रचता है, वही तो बचता है

सृजनात्मकता अपने आपमें ही बड़ी कोमल वस्तु है। सही अर्थ में एक गहरे सृजनशील व्यक्ति के लिए आज का समय तरह तरह की अनिश्चितताओं और संदेहों से भरा हुआ है। फिर भी बात यही सच है कि जो रचेगा, आखिर में वही बचेगा।

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भारतेंदु का कहा 140 सालों बाद भी खरा

आधुनिक हिंदी साहित्‍य के पितामह कहे जाने वाले लेखक भारतेंदु हरिशचंद्र ने अपने देहांत से पहले नवंबर 1884 में बलिया के ददरी मेले में आर्य देशोपकारिणी सभा में एक भाषण दिया था। यह नवोदिता हरिश्‍चंद्र चंद्रिका में दिसंबर 1884 के अंक में छपा था। इस भाषण का विषय था-भारत वर्षोन्नति कैसे हो सकती है…

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सखी, वे कह कर जाते तो…

वसंत आ रहा है… सखी, देखो वो चला आ रहा है चुपचाप… बिना पदचाप… जैसे कोई देख ना ले… कोई सुन ना ले… उसके आने की आहट। वसंत हां, वसंत ऐसे ही तो आता है, जीवन में भी। जाने कब आ कर हथेलियों पर बिखरा देता है मेंहदी। स्वप्न कुसुम केसरिया रंग ओढ़ लेते हैं…।वसंत का आना पता ही नहीं चलता…

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कुमार गंधर्व: गायन का अद्भुत लोकतंत्र

8 अप्रैल 1924 को कर्नाटक बेलगांव के सुलेभावी गांव में जन्‍म लेने वाले शिवपुत्र सिद्धरामैया कोमकली को हम कुमार गंधर्व के नाम से जातने हैं। प्रशंसक उन्‍हें प्रेम और सम्‍मान से कुमार जी के नाम से संबोधित करते हैं। कवि सर्वेश्‍वरदयाल सक्‍सेना ने कुमार जी को गाते हुए प्रत्‍यक्ष देखा-सुना:

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