरी तरह साफ हो गया है। बारिश के बादल एक लंबी पारी खेल कर अब वापस जा रहे हैं, विश्राम के लिए या फिर धरा के उन कोनों को भिगोने के लिए जहा अब उनकी व्याकुलता से प्रतीक्षा की जा रही है। शरद के आकाश को निहारें तो मन खुद-ब-खुद हल्का होने लगता है। मन को तुरंत अपनी क्षुद्रता का भान हो आता है। जैसा पर्वतों और समुद्र को देखते समय होता है; जैसा कंचनजंघा से उगते सूरज और नगरकोट में डूबते सूरज को देख कर होता है। सूफी रहस्यवादी जलालुद्दीन मोहम्मद रूमी कहते थे कि आसमान को आंखों से नहीं ह्रदय से देखा जाता है। उन्होंने जरूर शरद के आकाश को देखकर ही यह कहा होगा। जब बादल छितरा जाते हैं तो पीछे छिपा आकाश सामने आ जाता है। मन कितना भी उदास हो, खुले आकाश को देखते ही खिल उठता है।

धरती पर जैसे इस शरद में फूल खिलते हैं, वैसे ही आकाश में अगिनत रंग खिल उठते हैं। धरती और आकाश के बीच एक गोपीनीय समझौता होता है सूने मानव मन को आह्लादित करने ले लिए। जैसे दोनों ने मिल कर मायूसी में डूबी मानवता का मन बहलाने की ठान ही ली हो। सितंबर के महीने में शरद से ठीक पहले का आकाश अद्भुत होता है। अगिनत रंग, छितराए हुए बादलों पर यहां-वहां से पड़ती रोशनी, आकाश का विराट खालीपन, उसकी स्वच्छता, सब कुछ मन को अज्ञात के प्रति अव्यक्त कृतज्ञता से भर देता है। दूर और पहुंच के बाहर होते हुए भी यह आकाश कितना अपना लगता है! त्रिलोचन ने इसे देख कर ही कहा होगा:

शरद का यह नीला आकाश, हुआ सब का अपना आकाश।

शरद ऋतु मानसून का विदाई गीत है। बारिश प्रकृति के शुद्धिकरण का त्यौहार है। उसके बाद कोई अदृश्य चितेरा बारिश में धुले, स्वच्छ आकाश के कैनवास पर हर कल्पनीय रंग बिखेर जाता है। कोई गिन भी नहीं सकता, इतने रंग!

शरद का आकाश ध्यानी ऋषि के मन की तरह होता है। बादल सुलझे हुए विचारों की तरह बस कहीं-कहीं, कभी-कभी दिखते हैं; बाकी समूचा आसमान बुद्ध और महाकाश्यप के संवाद की तरह मौन में डूबा प्रतीत होता है। आसमान में बस उतने ही बादल दिखते हैं, जितने मन में विचार होने चाहिए। बस उतने ही, जितने आवश्यक हैं। न आपस में टकराते हैं, न कोई कलह होता है उनके बीच। बताते हैं ध्यानी मन के साथ विचार का संबंध ऐसा ही होता है। विचार उस मन को पूरी तरह ढंक नहीं लेते; वे उपस्थित रहते हैं, पर साथ ही वहां पर्याप्त स्पेस बची रहती है, अवलोकन और मौन के लिए। प्रकृति ने मन की हर सूक्ष्म अवस्था के लिए एक स्थूल वाह्य नमूना हमारे सामने पहले से ही रखा हुआ है। हमें बस उसे देखना है, उससे सीखना है, और अपने अंतस में उतार लेना है।

सबसे पहले शरद के आने का ऐलान करती है हवा में सरकती बदलते मौसम की खुशबू। धरती का खिलना शुरू होता है और हमारे समाज की विषाक्तता के बीच भी धरती अपना श्रृंगार नहीं तजती। आपने गौर किया कि सप्तपर्णी इस साल समय से थोड़ा पहले ही खिल रही है? अपनी मादक सुगन्ध से उन राहगीरों को पुकारती है जिनके पास थोड़ा ठहरने और इसे निहारने की फुर्सत है। सात पत्तों के बीच फूलों के गुच्छे शरद के स्वागत में अर्पित सप्तपर्णी का उपहार और नैवेद्य हैं। शरद यानी हरसिंगार, कमल और कुमुदिनी के खिलने का मौसम भी। वसंत से जो संबंध बेला का है, हरसिंगार के साथ वही शरद का है। शरद यानी नवजीवन, गरिमा, वैभव, उल्लास, फूलों और त्योहारों का मौसम। तुलसीदास भी शरद ऋतु पर मगन होते हैं: ‘वरषा बिगत सरद रितु आई. लछिमन देखहु परम सुहाई।’ शौक़ीन है शरद का मौसम। इसके अपने ख़ास शौक हैं, पूरी साज-सज्जा और श्रृंगार के साथ ही इसका आगमन होता है।

शारदीय ऋतु में जितने उत्सव होते हैं, उतने पूरे साल में नहीं होते। उत्सव समाज की जीवित परंपरा का हिस्सा होते हैं जो हमें ऊर्जावान बनाते हैं। शरद जिजीविषा, संघर्ष और हमारे सामूहिक हर्ष और कल्लोल का प्रतीक है। देखें तो शरद त्योहार का ही पर्याय है। उमस भरे दिनों से जब मन बाहर निकलता है तो त्योहारों की एक श्रृंखला उसकी प्रतीक्षा में होती है। माहौल में कुछ शंकाएं है, भय है, पर त्योहार का उल्लास तो मन के भीतर ही मनता है। वह मनेगा भी। दीपावली पर दीप की मालाएं जलेंगी। देव दीपावली पर नदी के घाटों पर सजावट होगी। लोग अकेले-अकेले, सामाजिक और भौतिक दूरी के नियमों को ध्यान में रख कर त्यौहार मनाएंगे तो ऊपर तने आकाश के लिए तो अनेक लोग एक ही से दिखेंगे। अपने रंगों के साथ आकाश जब ऊपर से उन्हें निहारेगा तो उसे अलग-अलग इंसान का आनंद नहीं, समूची मानवता का एक खिला हुआ आह्लादित चेहरा दिखेगा।

पुराने को छोड़ कर नूतन की ओर निहारने का मौसम है शरद। मैदानी इलाकों में, शहर के बाहर इन दिनों कास के सफेद फूल दिखाई पड़ते हैं। धरा ने आसन्न शीत के लिए तैयारी करने के लिए प्रयोग के तौर पर सफेद चादर ओढ़ ली हो जैसे। कास के फूल जब हवा से झूमते हैं, तो मन भी झूमता है उनके संग। शरद पूर्णिमा का चांद अपने सौदर्य के लिए कला और साहित्य जगत में ‘कुख्यात’ है! उसे देखकर तो समय ही थम जाता है। कथाओं में बताते हैं इसमें सभी सोलह कलाएं होती हैं। कथाओं के अनुसार यह कृष्ण और गोपियों की रास का समय होता है। निराला इस समय गगन से चुम्बन झरते देखते हैं। अज्ञेय शरद पूर्णिमा के बारे में लिखते हैं:

शरद चांदनी बरसी
अंजुरी भर कर पी लो।

क्या कहने शरद के सौदर्य के! अल्बेयर कामू कहता था:

शरद तो एक और वसंत है, जब हर पत्ती फूल होती है।

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