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राघवेंद्र तेलंग सुपरिचित कवि,लेखक,विज्ञानवेत्ता
सबसे जरूरी थी ऐसी घड़ियों की मौत …घर में दीवार घड़ी का एक निश्चित स्थान हुआ करता था। उस एक बेजान घड़ी से घर के सजीवों और निर्जीवों के संबंध और कार्य व्यवहार संचालित हुआ करते। आंखें घड़ी के उस स्थान को देखने की इतनी अभ्यस्त हो चुकी थीं कि उस एक दिन घड़ी को वहां न पाकर उनमें पानी आ गया। आंखों में कैद उसके अक्स की याद ने दिल में एक हूक सी भर दी। उस खाली स्थान पर घड़ी के हस्ताक्षर पढ़े जा सकते थे जो अब अमिट हो चुके थे।
घड़ियां अपनी जगह कैसे दर्ज कर लेती हैं, यह समझ में आ रहा था। घड़ी अपने स्थान पर नहीं थी मगर फिर भी घर का हर बच्चा स्कूल जाते वक्त उस स्थान पर नजर डालता हुआ जाता था। दफ़्तर जाते समय बड़ा आदमी जल्दी-जल्दी में ही सही, उस स्थान के खाली हो जाने पर घर से भुनभुनाते हुए निकलता था और उसे लगता था कि आज पूरा दिन ही खराब गुजरने वाला है। गृहिणी के कई कामों के घंटों की इबारत उस घड़ी के छोटे और बड़े कांटों के बीच बनने वाले कोणों पर टंगी होती थी। एक डायरी की तरह। उस डायरी के पन्ने चिंदी-चिंदी हो चुके थे। बुजुर्गवार उस स्थान के आसपास अब ज्यादा बेचैनी से टहलते पाए जाते। उन्हें लगता यह समय बोझ बन चुका है और अब कभी नहीं कटेगा। घड़ी के न होने से नल के आने का, दूध वाले के आने का,काम वाली का या किसी भी अपेक्षित के आने का इंतजार लंबा हो चुका था।
उस स्थान के खाली हो जाने से सब तरफ खालीपन का अहसास हो रहा था। घड़ी के अभाव में लगता था समय शायद अनंत घंटों में बंट चुका है। सारे अंदाज गड्ड-मड्ड हो चुके थे। जीवन में चिड़ियों के चहचहाने का, रातरानी की महक फैलने का एक तय समय होता है यह महसूस किया जा सकता था। घड़ी के वहां न होने से घर का पूरा टाइम टेबल गड़बड़ा गया था। घर का सूरज पहले सूरज के साथ ही उदित और अस्त होता था, यह सामंजस्य भी टूट गया था। यह टूटना उस घर के लोगों के अंतर्संबंधों को भी बेध रहा था धीरे-धीरे। आठों पहर रात का अहसास था। किसी को दिन में भी ठीक समय पर कुछ सूझता नहीं था। उस घर का वसंत चला गया, एक घड़ी के साथ, यह बहुत बाद में मालूम पड़ा। वह घड़ी देखने में जरूर कैलेंडरों की तरह आकर्षक, मादक और सेक्सी नहीं थी फिर भी वह घर में का सब कुछ बांधे रखती थी। अब उसकी जगह लगने वाली तमाम प्रस्तावित चीजों के नामों में सब रंगीन चीजें थीं मगर उन चीजों में घड़ी का नाम नहीं था। घड़ी इतिहास बन चुकी थी और उसका मर्सिया पढ़ने वाला कोई नहीं बचा था।
उस एक घड़ी से सब अपनी घड़ियां मिलाते थे, वे घड़ियां भी शोक संतप्त थीं। उन्हें पहनने वालों के साथ भी गड़बड़झाला चल रहा था। उस घड़ी ने अपने नियत स्थान पर खड़े रहकर सबको चलना सिखाया था। उसने कई दफे समय के बारे में लोगों में एक फिलासफी पैदा की थी। आज समय अपने साथ है। आज बुरी घड़ी टल गई। वक्त हमेशा एक सा नहीं रहता, कल अपना भी टाइम आएगा। समय के बारे में ऐसे दार्शनिक वाक्य उस घड़ी की उपस्थिति में ही बोले गए थे। उस वक्त घड़ी एक दार्शनिक की तरह बिल्कुल चुप थी। समय दूसरों की भाषाओं में अपना मौन व्यक्त करता है।
एक समय घर के बीचों-बीच वाला वह कमरा जो घड़ी की वजह से घड़ी वाली खोली कहलाता था, अब इलेक्ट्रॉनिक घड़ियों, लैपटॉप,मोबाइल से अट चुका था और इससे घर के लोगों को लगने लगा कि उसे अब घड़ी वाला कमरा कहना उचित नहीं है। इस तरह मनुष्य की एक अप्रतिम खोज के नाम पर हुए कमरे का नामकरण बदलकर ड्राइंगरूम हो गया। आइने वाली खोली पीछे का बेडरूम कहलाने लगी क्योंकि आइने हर कमरे में हो चुके थे। पंखे वाली खोली को तो दूसरा बेडरूम कहलाना ही था क्योंकि पंखे भी सभी कमरों में हो चुके थे। उस घड़ी की एक-एक टिक-टिक के साथ घर के एक-एक इंच का नक्शा बदल रहा था। साथ ही बदले जा रहे थे पहचान के कुछ नाम। समूचा आकाश फैल रहा था। तारे,ग्रह,पिंड सब दूर छिटक रहे थे। लगता था किसी एक बड़े से हाथ में से फिसलकर सब चीजें भाग रही हैं, एक दूसरे की विपरीत दिशाओं में।
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घड़ी से घर के जिन लोगों की स्मृतियों के संबंध वाबस्ता थे, वे भी अंतरिक्ष में विलीन हो चुके थे। नए जमाने में बाजार ने घरों में इतनी घड़ियां ठूंस दी थीं कि लोग घड़ी देखते ही यह कहकर भागने को उद्यत रहते ‘समय नहीं है।’ आधुनिकता ने सभी घड़ियों के भीतर का समय चूस लिया था और लोग फुर्सत की एक घड़ी को तरस गए थे। लगता था सब डिजिटल गैजेट्स समय की कब्रगाह बन गए हैं। रिटायरमेंट, शादी, जन्मदिन, परीक्षा में सफलता पर घड़ी देने का रिवाज खत्म हो चुका था क्योंकि घड़ियों का बाजार मूल्य इतना गिर चुका था कि इस बात की पूरी आशंका थी कि घड़ी पाने वाला अपमानित महसूस कर जाए। घड़ियां सुधारने वाले घड़ीसाज और उनकी एक आंख में लगने वाले लैंस व उस जमाने की घड़ियां फॉसिल्स में तब्दील होने समय की कठोर चट्टानों के भीतर चले गए थे।एक समय के बाद वह खाली स्थान कब भर गया किसी ने गौर ही नहीं किया। चूंकि समय का अनुशासन जो उस घड़ी के रहते हुआ करता था, उससे वह घर मुक्त हो चुका था। ऐसा सभी घरों में हो रहा था। यह स्वच्छंद संस्कृति के विकास का दौर था जिसमें ऐसी घड़ियों की मौत सबसे जरूरी थी जिनके बूते चला करती थी घरों की शांत और संतोषप्रद जिंदगी। संस्कृति-समाज-घर के ताने-बाने के टूटने के लिए बस एक घड़ी के लुप्त होने की जरूरत होती है।
एक जमाने में एक दिन खुदाई में एक ऐसी गोल पाईपनुमां चाबी मिली जिसमें खांचें नहीं थे। उस चाबी को सबने उलट-पुलट कर देखा पर कोई समझ नहीं पाया कि वह चाबी एक दीवार घड़ी की थी।
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