कफ सिरप में जहर: भारत की साख पर बट्टा

- जे.पी. सिंह
वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के विशेषज्ञ
दुनिया की फार्मेसी कहे जाने वाले भारत पर दूषित कफ सिरप की लगातार घटनाओं के बाद कड़ी निगरानी का सामना करना पड़ रहा है। हाल ही में कोल्ड्रिफ से जुड़ी मौतों ने दवा सुरक्षा, नियामक कमियों और विनिर्माण निरीक्षण को लेकर चिंताएं बढ़ा दी हैं। कई घातक मामले दवा उत्पादन में अपर्याप्त गुणवत्ता नियंत्रण से उत्पन्न खतरों को उजागर करते हैं।
मध्य प्रदेश में 14 (खबरों के अनुसार यह संख्या बढ़ कर 17 हो गई है) और राजस्थान में दो बच्चों की कोल्ड्रिफ कफ सिरप पीने से मौत हो गई। तमिलनाडु के औषधि नियंत्रण विभाग ने डायथिलीन ग्लाइकॉल (डीईजी) की मिलावट का पता लगाया। सिरप के सैंपल की जांच तमिलनाडु ड्रग कंट्रोल निदेशालय से कराई गई, जहां 2 अक्टूबर 2025 की रिपोर्ट में पुष्टि हुई कि सिरप में 48.6 प्रतिशत डायथाइलीन ग्लाइकॉल मौजूद है। यह रसायन किडनी और लिवर फेलियर का कारण बन सकता है और इंसानी इस्तेमाल के लिए घातक है।
विषैले रसायन
औद्योगिक रूप से विलायक या एंटीफ्रीज के रूप में उपयोग किए जाने वाले डीईजी और एथिलीन ग्लाइकॉल (ईजी) अत्यधिक विषैले होते हैं। इनका थोड़ा सा भी स्तर कई अंगों को नुकसान पहुंचा सकता है, गुर्दे की विफलता या मृत्यु का कारण बन सकता है, खासकर बच्चों में।
नियामक विवाद: केंद्रीय प्राधिकारियों ने कोल्ड्रिफ को सुरक्षित बताया तथा मौतों के लिए अन्य चिकित्सीय कारणों का हवाला दिया, जबकि तमिलनाडु ने पुष्टि किए गए संदूषण के कारण उत्पाद को घटिया श्रेणी में रखा।
यह घटना इसी प्रकार की त्रासदियों की पुनरावृत्ति का एक हिस्सा है। पिछले मामले:
जम्मू (2020): दूषित सिरप से 12 बच्चों की मौत हुई।
गाम्बिया (2022): भारत से निर्यात किए गए विषाक्त सिरप के कारण 70 मौतें हुईं।
उज्बेकिस्तान (2022): भारत में निर्मित सिरप से 18 बच्चों की मौत हुई।
बार-बार की गई चूक से एक विश्वसनीय वैश्विक आपूर्तिकर्ता के रूप में भारत की विश्वसनीयता कमज़ोर होती है, जिससे दवा निर्यात को खतरा पैदा होता है और गुणवत्ता आश्वासन तथा विनिर्माण निरीक्षण के बारे में चिंताएं बढ़ती हैं। इस तरह की घटनाएं दवा उद्योग में गुणवत्ता नियंत्रण की कमी को उजागर करती है, और उम्मीद है कि केंद्रीय स्तर पर भी इस पर सख्ती बरती जाएगी।भारत में औषधि विनियमन केन्द्रीय और राज्य दोनों तंत्रों के माध्यम से संचालित होता है, लेकिन प्रवर्तन संबंधी चुनौतियां बनी हुई हैं।
सीडीएससीओ: औषधियों एवं सौंदर्य प्रसाधनों के लिए राष्ट्रीय नियामक।
राज्य औषधि नियंत्रक: राज्यों के भीतर लाइसेंसिंग, निरीक्षण और निगरानी का कार्य संभालते हैं।
औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम, 1940: देश भर में औषधियों के विनिर्माण, बिक्री और गुणवत्ता मानकों को नियंत्रित करता है।
भारत का दवा क्षेत्र वैश्विक स्वास्थ्य सेवा की आधारशिला है, लेकिन बार-बार होने वाली संदूषण की घटनाएं गुणवत्ता नियंत्रण और नियामक प्रवर्तन में महत्वपूर्ण कमज़ोरियों को उजागर करती हैं। अपनी ‘विश्व की दवा कंपनी’ की स्थिति को बनाए रखने के लिए, भारत को विनिर्माण निगरानी को तत्काल सुदृढ़ करना होगा, कड़े अंतरराष्ट्रीय मानकों का पालन करना होगा और उपभोक्ता सुरक्षा को सर्वोपरि रखना होगा। दीर्घकालिक क्षेत्रीय विकास पारदर्शिता, जवाबदेही और अटूट गुणवत्ता आश्वासन के माध्यम से बहाल किए गए विश्वास पर निर्भर करता है।
भारत वैश्विक फार्मास्युटिकल बाजार में जेनेरिक दवाओं के सबसे बड़े उत्पादकों और निर्यातकों में से एक के रूप में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, जो वैश्विक मांग का लगभग 20 प्रतिशत पूरा करता है। देश विश्व स्तर पर जैव प्रौद्योगिकी के लिए शीर्ष 12 गंतव्यों में से एक है और एशिया प्रशांत क्षेत्र में तीसरे स्थान पर है, इसके जैव प्रौद्योगिकी उद्योग ने 2022 में 80.12 बिलियन अमरीकी डालर को पार कर लिया है, जो पिछले वर्ष की तुलना में 14 प्रतिशत की वृद्धि दर्शाता है।
जिस भारत को विश्व की फार्मेसी के रूप में जाना जाता है, आज दवाओं की गुणवत्ता के संकट के रूप में एक गंभीर नैतिक और संरचनात्मक संकट से जूझ रहा है । बीते तीन वर्षों में भारत सरकार द्वारा परीक्षण किए गए 3 लाख से अधिक दवा सैंपलों में से 9 हजार से अधिक घटिया गुणवत्ता की पाई गईं और 951 नकली या मिलावटी निकलीं। वर्ष 2024-25 में यह आंकड़ा और अधिक गंभीर हो गया जब 3,104 दवाएं मानकों पर खरा नहीं उतर पाईं। यह समस्या मात्र एक तकनीकी चूक नहीं, बल्कि देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति, नियामक ढांचे और नैतिक प्रतिबद्धता पर बड़ा सवालिया निशान है।
दवाएं स्वास्थ्य सेवा की रीढ़ होती हैं। यदि, कोई प्रणाली ही ऐसी दवाएं उपलब्ध कराए जो जीवनदायिनी के बजाय जीवन के लिए खतरा बन जाएं, तो वह स्वास्थ्य व्यवस्था विफल मानी जाएगी। राज्यसभा में पूछे गए सवाल के जवाब में सरकार ने जो आंकड़े प्रस्तुत किए, वे न सिर्फ चौंकाने वाले हैं बल्कि यह भी दर्शाते हैं कि देश में दवा निगरानी प्रणाली या तो काफी कमजोर है या फिर उसमें जानबूझकर लापरवाही बरती जा रही है। नकली, मिलावटी या मानक से कमतर दवाएं किसी महामारी से कम नहीं हैं। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, निम्न और मध्य आय वाले देशों में 10 प्रतिशत से अधिक दवाएं घटिया या नकली होती हैं। भारत की स्थिति अब इस वैश्विक औसत से भी नीचे गिरती प्रतीत होती है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि भारत से कई देशों को दवाओं का निर्यात होता है। इस प्रकार, यहां की दवाओं की गुणवत्ता पर वैश्विक भरोसा भी दांव पर लग सकता है।
साल 2024 में गृह मंत्रालय द्वारा दिल्ली सरकार के अस्पतालों में आपूर्ति की गई घटिया दवाओं की जांच सीबीआई को सौंपना इस संकट की संवेदनशीलता को दर्शाता है। उपराज्यपाल वी.के. सक्सेना ने 2023 में जो सिफारिश की थी, वह केवल एक राजनीतिक आरोप नहीं थी, बल्कि उसमें वास्तविकता की गहराई थी। मोहल्ला क्लीनिक, जिसे दिल्ली मॉडल की उपलब्धि के तौर पर प्रचारित किया गया, अब इसी संकट की जद में है। यदि, सचमुच इन संस्थानों के माध्यम से घटिया दवाएं वितरित की गईं, तो यह केवल धोखाधड़ी नहीं बल्कि एक तरह का जनस्वास्थ्य अपराध है।
यह मामला यह भी इंगित करता है कि राज्य और केंद्र सरकारों के बीच राजनीतिक खींचतान का खामियाजा नागरिकों को भुगतना पड़ रहा है। दवा गुणवत्ता की समस्या को यदि राजनीतिक हथियार बनाकर पेश किया जाएगा, तो समाधान की दिशा और भी धुंधली हो जाएगी।केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा दिसंबर 2022 से जोखिम आधारित निरीक्षण प्रणाली की शुरुआत एक सराहनीय कदम था, लेकिन इसके निष्कर्ष और भी चौंकाने वाले हैं।
अब तक 905 दवा निर्माण इकाइयों का निरीक्षण किया गया, जिनमें से 694 के खिलाफ कार्रवाई करनी पड़ी। यह आकंड़ा बताता है कि लगभग 77 प्रतिशत दवा निर्माता किसी न किसी तरह से मानकों का उल्लंघन कर रहे थे। इस तरह की व्यापक लापरवाही केवल उद्योग के लालच का परिणाम नहीं हो सकती, बल्कि यह नियामक निकायों की अक्षमता और मिलीभगत की भी द्योतक है। ड्रग कंट्रोल अथॉरिटीज की जवाबदेही और निरीक्षण प्रक्रिया पर नए सिरे से पुनर्विचार आवश्यक है। भारत में दवाओं की गुणवत्ता सुनिश्चित करने वाली सबसे प्रमुख संस्था केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) का ढांचा अब पुराना और असमान हो गया है। स्टाफ की कमी, संसाधनों की अनुपलब्धता और भ्रष्टाचार इस संस्था की कार्यक्षमता को सीमित करते हैं।
भारत में दवाओं का उत्पादन एक विशाल उद्योग है, जिसकी सालाना कमाई अरबों डॉलर में होती है, लेकिन इस लाभ की दौड़ में यदि कंपनियां गुणवत्ता से समझौता करें, तो इसका सीधा असर आम जनता के जीवन पर पड़ता है। निम्न गुणवत्ता वाली दवाएं या तो असर नहीं करतीं या फिर गंभीर दुष्प्रभाव उत्पन्न करती हैं। खासकर, ग्रामीण क्षेत्रों, झुग्गियों और निम्न आय वर्ग के मरीजों को इसका सबसे ज़्यादा खामियाजा भुगतना पड़ता है, क्योंकि वे सस्ती सरकारी दवाओं पर ही निर्भर होते हैं।
यह भी देखा गया है कि कुछ मामलों में फार्मा कंपनियां जानबूझकर घटिया दवाएं बनाकर उन्हें सरकारी अस्पतालों के लिए सस्ते दरों पर बेचती हैं, ताकि टेंडर जीत सकें। ये कंपनियां यह मानती हैं कि गरीबों के जीवन का मूल्य कम होता है, और यही सोच इस संकट की जड़ है। भारत में नकली या घटिया दवाओं को लेकर दंड का प्रावधान है, लेकिन यह अक्सर इतना लचर होता है कि औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम, 1940 के अंतर्गत अपराध सिद्ध होने पर अधिकतम दंड पांच साल की सजा या जुर्माना है, लेकिन दोष सिद्धि की दर बहुत कम है। इसके अलावा, जांच और अभियोजन की प्रक्रिया इतनी लंबी और जटिल है कि आरोपी अक्सर बच निकलते हैं। ऐसे में, यह जरूरी हो गया है कि सरकार इन कानूनों में संशोधन करे और उन्हें समयानुकूल बनाए। दवा गुणवत्ता से जुड़े मामलों में फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना, लाइसेंस रद्द करने की अधिक शक्तिशाली प्रक्रिया और दोषी कंपनियों के निदेशकों को आपराधिक रूप से उत्तरदायी ठहराने जैसे कदम आवश्यक हो चुके हैं।
प्रत्येक दवा की निर्माण से वितरण तक की प्रक्रिया को ब्लॉकचेन या अन्य डिजिटल तकनीक के जरिए ट्रैक किया जाना चाहिए ताकि मिलावट या गुणवत्ता में गड़बड़ी आसानी से चिन्हित की जा सके। सुप्रीम ऑडिट को बढ़ावा दिया जाए ताकि कंपनियां निरीक्षण की पूर्व-तैयारी नहीं कर सकें। आम लोगों के लिए शिकायत दर्ज करने की आसान प्रणाली होनी चाहिए जहाँ वे दवा की गुणवत्ता पर संदेह होने पर रिपोर्ट कर सकें। फार्मासिस्टों को भी इसके लिए जवाबदेह बनाया जाना चाहिए। फार्मा क्षेत्र से जुड़े कर्मियों, वैज्ञानिकों और प्रबंधकों के लिए मेडिकल एथिक्स की शिक्षा को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। सीडीएससीओ जैसी संस्थाओं को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करते हुए उन्हें स्वतंत्र और पेशेवर नेतृत्व सौंपा जाना चाहिए।
कुल मिलाकर, दवाएं केवल उत्पाद नहीं होतीं, वे जीवन का दूसरा नाम हैं। यदि, देश की स्वास्थ्य प्रणाली में दवाओं की गुणवत्ता ही संदिग्ध हो जाए, तो यह न केवल नैतिक विफलता है, बल्कि एक गहरा सामाजिक अन्याय भी है। भारत जैसे देश, जो वैश्विक स्वास्थ्य सेवाओं में नेतृत्व का दावा करता है, के लिए यह संकट न केवल आंतरिक बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साख की चुनौती बन गया है।
गुणवत्ता और सुरक्षा मानकों के संदर्भ में भारत के फार्मास्युटिकल उद्योग के सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा, विश्वास बहाल करने, आर्थिक विकास को बढ़ावा देने, अच्छे अंतरराष्ट्रीय संबंधों को बनाए रखने और वैश्विक सहयोग को सुगम बनाने के लिए महत्वपूर्ण है। नियमों को अपडेट करके, नियामक ढांचे को सुव्यवस्थित करके, और गुणवत्ता और सुरक्षा की संस्कृति को बढ़ावा देकर, भारत यह सुनिश्चित कर सकता है कि इसका फार्मा उद्योग वैश्विक स्वास्थ्य सेवा पर सकारात्मक प्रभाव डालता रहे।