मुसलमानों की ‘टोपी’ और नीतीश कुमार: धर्म, राजनीति और लोकतंत्र के आईने में

- मोहम्मद लईक
लेखक पत्रकार हैं।
बिहार मदरसा बोर्ड के शताब्दी समारोह के ऐतिहासिक अवसर पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मुख्य अतिथि के रूप में मंच पर मौजूद थे। कार्यक्रम के दौरान का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ जिसने राजनीतिक और धार्मिक हलकों में भारी हंगामा खड़ा कर दिया। वीडियो में साफ दिखाई देता है कि मुख्यमंत्री को सम्मानस्वरूप टोपी पहनाने का प्रयास किया गया। नीतीश कुमार ने टोपी हाथ में तो ले ली लेकिन तुरंत ही अपने मंत्री जमा खान (अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री) को पहना दी। मंच पर बैठे कई लोग हैरान रह गए। कहा जा रहा है कि कुछ लोग बीच कार्यक्रम से उठकर चले गए, जबकि नीचे बैठे मदरसा बोर्ड से जुड़े शिक्षक और दाढ़ी-टोपी वाले व्यक्तियों ने विरोध दर्ज कराया। देखते ही देखते यह वीडियो सोशल मीडिया पर छा गया और विपक्षी दलों, विशेषकर राजद और कांग्रेस, ने इसे बड़ा मुद्दा बना लिया।
चुनावी मौसम और राजनीतिक मायने
यह विवाद ऐसे समय में सामने आया है जब बिहार विधानसभा चुनाव नजदीक हैं। विपक्ष इस मुद्दे को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता। आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने तो सोशल मीडिया पर लिखकर सीधा निशाना साधा कि नीतीश अब ‘सेक्युलर’ नहीं रहे। जाहिर है, मकसद साफ है- मुस्लिम मतदाताओं को नीतीश कुमार से और दूर करना। लेकिन असली सवाल यह है कि नीतीश कुमार टोपी क्यों पहनें?
इस्लाम और टोपी की हकीकत
इस्लाम धर्म में टोपी पहनना फ़र्ज़ (अनिवार्य) नहीं है, बल्कि सुन्नत और अदब माना जाता है। नमाज़ में टोपी पहनना अल्लाह (ईश्वर) के सामने आदर का प्रतीक है। मगर नमाज़ टोपी के बिना भी पूरी तरह मान्य है। टोपी मुसलमानों की पहचान तो हो सकती है, लेकिन इसे गैर-मुसलमान पर थोपना इस्लाम की शिक्षाओं के खिलाफ है।
कुरआन और हदीस साफ़ कहते हैं:
“दीन में कोई ज़बरदस्ती नहीं।” (सूरह अल-बक़रा 2:256)
“तुम्हारा दीन तुम्हारे लिए और मेरा दीन मेरे लिए।” (सूरह अल-काफ़िरून 109:6) यानी धर्म में जबरन परंपरा थोपना नाजायज़ है।
इस लिहाज से सवाल यह भी उठता है कि मदरसा बोर्ड जैसे मंच पर मुख्यमंत्री को टोपी पहनाने की कोशिश क्यों हुई? क्या यह प्रतीकात्मक सम्मान था या उन्हें एक धार्मिक परंपरा का हिस्सा बनाने की कोशिश? दोनों ही हालात में, यह ज़रूरी है कि धर्म और राजनीति की सरहदें स्पष्ट रहे।
नीतीश कुमार और मुस्लिम राजनीति
बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार और मुसलमानों का रिश्ता हमेशा पेचीदा रहा है। 2015 में महागठबंधन (राजद+जदयू+कांग्रेस) के दौरान मुसलमानों ने बड़े पैमाने पर नीतीश को समर्थन दिया। 2020 के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के सहारे 20 मुस्लिम विधायक जीते, जिनमें जदयू से केवल 1 ही मुस्लिम विधायक था। बाद में नीतीश कुमार ने एनडीए का दामन थाम लिया और भाजपा के साथ सरकार बना ली। 2024 लोकसभा चुनाव में जदयू ने 16 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, जिनमें से केवल 1 मुस्लिम प्रत्याशी (मुजाहिद आलम, किशनगंज) उतरे और चुनाव हार गए। स्पष्ट है कि मुस्लिम मतदाता नीतीश से दूरी बना चुके हैं। यही कारण है कि विपक्ष अब उन्हें मुस्लिम-विरोधी बताने पर आमादा है।
व्यक्तिगत अनुभव और लोकतांत्रिक रास्ता
मैं एक पत्रकार के नाते धार्मिक कार्यक्रमों में जाता हूं। कई बार साधु-संत तिलक लगाने या आरती करवाने का प्रयास करते हैं। मैंने हमेशा विनम्रता से इनकार किया और किसी ने मुझे बुरा नहीं कहा। तो फिर नीतीश कुमार ने अगर टोपी पहनने से इनकार कर दिया तो इसमें विवाद क्या है?
लोकतंत्र में विरोध जताने का सबसे बड़ा हथियार वोट है। अगर किसी वर्ग को लगता है कि मुख्यमंत्री ने उनका दिल दुखाया है, तो उन्हें चुनाव में वोट के ज़रिए जवाब देना चाहिए, न कि मंचों पर हंगामे से।
असली सवाल ये है कि….
क्या नीतीश कुमार टोपी पहन लेंगे तो बिहार की समस्याएं खत्म हो जाएंगी?
क्या इससे रोजगार आ जाएगा?
क्या बाढ़ रुक जाएगी?
क्या पलायन पर रोक लगेगी?
क्या बिहार की सड़कों और स्कूलों की हालत सुधर जाएगी?
जवाब है- नहीं।
टोपी पहनना या न पहनना असली मुद्दा नहीं है। असली मुद्दा है—शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य, विकास और शांति।
धर्म और राजनीति को मिलाना खतरनाक है। इस्लाम भी कहता है कि किसी पर धर्म थोपना गुनाह है। नीतीश कुमार का टोपी न पहनना उनका व्यक्तिगत अधिकार है। इसे चुनावी हथियार बनाना न तो बिहार के मुसलमानों के हित में है और न ही लोकतंत्र के लिए सही संदेश है।
आज बिहार को टोपी और तिलक से ज़्यादा ज़रूरत है- ईमानदार राजनीति, मज़बूत अर्थव्यवस्था और सुशासन की।