शहीद कैप्टन अंशुमान सिंह के परिवार की पीड़ा और उलझनों का समाज शास्त्र
पूजा सिंह, स्वतंत्र पत्रकार
शहीद अंशुमन सिंह के पारिवारिक विवाद पर पहले ही सोशल मीडिया पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। नहीं लिखना चाहती थी लेकिन लिख ही देती हूं क्योंकि इस मामले को फॉलो किया है और उसकी दो वजह हैं। पहली, वो मेरे पड़ोसी जिले देवरिया के रहने वाले थे और दूसरी मैं खुद एक सैन्य अधिकारी की बेटी हूं। मैं आगे जो कुछ भी लिख रही हूं वह मीडिया में आई खबरों और मेरे निजी अनुभवों तथा अनुमानों पर आधारित है। इसमें किसी तरह की सत्यता तलाशने के बजाय पाठक अपनी स्वतंत्र राय बना सकते हैं।
सियाचिन में पिछले साल 19 जुलाई को साथियों को बचाते हुए कैप्टन अंशुमन सिंह शहीद हो गए थे। इस वर्ष 5 जुलाई को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने कैप्टन अंशुमान को मरणोपरांत कीर्ति चक्र से सम्मानित किया। ये सम्मान शहीद अंशुमन सिंह की पत्नी स्मृति सैैैनी और उनके मां मंजू देवी ने ग्रहण किया। इस सम्मान समारोह के बाद अब, शहीद अंशुमन के माता-पिता ने मीडिया से बात करते हुए अपनी बहू स्मृति पर गंभीर आरोप लगाए हैं। उन्होंने कहा कि 5 महीने पहले ही उनके बेटे की शादी हुई थी और उनके कोई बच्चा भी नहीं है पर अब मां-बाप के पास उनके बेटे की तस्वीर के सिवा कुछ भी नहीं है। बेटे के निधन के पश्चात उनकी पत्नी स्मृति सैनी ने ससुराल वालों से सारे संपर्क काट लिए और सेना में अपने पति का स्थायी पता बदलवा लिया तथा शहीद को मिले कीर्ति चक्र समेत सारी धनराशि लेकर चली गयीं। मैंने एक चैनल पर शहीद की मां को यह कहते हुए सुना, ‘ऐसे मामलों में अक्सर बहुएं भाग जाती हैं। ज्यादातर बहुएं सैनिक पति के मरने के बाद भाग जाती हैं।’
मैं स्मृति सैनी के कदमों और इस वक्तव्य के सिरों को जोड़ने की कोशिश करती हूं। देवरिया के अंशुमन सिंह और पंजाब की स्मृति सैनी ने प्रेम विवाह किया था। उत्तर प्रदेश के उस इलाके में (अन्य इलाकों के बारे में मैं नहीं जानती) प्रेम विवाह एक ऐसा अपराध है जिससे मुक्ति जीवन के साथ और उसके बाद भी संभव नहीं। तमाम अन्य माता-पिता की तरह अंशुमन के माता-पिता को भी यही लगता होगा कि स्मृति ने उनके ‘भोले-भाले बेटे को फंसा’ लिया।
ऐसे ज्यादातर मामलों में यही होता है कि बेटे को भोला-भाला मानकर डिस्काउंट दे दिया जाता है और बेटे के जीवित रहते कम से कम उसके सामने बहू को कुछ सम्मान दे दिया जाता है। परंतु परिवार प्रेम विवाह के बाद आई बहू को कभी अपना नहीं मान पाते। वे हमेशा उसे एक चुनौती एक शत्रु के रूप में देखते हैं जिसने उनकी संतान को उनकी इच्छा के विरुद्ध उनसे छीन लिया हो।
इस संदर्भ में दो दिन पहले भोपाल में घटित एक मामला याद आता है जहां जनसंपर्क विभाग में अधिकारी के रूप में पदस्थ एक युवती ने आत्महत्या कर ली। वजह वही, प्रेम विवाह करने के बाद ससुराल की स्वीकार्यता नहीं मिल पाना और पति का भी साथ छोड़ देना। अपना घर परिवार छोड़कर एक नए और लगभग होस्टाइल परिवेश में आई युवती को अगर पति का भी साथ नहीं मिले तो फिर कई बार ऐसे अतिवादी कदम उठा लिए जाते हैं। अखबार ऐसी खबरों से पटे रहते हैं।
अंशुमन ने अपने जीते-जी अपने प्रेम और परिवार के बीच संतुलन साधने की कोशिश की होगी लेकिन उनके निधन के साथ ही यह संतुलन ढह गया। स्मृति पहले ही एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम कर रही थीं इसलिए यह कहना कि उन्होंने ससुराल ‘छोड़’ दी या वो ‘भाग’ गईं सरासर गलत बयानी है। पहली बात तो यह है कि 25-28 वर्ष की एक युवा स्त्री से यह उम्मीद करना बहुत बड़ा अपराध है कि वह अपने प्रेमी और पति की शहादत का तमगा सीने से लगाए परिवार के गौरव का बोझ उठाते हुए अपना जीवन काट दे। हममें से हर एक के दु:ख एक दूसरे से अलग और निजी होते हैं। उस दुख से निपटने या उसे सीने से लगाए रहने का हमारा तरीका भी अलग होता है। यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि अपने जीवन में नए प्यार, नए पति के साथ आगे बढ़ती एक शहीद की विधवा अपने पूर्व पति से जुड़ी कोमल यादों, उसके प्रेम, उसके स्पर्श की गरमाहट को अपने हृदय के एक कोने में हमेशा सुरक्षित रखे।
अब अगले बिंदु पर आते हैं। शहीदों की विधवाओं के भाग जाने का जो इल्जाम लगाया गया है और जिसके लिए सरकार से नीति बनाने की मांग की गई है उसके मूल में शहीद के निकटतम परिजन को मिलने वाले आर्थिक लाभ ही हैं। बहुत संभव है कि अंशुमन के पिता ने अपने छोटे बेटे घनश्याम (नोएडा में डॉक्टर हैं) का विवाह स्मृति से करने की जो पेशकश की थी वह भी इसी से प्रेरित रही हो। अब यह तो एक स्वतंत्र स्त्री का चयन है कि वह किसके साथ जीवन बिताना चाहती है या नहीं चाहती है।
हां, निश्चित रूप से इस प्रकरण से एक बड़ा सामाजिक आर्थिक प्रश्न भी उत्पन्न होता है कि शहीद को मिलने वाले आर्थिक लाभ पर किसका कितना हक होना चाहिए। पत्नी और परिवार में से किसी एक को पूरे अधिकार सौंप दिया जाना यकीनन न्याय नहीं प्रतीत होता है। सरकार को इसके लिए एक विस्तृत दिशा-निर्देश जारी करते हुए नीति तैयार करनी चाहिए जिसमें शहादत के बाद मिलने वाले लाभों और पेंशन आदि का पत्नी-बच्चों और माता-पिता में समुचित बंटवारा किया जाए और इस दौरान दोनों परिवारों की परिस्थितियों का भी पूरा ध्यान रखा जाए।
मध्यप्रदेश सरकार का एक निर्णय इस मामले में नजीर है। बेटों को खोने वाले कुछ माता-पिता ने प्रदेश सरकार के समक्ष पीड़ा व्यक्त की थी कि बेटा भी चला गया और राशि मिलने के बाद बहू भी ध्यान नहीं दे रही है। मध्य प्रदेश सरकार ने 26 जून को हुई कैबिनेट बैठक में शहीद के हिस्से की 50 फीसदी राशि उनके माता-पिता को देने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। अब तक प्रदेश का कोई जवान शहीद होता था तो सरकार द्वारा दी जाने वाली सम्मान निधि व आर्थिक सहायता की 100 फीसद राशि उसकी पत्नी को मिलती थी। लेकिन यह राशि बराबर रूप से माता-पिता और पत्नी के बीच विभाजित होगी।
विषय पर लौटते हैं, स्मृति के माता-पिता शिक्षा के पेशे में हैं और वह स्वयं एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी करती हैं। अंशुमन के पिता स्वयं सैन्य अधिकारी रह चुके हैं और उनके भाई और बहन दोनों ही पेशे से डॉक्टर हैं। जाहिर है दोनों ही परिवार आर्थिक रूप से संपन्न तबके के हैं परंतु सेना में जाने वाले जवानों में बहुत बड़ा प्रतिशत ऐसे परिवार के बच्चों का भी है जिनके न तो माता-पिता अमीर होते हैं और न ही उनकी पत्नियां किन्हीं बड़े घरों से आती हैं। अक्सर ये नौजवान अपने परिवारों के इकलौते कमाऊ सदस्य होते हैं और उनकी पत्नियों के परिवारों की आर्थिक स्थिति भी ऐसी नहीं होती है कि वे ससुराल से निकल जाने के बाद अपना या अपने बच्चों का ख्याल रख सकें। ऐसे में पत्नी या परिवार किसी एक को पूरे हक सौंप देने से दूसरे पर भारी विपदा आ पड़ेगी। ऐसे में बेहतर होगा कि केंद्रीय स्तर एक ऐसी नीति हो जो पत्नी और परिवार के बीच संसाधनों का समान नहीं लेकिन समतापूर्ण बंटवारा अवश्य करे।
पुनश्च: इस पूरे प्रकरण के मीडिया में आने के बाद अब तक स्मृति और उनके माता-पिता ने जिस गरिमा का परिचय दिया है वह प्रशंसनीय है।
इस प्रकरण पर हो रही बातों से सोशल मीडिया अटा पड़ा है। कहीं भी, किसी भी परिस्थिति में प्रमाणपत्र जारी कर देने को तत्पर, हम इसे अपना सहज अधिकार मान बैठे हैं। परिजन को खो देने पर ‘ किसका दुःख ज्यादा….’ इसकी भी माप तौल हो रही है। ऐसे अवसर पर इस तरह की तुलना निरर्थक ही नहीं बल्कि अश्लील सी लग रही है।
ऐसे में आपका आलेख सुकून देने वाला है। इस तरह के विवाद होना निराशाजनक है। पर किन्हीं न्यायसंगत नीतियों की ये नींव बनें तो यह भी ठीक ही है।