जानने के लिए दूरी जरूरी है …

राघवेंद्र तेलंग, सुपरिचित कवि,लेखक,विज्ञानवेत्ता

जानने के लिए दूरी जरूरी है। बिंदु को जानने के लिए त्रिज्या बराबर दूरी से देखनी होगी। वृत्त को जानने के लिए परिधि तक की दूरी तय करना होगी। यह कम से कम दूरी है। सिर्फ उस शर्त पर जब जानने वाला जानने की, समझ की समस्त तकनीकों से पूरी तरह संपृक्त हो। जान लेते ही एक घेरा पूरा हो जाता है। अन्यथा जानने की यह यात्रा आगे बढ़ते हुए क्रमशः अधूरे वलय बनाते जाती है और वर्तुल गति का यह पथ और और विस्तार पाता जाता है। यह प्रत्येक कण के साथ घट रहा है। ऊर्जाएं वृहद स्तर पर कणों की बेचैन यात्राओं में साथ देती हैं, ठीक गाड़ी में भरे ईंधन की तरह। कम से कम ईंधन की खपत और कम से कम इंजन के गर्म हुए। अभीष्ट तक पहुंच जाना यह हरेक कण की स्मृति में एक सूक्ष्म जैविक तकनीक के रूप में दर्ज है। और यह बहुत सामान्य ज्यामिति रूप में जो कि शाश्वत आकार है, दर्शित है। अति आदर्श स्थितियों में भी इस सामान्य ज्यामितीय रूप का भौतिक अस्तित्व पाया जाना संभव नहीं।  वह इसलिए कि चहुंओर तरंगित ग्रेविटी तरंग है, स्पेस टाइम की विकृति है। आदर्श स्थितियों का ज्यामिति रूप समांतर ब्रह्मांड में ही संभव है और फिर प्रश्न है कि समांतर ब्रह्मांड आखिर है कहां?

समांतर ब्रह्मांड हममें विचारों की ऊर्जा के रूप में मौजूद है। यह ध्यान में रखने वाली बात है कि हर कण का रूपांतरण विचार से गहरे जुड़ा है। इसी ब्रह्मांड में सारी ज्यामितियां अपने पूर्णत: आकारों में मौजूद हैं। छोटे रूप में मानव के संदर्भ में इसके मन-मस्तिष्क को गर्भ स्थान कहते हुए बोध की प्रयोगशाला कहा जा सकता है। हालांकि यह हमारी भौतिक समझ के लिए है। यह स्थान समूचा अंतरिक्ष है। जो दिखाई दे रहा है वह भी और जो नहीं दिखाई दे रहा है वह भी। यहां यानी हमारे मन-मस्तिष्क के गर्भ स्थान में बोध के कीमिया के लिए सुविधाजनक ताप-संयोजन और संलयन की विद्युतीय ऊर्जाएं उपलब्ध हैं और सही भौतिक-रासायनिक अनुपात के कण भी, अपने प्राकृतिक और उपयुक्त तनाव के साथ मौजूद हैं। प्रश्न यह है कि कण और ऊर्जा के मेल-संयोजन या संलयन के लिए ऐसा अतिरिक्त कुछ और क्या चाहिए आखिर! स्पष्ट है एक दृष्टि, एक दृष्टिकोण, एक संकल्पना और साथ ही चाहिए एक संकल्प। आखिर संकल्प के बिना संकल्पना भी कैसी!

इस दृढ़ संकल्प का जन्म एक निष्पाप प्रयोजन, एक पारदर्शी आवरण और ऊर्जाओं के सतत प्रवाहमान बने रहने के लिए गर्भ स्थान की अक्षुण्णता के लिए होगा। इस शाश्वस्त ज्यामितिक स्थान की विशेषता यह है कि इसमें जैसे ही प्रेम रस से संपृक्त कण आवेशित होकर प्रवेशित होता है तो चैतन्य ऊर्जा उसे अपनी गोद में लेकर ममत्व की अनुभूति कराती है फलत: वह खिलना शुरू कर देता है। फिर सतत ऊर्जा के वर्तुल उसे संपोषण प्रदान करते हैं। यह रोचक है कि उत्स भी बिंदु है, संपोषण का स्रोत भी बिंदु है और निर्धारित कुल समय भी बिंदु रूप है। जीवन और जीवन यात्रा का अभीष्ट सूत्र ही यही है। समय का अस्तित्व चूंकि उसके कण-प्रकृति में होने के कारण है। अतः इस विशाल बिंदु स्थान-पात्र में कण अस्तित्व में आएंगे फिर विलीन हो जाएंगे। यह अंतराल उस एक आदर्श ज्यामितिक आकृति के अंदर निहित एक गणितीय बोध का अरूप रूप में प्रकटीकरण मात्र होगा। जिसे समय कहकर-समझकर ऊर्जाओं की प्रकृति का बोध किया जा सकेगा। हमें यहां ऊर्जा और कण के ज्यामितिक सह-संबंध को स्मृति से फिसलने नहीं देना चाहिए जिसके बारे में हम बात कर चुके हैं। यह आनुपातिक-अनानुपातिक सह-संबध अक्षुण्ण है और यह आंकिक स्वरूप में समस्त ज्ञान का आधार है। इसकी पहचान का यह ज्ञान बोध-ज्ञान की चेतना और चैतन्य में स्थित होने की कण की एकमेव प्रकृतिजन्य अभीप्सा है। यही इच्छा हममें है, प्रकृति में है, हमारे होने में है। कण और ऊर्जा के तदाकार होने में है। विशुद्ध एक निर्लिप्त विचार जो प्रारंभिक कंपन है। जो कंपन से पहले बिंदु है। बिंदु ही सृष्टि का आरंभिक प्रस्थान बिंदु है।

वहीं दूसरी तरफ यह भी भूलने की बात नहीं है कि दूरी आंकड़े आधारित ही नहीं होती। जैसा कि गणित के व्यामोह के कारण हमारा इसके प्रति मानस बना हुआ है। अनावश्यक चीजों, अप्रिय गुणों के व्यक्तित्वों, विषैले-मादक पदार्थों से दूरी भी एक अलग तरह का पैमाना है उसे जानने का। कुल मिलाकर कहा जाए तो जिसे माया कहा गया है उसे उसके द्वैत से दूरी हासिल कर ही अद्वैत के करीब जाकर फिर उसे जो द्वैत और अद्वैत से परे है, को जाना जा सकता है। अद्वैत से उतरकर फिर द्वैत की दुनिया में आया हुआ व्यक्ति ही सिद्ध है या साइंटिफिक भाषा में एलियन है। फिर ऐसे व्यक्ति जाहिर नहीं होते, अदृश्य की तरह अपना अद्वैत बचाए रखते हैं। यह होकर भी नहीं होना जैसा माना जाए। फिर उनके लिए यह दुनिया संगीत रस से संपृक्त एक ऑर्केस्ट्रा हो जाती है।

दरअसल, पांचों इंद्रियों के द्वारा हो रही समग्र अनुभूति को ही हम वास्तविक रीयलिटी मान लेते हैं। जब द्वैत और अद्वैत से परे की अनुभूति का यह रस सम्पूर्ण स्थूल शरीर में उतर आता है तो जो कुछ भी आप पहले सुनते या देखते हैं या इसी से जुड़ी कोई गंध यकायक आपको महसूस होती है। तब एक स्फुरण पैदा होता है, एक तरंग पैदा होती है। फिर आप उसे छूने की ओर बढ़ने लगते हैं, स्वाद लेने की सोचते हैं तब एक कुल मिलाकर समझ तैयार होती है। निर्विकार होने से इस समग्रता को हम इसे अपने परिप्रेक्ष्य में वास्तविकता या रीयलिटी मान लेते हैं। जबकि इस सोच में अगर एक भी विचार का अहसास हो तो यही रीयलिटी या वास्तविकता तत्क्षण आभासी हो जाती है, दृश्य नकली हो जाता है। ऐसे में टिकाऊ कांशस स्टेट के अभाव में परसेप्शंस भी खड़ा नहीं हो पाता।

हालांकि, समझ की पहली परत पर यह रीयलिटी सही है पर अगली और ऊपरी डायमेंशन में रीयलिटी आपके भीतर की कांशस स्टेट के परसेप्शंस का विषय है। यानी, जैसी कांशसनेस वैसी रीयलिटी। यह अपने अंदर एक स्विच का निर्माण कर लेने वाली बात है, लोवर पाइंट भावनात्मक स्तर की कांशसनेस और अपर पाइंट निरपेक्ष स्तर की कांशसनेस। इन दोनों को ऑपरेट कर लेना एक कांशस ऑपरेटर हो जाना है। अगर यह व्यक्तिगत अनुभवों की कांशसनेस है तो भावनात्मक प्रकार की रीयलिटी तैयार होगी और अगर कलेक्टिव कांशसनेस के अनुभवों की कांशसनेस है तो यूनिवर्सल प्रकार की रीयलिटी तैयार होगी। यानी रीयलिटी हमारे कांसेप्ट का विषय है। जैसा सोचेंगे वैसा बन जाएंगे वाली बात भावनात्मक रीयलिटी है जो व्यक्तिगत अनुभवों की कांशसनेस है। इसी तरह जैसा सोचेंगे वैसा हो जाएगा वाली बात यूनिवर्सल रीयलिटी है जो कलेक्टिव कांशसनेस के अनुभवों की कांशसनेस है।

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