जे.पी.सिंह, वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के विशेषज्ञ
नोटबंदी पर सुप्रीम कोर्ट की जज जस्टिस बीबी नागरत्ना के सवाल उठाने और यह कहने कि नोटबंदी काले धन को सफेद करने के लिए की गयी थी, देश में लगभग थम चुकी राजनीतिक बहस फिर से जिंदा हो गयी है। भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का वर्षों पहले का कथन कि नोटबंदी से भारतीय अर्थव्यवस्था को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है और इसका भारतीय अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ सकता है ,आज सच साबित हो रहा है।
एक और भारत के तीव्र विकास का सरकारी दावा किया जा रहा है और दूसरी और मोदी सरकार 14 लाख करोड़ का कर्ज ले रही है। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाडरा ने सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हुए सवाल पूछा है कि भारत सरकार मौजूदा वित्त वर्ष में 14 लाख करोड़ से ज्यादा का कर्ज लेने जा रही है, क्यों? प्रियंका गांधी ने कहा कि आजादी के बाद से साल 2014 तक, 67 सालों में देश पर कुल कर्ज 55 लाख करोड़ था जबकि पिछले 10 सालों में अकेले मोदी जी ने इसे बढ़ाकर 205 लाख करोड़ पहुंचा दिया है। उन्होंने सवाल पूछा है कि पैसा किसके ऊपर खर्च हुआ? बड़े-बड़े खरबपतियों की कर्जमाफी में कितना पैसा गया?
दरअसल, अगर खर्च आमदनी से ज्यादा हो तो सरकार को कर्ज लेना ही होता है। सरकार जैसे ही कर्ज लेती है इससे राजस्व घाटा बढ़ता है। इसका मतलब ये हुआ कि सरकार का खर्च राजस्व से होने वाली कमाई से ज्यादा है। आमतौर पर राजस्व घाटा तब ज्यादा होता है जब सरकार कर्ज के पैसे को वहां खर्च करती है, जिससे रिटर्न नहीं आता है।
सुप्रीम कोर्ट की न्यायाधीश न्यायमूर्ति वी. नागरत्ना ने नवंबर 2016 की नोटबंदी पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा है कि यह “काले धन को सफेद धन में बदलने का एक तरीका” था। सितंबर 2027 में देश की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनने जा रहीं न्यायाधीश ने यह भी शिकायत की है कि किसी को नहीं पता कि काले धन पर बाद की आयकर कार्रवाई का क्या हुआ। उनकी टिप्पणियां नलसर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ हैदराबाद द्वारा आयोजित ‘न्यायालय और संविधान’ विषय पर आयोजित एक सम्मेलन में दिए एक भाषण में आईं।
न्यायमूर्ति नागरत्ना पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ में एकमात्र असंतुष्ट जज थीं। संविधान पीठ ने पिछले साल 2 जनवरी को 4:1 के बहुमत से 8 नवंबर, 2016 को 1,000 रुपये और 500 रुपये के नोटों को बंद करने के नरेंद्र मोदी सरकार के फैसले की वैधता को बरकरार रखा था।
न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा, “हम सभी जानते हैं कि 8 नवंबर, 2016 को क्या हुआ था, जब 500 और 1,000 रुपये (नोट) बंद कर दिए गए थे। उस समय और भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में दिलचस्प पहलू यह था कि (नकदी) अर्थव्यवस्था में 500 रुपये और 1,000 रुपये के नोटों का हिस्सा 86 प्रतिशत था। नोटबंदी का निर्णय लेते समय केंद्र सरकार ने इसी बात पर ध्यान नहीं दिया।’’
उन्होंने कहा “एक मजदूर की कल्पना करें जो उन दिनों काम पर गया था (और) जिसे दिन के अंत में 1,000 रुपये का नोट या 500 रुपये का नोट दिया गया था। रोजमर्रा की जरूरी चीजें खरीदने के लिए पंसारी की दुकान पर जाने से पहले उसे जाकर उसे बदलवाना पड़ता था! और दूसरा पहलू यह है कि (86 प्रतिशत) विमुद्रीकृत नोटों में से 98 प्रतिशत भारतीय रिजर्व बैंक के पास वापस आ गए। तो हम काले धन के उन्मूलन के लिए कहां जा रहे थे?”
न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा, “मुझे लगा कि यह नोटबंदी काले धन को सफेद धन में बदलने का एक तरीका है क्योंकि सबसे पहले 86 प्रतिशत मुद्रा का विमुद्रीकरण किया गया था और 98 प्रतिशत (विमुद्रीकृत) मुद्रा सफेद धन बन गई थी। सारा बेहिसाब पैसा बैंक में वापस चला गया। इसलिए, मैंने सोचा कि यह बेहिसाब नकदी का हिसाब-किताब करने का एक अच्छा तरीका है। लेकिन आयकर कार्रवाई आदि के संबंध में क्या हुआ है, हम नहीं जानते। इसलिए, इस आम आदमी की दुर्दशा ने मुझे उद्वेलित कर दिया; इसलिए मुझे असहमत होना पड़ा।’’
एक लाइन में कहा जाए तो नोटबंदी की हकीकत यह है कि प्रधानमंत्री ने अपने देर शाम के भाषण में जिन दो बड़े उद्देश्यों – काले धन को पकड़ने और नकली नोटों को खत्म करने के बारे में कहा था – वे सफल नहीं हुए हैं। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की वार्षिक रिपोर्ट से पता चलता है कि विमुद्रीकृत किए गए सभी उच्च मूल्य वाले मुद्रा नोटों में से 99.3 प्रतिशत वापस जमा कर दिए गए थे।
नोटबंदी के लाभ दूर की कौड़ी
विमुद्रीकरण के वास्तविक लाभों के बारे में औचित्य – नकदी रहित (या कम नकदी) अर्थव्यवस्था से लेकर आतंकवादी नेटवर्क पर प्रहार तक, भी दूर की कौड़ी साबित हुए। आरबीआई की रिपोर्ट से पता चलता है कि लोग फिर से अपनी बचत का बड़ा हिस्सा नकदी में रखने लगे हैं। डिजिटल लेन-देन बढ़ गया है – लेकिन यह नोटबंदी जैसे कठोर कदम को उचित ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं है, जिसने अर्थव्यवस्था को धीमा कर दिया है।
जैसा कि अधिकांश अर्थशास्त्रियों, जो सरकार द्वारा किए गए हर काम का बचाव करने के लिए वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध नहीं थे, ने बताया था कि कठोर कदम के लिए इससे बुरा समय नहीं हो सकता था। ऐसे माहौल में जब अर्थव्यवस्था पहले से ही धीमी होनी शुरू हो गई थी, इससे सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर में गिरावट आई – जो कि इसके कारण हुए भारी दर्द और पीड़ा के कारण सरकार को प्राप्त होने वाले किसी भी छोटे कर लाभ से कहीं अधिक था। वास्तव में यह तर्क दिया जा सकता है कि कठोर विमुद्रीकरण जैसे कदम के लिए कभी भी अच्छा समय नहीं था, जिसने विकास को धीमा कर दिया और बिना किसी अनुरूप रिटर्न के लोगों को कष्ट पहुंचाया।
दरअसल, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की एक वार्षिक रिपोर्ट जिसमें 21 महीने पहले लागू की गई नोटबंदी की बैलेंस-शीट दी गई थी, में सामने आया था कि 500 और 1,000 रुपये मूल्यवर्ग के 15.41 लाख करोड़ रुपये के विमुद्रीकृत नोटों में से केवल 10,720 करोड़ रुपये बैंकों या आरबीआई तक नहीं पहुंचे। इसका मतलब है कि इस प्रक्रिया में केवल 0.7 प्रतिशत विमुद्रीकृत करेंसी नोट रद्दी में डाले गए। सरकार को शुरू में उम्मीद थी कि लगभग 3 लाख करोड़ रुपये के बंद किए गए नोट बैंकिंग प्रणाली में वापस नहीं आएंगे, जिससे काले धन का बड़ा बोझ कम हो जाएगा।
आरबीआई द्वारा अपनी वार्षिक रिपोर्ट जारी करने के तुरंत बाद, पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने कहा था कि देश ने नौकरी जाने, उद्योगों के बंद होने और जीडीपी वृद्धि के रूप में नोटबंदी की भारी कीमत चुकाई है। भारतीय अर्थव्यवस्था ने विकास के मामले में सकल घरेलू उत्पाद का 1.5 प्रतिशत खो दिया। अकेले ही प्रति वर्ष 2.25 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। 100 से अधिक लोगों की जान चली गई। 15 करोड़ दैनिक वेतन भोगी लोगों ने कई हफ्तों तक अपनी आजीविका खो दी। हजारों एसएमई इकाइयां बंद हो गईं और लाखों नौकरियां नोटबंदी की भेंट चढ़ गईं ।
13 हजार करोड़ के नोट छापने का बोझ
जब विमुद्रीकरण की घोषणा की गई तो आरबीआई और मुद्रा प्रिंटिंग प्रेस वापस लिए गए मुद्रा नोटों की मात्रा को बदलने के लिए तैयार नहीं थे। लक्ष्य पूरा करने के लिए मुद्रा मुद्रण मशीनरी को अतिरिक्त समय तक काम करना पड़ा। विमुद्रीकरण के बाद के चरण में भारतीय मुद्रा बाजार को फिर से मुद्रीकृत करने के लिए आरबीआई ने अगले दो वर्षों में करीब 13,000 करोड़ रुपये खर्च किए। 500 और 2,000 रुपये के नए नोट लाए गए. डिजाइन वापस बुलाए गए डिजाइनों से स्पष्ट रूप से भिन्न थे। इससे मुद्रण की लागत बढ़ गई क्योंकि इसमें कई नई सुविधाएं थीं।
आरबीआई की रिपोर्ट में कहा गया था कि 2016-17 में पुराने और नए दोनों मूल्यवर्ग के नए नोट छापने पर 7,965 करोड़ रुपये खर्च किए गए। 2017-18 में नोट छापने पर खर्च की गई रकम 4,912 करोड़ रुपये रही। नोटबंदी के बाद नोटों की छपाई पर बहुत ज्यादा पैसा खर्च हुआ। एक साल पहले यानी 2015-16 (जुलाई से जून चक्र) में आरबीआई ने करेंसी नोट छापने पर 3,421 करोड़ रुपये खर्च किए थे।
नोटबंदी के बाद देशभर में नकदी के लिए मची आपाधापी में 150 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी। नोटबंदी का असर छोटे पैमाने के व्यवसायों पर भी पड़ा। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के मुताबिक नोटबंदी से करीब 15 लाख नौकरियां चली गईं। ऐसे अनेक लोगों के काम धंधे छूट गए। जीडीपी को गहरा धक्का पहुंचा और कई धंधे बंद हो गए। नोटबंदी के बाद सीएमआईई की रिपोर्ट ने बताया था कि जनवरी से अप्रैल 2017 के बीच 15 लाख लोगों की नौकरियां चली गईं। तब सरकार के मंत्रियों ने तरह तरह के दावे किए कि भारत से काला धन मिट जाएगा। जाली नोट समाप्त हो जाएगा। नक्सलवाद और आतंकवाद मिट जाएगा। ऐसा कुछ नहीं हुआ।
मई 2022 में भारतीय रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट आई थी कि 500 के जाली नोटों की संख्या में 102 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 2000 के जाली नोटों की संख्या में 55 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। नोटबंदी के बाद के वर्षों से भी ज्यादा जाली नोट पकड़े गए हैं। तो नोटबंदी से जाली नोट समाप्त नहीं हुए। नोटबंदी से एक साल पहले 23 दिसंबर 2015 को राज्य सभा में सरकार ने कहा था कि भारत में कितने जाली नोट चलन में हैं, इसका कोई ठोस अनुमान नहीं है। पता ही नहीं था मगर जाली नोट के नाम पर भी नोटबंदी को सही बताया गया।