
- आशीष दशोत्तर
साहित्यकार एवं स्तंभकार
फोटो: गिरीश शर्मा
आम ज़िंदगी को हसीन बनाने की चाहत
उठाने हैं अभी दरिया से मुझको प्यास के पहरे,
अभी तो खुश्क पैरों पे मुझे रिमझिम भी लिखनी है।
दो मिसरों में दो ख़याल बांधते हुए उनमें रब्त कायम करना यह शाइर की खूबी होती है। इस लिहाज से जनाब जसवंत राय शर्मा उर्फ़ नक्श लायलपुरी का यह शेर विराधाभासों में ख़ूबसूरती पैदा करता है। शेर के लफ़्जी मआनी पर ग़ौर किया जाए तो शाइर दरिया पर लगे प्यास के पहरों को हटाकर खुश्क पैरों पर रिमझिम लिखने की चाहत रखता है।
मगर इस शेर के भीतर जाकर देखें तो यह शेर कई सारे अर्थ खोल रहा है। यहां शाइर दरिया, प्यास, रिमझिम और खुश्की को इश्तियारों की तरह इस्तेमाल कर रहा है। यहां दरिया, दरिया नहीं है। प्यास, प्यास नहीं है। रिमझिम, रिमझिम नहीं है और खुश्की, खुश्की नहीं है। इन लफ़्ज़ों के पीछे कई सारे अर्थ छिपे हुए हैं। ये अर्थ ऐसी तहें खोल रहे हैं जो एक अलग ही ज़ाविए की तरफ़ हमें ले जा रहे हैं। सीधे-सीधे अगर इस शेर को समझने की कोशिश करें तो एक मंज़र तो हमारे सामने यह पेश होता है कि वे लोग कौन हैं जिन्होंने दरिया पर प्यास के पहरे लगा रखे हैं अर्थात एक पूरी की पूरी नमी को ज़िंदगी से गायब करने वाले ऐसे कौन लोग हैं? समाज के वे जिम्मेदार जिनके हाथों में सत्ता की पकड़ है या फिर वे रसूखदार जो अपने इशारों पर आम जन जीवन से हर छोटी-छोटी खुशी छीन लिया करते हैं।
ऐसे लोगों के पहरे दरिया से हटाने की बात शाइर कर रहा है। यहां ऐसे लोगों को प्यासा बताने का आशय यह है कि समाज में जो जितना दौलतमंद है, जिसके पास जितना धन है, जितनी ताक़त है, वह उतना ही प्यासा है। अगर यह वर्ग तृप्त हो जाए तो आम लोगों की ज़िंदगी में दरिया मौजूद रहें अर्थात खुशहाली मौजूद रहे। अगर अभी आम लोगों को खुशहाली नहीं मिल रही है इसका मतलब यह है कि कहीं न कहीं ऐसे लोगों ने अपनी नज़रें आम लोगों की खुशियों पर जमा रखी है । उन नजरों को यहां शाइर हटाना चाहता है। और साथ ही शाइर यह भी चाहता है कि जो पैर अब तक खुश्क हैं यानी जो बदनसीब अब तक हर ख़ुशी से महरूम हैं उन्हें खुशियां मुझे लौटाना है। आख़िर हर किसी को खुशियां तो मिलनी ही चाहिए।
यहां दोनों बातें एक दूसरे पर निर्भर भी हैं और निर्भर नहीं भी। निर्भर इस तरह कि जब दरिया से प्यास के पहरे हटेंगे तो खुश्क के पैर अपनेआप गीले हो जाएंगे। निर्भर इसलिए नहीं है कि शाइर को दो काम करना हैं। एक तो संपन्न लोगों से ग़रीबों की ख़ुशियों को बचाना है और जो विपन्न हैं उन्हें खुशियां देना है। यह शेर इंसान की ख्वाहिशों और ज़िंदगी में बढ़ती चाहतों की तरफ़ भी इशारा करता है। जिस तरह ‘कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूंढे वन माही’ अर्थात सब कुछ अपने पास होते हुए भी और कुछ पाने की चाहत इंसान की प्यास को बुझने नहीं देती है। भीतर दरिया होते हुए भी ख़्वाहिशों की प्यास के पहरे लगे हुए हैं। अपने पास सब कुछ होते हुए भी कुछ अधिक पाने की तमन्ना ही , जो है उसे भी भोगने से वंचित कर रही है। शाइर उस प्यास को ख़त्म कर देने की बात कर रहा है। जब यह प्यास ख़त्म होगी तो ज़िंदगी में खुशी, उल्लास और आनंद अपने आप चला आएगा।
जो जीवन एकदम खुश्क बना हुआ है वह खुशियों से शादाब हो जाएगा। यहां तसव्वुफ़ का रंग भी नज़र आता है। आशिक और माशूक के बीच के रिश्ते को अक्सर तभी देखा जाता है जब आशिक अपने माशूक से कुछ पाने की चाह रखे, मगर यहां माशूक अपने आशिक की ज़िंदगी को खुशहाल बनाने के बारे में सोच रहा है। वह चाह रहा है कि मेरे आशिक की ज़िंदगी एक दरिया की भांति होनी चाहिए जो हरदम आगे बढ़ती रहे, तरक्की करती रहे और अपनी सोहबतों से दूसरों को खुशहाल बनाती रहे। लेकिन अभी उस पर कई तरह के पहरे लगे हुए हैं। उसके भीतर कई तरह की प्यास मौजूद है, जो उसकी रवानी को तेज़ नहीं होने दे रही। उस प्यास को हटाना मेरा काम है। मैं अपने आशिक के खुश्क पैरों में रिमझिम लिखना चाहता हूं अर्थात उसे खुशहाल बनाना चाहता हूं। अगर आशिक मेरे लिए अपना सब कुछ कुर्बान करने के लिए तैयार है तो कम से काम मेरा भी यह दायित्व तो है कि मैं उसकी ज़िंदगी को हरा-भरा कर सकूं। यही सोचकर माशूक अपने आशिक के ज़िंदगी को बेहतरी की तरफ ले जाता है।
अगर इन शब्दों के पीछे छुपे इश्तियारों को देखें तो यह शेर अपने आप में पूर्णतया समाजवादी और साम्यवादी अवधारणा को अभिव्यक्त करता नज़र आएगा। ये अवधारणाएं बताती हैं कि समाज में हर वस्तु पर सभी का बराबरी का हक़ है। सभी को समान अवसर मिलें और सभी को समान सुविधाएं भी। समाज में कोई छोटा-बड़ा न हो। लेकिन आज भी समाज में एक खाई मौजूद है। एक वर्ग आज भी शोषक बना हुआ है और दूसरा वर्ग शोषित। शाइर चाहता है कि शोषकों ने समाज के जिस सुविधा संपन्न क्षेत्र पर अपना कब्ज़ा जमा रखा है, उन कब्ज़ों को हटाने की ज़रूरत है। ऐसे शोषक हर स्तर पर और हर जगह मौजूद हैं जिन्होंने अपनी क्षमता के अनुसार समाज के सुविधा संपन्न दरियाओं पर कब्ज़ा कर रखा है। शाइर उन सभी से इन सुख सुविधा के दरियाओं को मुक्त करना चाहता है। उसका काम इतना ही नहीं है। अगर वह सिर्फ़ इन चीज़ों को शोषकों से मुक्त कर दें तो उसका दायित्व पूरा नहीं होता। वह चाहता है कि समाज का जो शोषित वर्ग है, जो दलित है, जो अब तक उपेक्षित है उसकी ख़्वाहिशों के पैर आज भी खुश्क ही हैं। इन पैरों में जो बीवाइयां हैं उन बीवाइयों को भरना ज़रूरी है। उसकी ज़िंदगी के सामने जो दो वक़्त की रोटी का संकट है, उसे पूरा करना ज़रूरी है। उसे उसकी मेहनत के जो दाम नहीं मिल रहे हैं वह दाम दिलाना भी ज़रूरी है। उसे एक ऐसे समाज का व्यक्ति बनाना ज़रूरी है जिसमें उसे पूरा मान-सम्मान मिले।
खुश्क पैर उपेक्षित, वंचित और शोषित वर्ग के उन्हीं भावों का प्रतीक हैं जहां शाइर रिमझिम लिखने की बात करता है, अर्थात इस वंचित के हर दुःख को दूर कर उसके जीवन में खुशियां लाना चाहता है। शोषकों से समाज को मुक्त करना और शोषितों को उनकी खुशियां लौटाना, यह दो महत्वपूर्ण दायित्व निभाकर शाइर समाजवादी और साम्यवादी व्यवस्था को समाज में स्थापित करने की कामना कर रहा है।
संपर्क: 9827084966
मुझे उर्दू का ज्ञान बिल्कुल नहीं है। इसलिए, बहुत कुछ, शब्दशः समझ नहीं पड़ता किन्तु पढ़ते हुए बराबर लगता रहा कि बात मुझ तक पहुँच रही है।
आशीष का लिखा, मुझे पढ़ना ही पड़ता है। मजबूरी है। लेकिन अधिकांशतः मुझे तृप्ति नहीं मिलती। किन्तु इस आलेख में आशीष का घनत्व अनुभव होता है। मेरे तईं यह बहुत बड़ी खुशी और तसल्ली है।
यह आलेख पढ़वाने के लिए धन्यवाद।
मैने आपकी आसानी के लिए गूगल से यह जाना कि
बाहम का अर्थ है – आपस में, परस्पर, एक दूसरे के साथ