कलारंग

जब कवि की उंगली तिलोत्तमा के सामने रुकी रह गई

जैसे ही दो उंगलियां उठीं, वे उठी ही रह गईं। इसके बाद क्या बोलना है, कुछ याद नहीं आया। घबराहट इतनी थी कि न तो कुछ याद आ रहा था और न ही उंगली नीचे हो रही थी।

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जो डूबना है तो इतने सुकून से डूबो…

अगर अपनी मंज़िल तक पहुंचना है तो इस संजीदगी के साथ सफ़र तय किया जाए कि किसी को पता न चले और आपकी मंज़िल आपके कदमों में हो।

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पं‍. छन्‍नूलाल मिश्र: गुरु ने कहा था, भीतर-बाहर एक जैसा दिखना…

पंडित छन्नूलाल मिश्र ने जीवन के अंतिम पड़ाव तक न गुरु को विस्‍मृत किया न उनकी शिक्षाओं को। करीब 10 साल पहले कला समीक्षक-पत्रकार विनय उपाध्‍याय ने पंडित छन्‍नूलाल मिश्र से लंबी बात की थी। पुनर्पाठ में उसी साक्षात्‍कार के प्रमुख अंश:

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अंश की यात्रा: एक अनूठे कवि की सांगीतिक दस्तक

आज के समय में एक युवा कवि द्वारा अंतर्मन के गंभीर संकेतों की ये अभिव्यक्तियां चौंकाती हैं और भविष्य के प्रति आश्वस्त भी करती हैं।

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‘एक था जाँस्कर’… वो भी तो कभी देख जो मंज़र में नहीं है

अजय सोडानी ने तो पूरा वृत्‍तांत इतनी खूबसूरती, इतनी तल्‍लीनता से लिखा है कि पाठक भी उनका सहयात्री बन उसी लम्‍हें में जीने लगता है। मेरे साथ भी यही हुआ। किताब पढ़ते-पढ़ते सहसा महसूस हुआ कि ‘एक था जाँस्कर’ की रचना प्रक्रिया जाननी चाहिए। इस सवाल से आरंभ हुआ एक रोचक संवाद।

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हम तरसते ही, तरसते ही, तरसते ही रहे…

यह जीवन दर्शन से जुड़ा शेर है। जो हमारे भीतर होता है उसे हम देख नहीं पाते और जो सामने दिखता है उसे सही समझ कर ज़िन्दगी भर तड़पते रहते हैं।

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कॉस्मिक ऑर्केस्ट्रा और मेवाती घराने का संगीत

सितार को समर्पित यशस्वी कला गुरू उस्ताद सिराज खान के मेवाती स्कूल ऑफ सितार के वार्षिक प्रतिष्ठा आयोजन पर हंसध्‍वनि। यह संगीत समारोह ऐसे पवित्र विचार की अनुभूति दे गया,जिसे उपलब्धि ही कहना उचित होगा।

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मैं हर दिन जाग तो जाता हूँ, ज़िंदा क्यूँ नहीं होता…

इंसान को अपनी दिनचर्या जागने की तरफ तो ले आती है लेकिन जागने के बाद एक इंसान ऐसा कुछ नहीं कर पाता कि वह ज़िंदा भी महसूस हो।

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ताकि संगीत-संस्कृति से हमारा रिश्ता पहले जैसा जरूर हो

‘कुछ दस्तकें, कुछ दस्तख़त’ के केनवस पर उड़ान के पंख की कलम से लिखे गए चमकीले सुवर्ण हर्फ-हर्फ इस तरह महसूस किए जा सकते हैं जैसे ब्रेल लिपि के पाठक करते हैं।

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