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आशुतोष दुबे, साहित्यकार
समकालीन हिंदी कविता के प्रमुख रचनाकार आशुतोष दुबे इंदौर में अंग्रेजी साहित्य के प्रोफेसर हैं। आप अंग्रेजी में पी-एच.डी. और पत्रकारिता और जनसंचार में स्रातक हैं। आपके चार कविता-संग्रह चोर दरवाज़े से (1996), असम्भव सारांश (2002),यकीन की आयतें (2008) और विदा लेना बाकी रहे (2016) प्रकाशित हो चुके हैं। आपकी कविताओं के अनुवाद कुछ भारतीय भाषाओं के साथ ही अंग्रेजी और जर्मन में भी हुए हैं। इस रचनाशीलता के लिए आशुतोष दुबे को रजा पुरस्कार, केदार सम्मान, अखिल भारतीय माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार और वागीश्वरी पुरस्कार से नवाजा गया है। आशुतोष दुबे का परिचय केवल इतना नहीं है, असल परिचय रचना कर्म है। आपकी कविताएं उस सरस जलधारा की तरह हैं जो धीरे-धीरे रिसती हैं। एक कोने से प्रवेश कर भीतर गहरे तक फैल जाती हैं। यहां भाषा का आडंबर नहीं, सरलता का लालित्य है। कविताओं के अलावा आशुतोष दुबे अपने हर तरह के लेखन में खास तरह की विचारशीलता के साथ पेश आते हैं। उनकी दृष्टि से फिल्मों को देखना बेहद दिलचस्प अनुभव होगा। संपादक
‘एक दूजे के लिए’ जब मैंने देखी थी तो बीए का आखिरी साल था। सोलह बरस की बाली उमर को सलाम उधर था, सतरह की बाली कम बवाली उमर इधर थी। इंदौर में यह दो टॉकीज में लगी थी : देव श्री और यशवंत। दोनों में इसे बारी बारी से देखा गया। शुरुआत में नरम थी, फिर संगीत और नए चेहरों के जादू ने जोर पकड़ा तो चली क्या दौड़ने लगी।
‘एक दूजे के लिए’ उस ज़माने की फ़िल्म थी जब प्रेम होते ही प्रेमीजन बिस्तर पर कूद नहीं जाते थे। प्रेम का मतलब तब रोमांस ही होता था,’लव मेकिंग’ नहीं। कुछ झिझक बाक़ी थी। उदारीकरण आठ दस साल और दूर था।
प्रेमकहानी के दर्शक हर पांच साल में बदल जाते हैं। रोमांस को हमेशा नई तरह से पेश करने की चुनौती होती है। चेहरों की ताजगी ही नहीं, रोमांस की भी ताज़गी चाहिए। दिल के तार झनझनाना मांगता। समझिए कि टेम्पररी पंख लग जाएं। किक लगे और सपनों को स्टार्ट मिल जाए। अगर ये सब हो गया तो फ़िल्म हिट होनी ही है। इसलिए म्यूज़िक, लोकेल, ताज़ा चेहरे, दूर कहीं लकड़ी या शीशे का मकान, और स्क्रिप्ट में पीढी और प्रेम का एक नया व्याकरण चाहिए । जो एक बार चल गया दुबारा नहीं चलेगा।
यहां बहुत खूबसूरत लोकेल था। मैं सिर्फ़ उसके लिए लता वाले ‘तेरे मेरे बीच में’ को यू ट्यूब पर देखता हूं। भाषा की दीवार थी, जिसके इस तरफ रति मोगरी से कपड़े कूटती थी और लैम्प के जल बुझ करती थी। क्या बीच था, क्या पेड़ थे, क्या पानी था चट्टानों पर पछीटे खाता, क्या पेट था जिसपे क्या लट्टू घूमता था जिसकी गुदगुदी अपने दिल में होती थी, क्या खंडहर पर लिखे नाम थे, क्या झबरी मूंछों वाला कमल हासन था जो कितना सुंदर भरतनाट्यम करता था, क्या गहरी आँखों वाली माधवी थी, क्या कमल के फ़ोटो की राख को चाय में घोल कर पी जाने वाली रति थी, और क्या उनका मिलने से रह जाना था।
फ़िल्म हमें इसलिए कई बार अच्छी नहीं लगती कि वह कोई बहुत महान, बहुत दिव्य, बहुत असाधारण फ़िल्म है। वह हमें इसलिए भी अज़ीज़ होती है कि उसे हमने अपने जीवन के किसी खूबसूरत मौसम में देखा था । उस संधिकाल में दोस्तों का आकर्षण जबरदस्त हुआ करता था। हम लोग घण्टों न जाने किन निरर्थक बातों को ज़रूरी काम की तरह कहते सुनते। छोटी ग्वालटोली में रहने वाले हमारे एक दोस्त के पास स्पीकर्स वाला टेप था जिसे डेक कहते थे। कैसेट्स का चलन नया नया शुरू हुआ था। सबसे पहले बालासुब्रमण्यम की आवाज़ वाला ‘तेरे मेरे बीच में’ का उदास वर्शन वहीं सुना था।
वासु और सपना। सपना और वासु। और हम।
चालीस साल बाद भी लता जी के गाए ‘तेरे मेरे बीच में’ का शुरुआती संगीत सुन के मन में कुछ झनझनाता है। वे तमाम दोस्त अब कहीं नहीं हैं। उनमें से दो दुनिया छोड़ गए, बाक़ी दुनिया में खो गए। भले इसी शहर में हों : जो खो गया वह खो गया।
क्यों?
मैंने नहीं जाना
तूने नहीं जाना !