जे. कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं पर आधारित
संजीव शर्मा, स्वतंत्र लेखक
तुलना और प्रतिस्पर्धा हमारी शिक्षा के दो आधार स्तंभ जैसे बन गए हैं। हमें ऐसा लगने लगा है कि जैसे इन दोनों के बगैर शिक्षा ग्रहण कर पाना लगभग असंभव है। विद्यार्थी, स्कूल और माता-पिता सबको ऐसा ही महसूस होता है कि बच्चों की आपस में तुलना करके और उनके बीच प्रतिस्पर्धा करवा कर हम उनको ज्यादा से ज्यादा पढ़ने के लिए प्रेरित कर सकते हैं, बेहतर परिणाम हासिल कर सकते हैं और जीवन में ज्यादा सफल हो सकते हैं। लेकिन क्या वाकई ऐसा है?
कोई भी बच्चा जब छोटा होता है तो वह एक से एक मुश्किल चीजें बिना किसी तुलना या प्रतिस्पर्धा के सीख लेता है। जिसने भी बच्चों को पास से देखा है वह यह बात जानता होगा कि चलना सीखना कितना जटिल काम होता है। हाथ और पैरों का नियंत्रण सीखना, संतुलन बनाना, अलग-अलग सतहों पर उस संतुलन को कायम रखना, गिरने से अपने को बचाना और बिना सहारे के चलना; यह सभी काम बेहद जटिल हैं, उनके लिए लगातार अभ्यास और प्रयासों की जरूरत होती है। लेकिन फिर भी बच्चा यह सभी बिना किसी तुलना या प्रतिस्पर्धा के सीखता जाता है।
कोई उससे नहीं कहता कि फलाना बच्चा तुमसे जल्दी चलना सीख गया या ढिकाने बच्चे से प्रतिस्पर्धा करते हुए जल्दी चलना सीखो। वह खुद ही प्रयोग करते, अभ्यास करते, गलतियों से सीखते और लगातार प्रयास करते हुए सीखता जाता है। चलना सीखना किसी डिग्री हासिल करने से आसान नहीं है, उसके लिए भी मेहनत करनी पड़ती है। लेकिन बच्चा स्वाभाविक रूप से उसे करता जाता है।
चलना सीखने के साथ वह और भी बहुत सी चीजें सीख लेता है जिनको करने के लिए काफी प्रयासों की जरूरत होती है। बोलना सीखना भी कोई आसान काम नहीं होता है। लेकिन वह ये सब आसानी से सीखता जाता है तो फिर स्कूल पहुंचते ही ऐसा क्या हो जाता है कि कुछ भी सिखाने के लिए हमें तुलना और प्रतिस्पर्धा की जरूरत पड़ने लगती है?
यदि हम ध्यान से देखें तो समझ आता है कि तुलना और प्रतिस्पर्धा से विद्यार्थी के अंदर एक तरह का भय और असुरक्षा पैदा होती है और उस भय और असुरक्षा से राहत पाने के लिए वह पढ़ने को प्रेरित होता है। लेकिन क्या इस तरह से वह उस विषय में गहराई से उतर सकता है? उस विषय के साथ उसका रिश्ता अच्छा हो सकता है? क्या वह भय और असुरक्षा उसके अंदर तनाव, चिंता, हताशा और निराशा का कारण नहीं बन सकते?
अक्सर हमको ऐसी खबरें सुनने को मिलती हैं कि साथियों से कम नंबर आने पर विद्यार्थी डिप्रेशन का शिकार हो गया या कभी-कभी तो आत्महत्या जैसा भयावह कदम भी उठा लेते। एक मेडिकल छात्रा ने तो इसलिए आत्महत्या कर ली कि उसके साथी उससे छह महीने पहले डॉक्टर बन गए। शिक्षा के क्षेत्र में लायी गए तुलना और प्रतिस्पर्धा सिर्फ शिक्षा तक सीमित नहीं रहती है बल्कि उसका प्रभाव हमारे जीवन में हर हिस्से में फैल जाता है। हम लगातार किसी न किसी से अपनी तुलना करते रहते हैं और ज़्यादातर चीजें इसलिए नहीं करते क्योंकि वह करना हमें अच्छा लगता है बल्कि इसलिए करते हैं क्योंकि हमें किसी और से तुलना करनी है। हम एक ऐसे कभी न खत्म होने वाले संघर्ष में फंस जाते हैं जो हमारी मौत के साथ ही खत्म होता है।
शिक्षा के क्षेत्र में लगातार शोध हो रहे हैं और पढ़ने-पढ़ाने के ऐसे तरीकों पर जोर दिया जा रहा है जिनमें तुलना और प्रतिस्पर्धा को दूर रखा जाए। बच्चा स्वभाव से ही उत्सुक होता है और चीजों को जानने की उसके अंदर सहज जिज्ञासा होती है। गलत तरीकों से पढ़ाई, तुलना और प्रतिस्पर्धा के कारण उसकी यह सहज जिज्ञासा और सीखने की स्वाभाविक ललक खत्म हो जाती है और पढ़ाई उसके लिए बोझ बन जाती है। फिर वह अपने भय और असुरक्षा से मुक्ति पाने के लिए पढ़ाई करता है और उसके लिए पढ़ने का आनंद लेना, विषय का गहरा ज्ञान हासिल करना मुश्किल होता जाता है। फिर वह किसी तरह रटना और परीक्षा में उड़ेलना तो शायद सीख लेता है लेकिन वास्तव में सीखना नहीं हो पाता।