शेफाली चतुर्वेदी, स्वतंत्र पत्रकार
फोटो: गिरीश शर्मा
पिछले दिनों दिल्ली में एक बार फिर मेरी उससे मुलाक़ात हुई। एक बार फिर जी चाहा कि समय या तो रुक जाए या फिर कम से कम 16 साल पीछे चला जाए। मेरा मन बेचैन हो उठा। मैं चाहती थी उसकी छाँव में बैठना, कुछ शरारतें, कुछ हरकतें याद करना। स्कूल के दिनों से ही मुझे वो बहुत अच्छा लगता था। आज इतने साल बाद मिलने पर, उससे जी भर मिल लेने की इच्छा पर काबू पाना मुश्किल लग रहा था। ऐसा लगा कि जैसे कोई सपना जाग गया हो। स्मृतियाँ जैसे सामने टहलने लगीं… छत्तीसगढ़ की मिटटी की सौंधी खुशबू अचानक दिल्ली की मिटटी में भी आने लगी।
याद आया कोरबा और वहीं स्थित एनटीपीसी टाउनशिप का केंद्रीय विद्यालय परिसर और उसको दोनों ओर से घेरे हुए खेल का विशाल मैदान। कभी कभार खिड़कियों से बाहर सड़क पर गाड़ियों की आवाजाही देखते बच्चों में, एक मैं भी हुआ करती थी। फिर यकायक याद आई वो अजीब सी बात जो एक दिन मेरी एक बेहद घनिष्ठ सहेली ने उन्हीं खिडकियों से बाहर झांकते हुए समझाई थी। बोली थी… अपने स्कूल को चारों ओर से घेरे पलाश के पेड़ों को देख रही हो… इनके कारण ही हम लोग खुश हैं। जितने पलाश आसपास रहेंगे उतनी खुशियाँ हमारी होंगी। अब सोचने में कभी-कभी शर्मिंदगी भी होती है। पर तब चुपके से मैं स्कूल की छुट्टी होने पर हर एक पेड़ के नीचे खड़े होकर उन् फूलों तक पहुँचने की कोशिश भी करने लगी थी… ये सिलसिला तब तक चला जब तक मैंने 3-4 पलाश के खूबसूरत फूल सुखा कर अपनी कॉपी के पन्नों के बीच में दबा नहीं लिए। शायद, वो खुशियों पर कब्जा कर लेने की एक कोशिश भर थी। होली के बीतने के कुछ ही दिनों में ये पलाश भी गायब हो जाते और मैं अपने में खुश रहती कि मेरे पास वो पलाश फिर भी हैं। एक इत्मिनान की पलाश का मौसम भले ही गुजर गया हो, खुशियाँ मेरे पास हमेशा होंगी क्यूंकि सूखे पलाशों का खजाना संभला रखा है।
दिल्ली में लोधी रोड पर सड़क के दोनों ओर खड़े पलाश हों या भोपाल में चार इमली के आसपास सड़क पर कहीं कहीं पसरे पलाश। सबके पास मेरे लिए तैयार सवालों का जखीरा है। कभी बदलते मौसम से जुड़े सवाल हैं तो कभी सड़कों पर इनके लगातार कम होते जाने के सवाल तो कभी इनसे रंग बनाने वालों की संख्या में कमी से जुड़े सवाल। सवालों के उस मकड़जाल में बाजार, लाइफस्टाइल, सुविधाओं, डामर सड़कों की तस्वीरें आँखों के सामने चलचित्र की तरह चलती जा रही हैं। ऐसा लगा जैसे पलाश कह रहा हो मुझे छोड़ कर तुम दिल्ली में कहाँ गुम हो गयीं? मैं वही तो हूँ जिसे अपनी कॉपी के पन्नों के बीच देख कर तुम गर्मीली मुस्कान बिखेर देती थी। क्या अब तुम मुझे भूल चुकी हो या फिर मुस्कुराने का कोई और बहाना ढूंढ़ लिया है शहर में? बहुत मन हुआ कि ड्रायवर से निवेदन करूं कि वो कुछ देर को गाडी उस सड़क पर कहीं किनारे खड़ी कर ले।… ताकि मैं उन पलाश के फूलों में एक बार। फिर बचपन और कोरबा में छूट चुकी उस गर्वीली मुस्कान को अपने होठों पर सजा सकूं।
यहां दिल्ली में सड़कों के किनारे लगे होडिम्स और शहरी पेड़ों के बीच मुझे मेरा यो बिछुडा दोस्त बहुत याद आ रहा था। शायद पलाश या गुलमोहर जैसे दोस्तों की कमी कोई भी खूबसुरत होडिंग या करीने से लगाये गए पेड़ पूरी नहीं कर सकते। पलाश… एक लम्बे इंतज़ार के बाद मिली खुशी का परिचायक है, पर हां अब इतने साल बाद पूरी समझदारी से मैं ये ज़रूर कह सकती हूँ कि खुशियों को कॉपी के पन्नों या फिर कहीं और कैद करना नामुमकिन है।
खैर…. पलाश तुम खिलते रहना और यूँ ही मिलते रहना ताकि मैं मुस्कुराती रहूँ।
Bahut sunder shefali tumne to meri bhi kai yadoan ko jaga diye.me to In phoolo se rang banati thee school ke dino me . ?