जिस को तुम भूल गए याद करे कौन उस को…

  • आशीष दशोत्‍तर

साहित्‍यकार एवं स्‍तंभकार

उलझन, उलटफेर और उल्लास

उस्ताद शाइर पंडित लभुराम ‘जोश मलसियानी’ का यह शेर बहुत साधारण हो कर भी असाधारण है। लफ़्ज़ों का उलटफेर उलझन भी पैदा कर रहा है और मज़ा भी दे रहा है। एक कामयाब शेर वही होता है जो पहली नज़र में बहुत सामान्य लगे परन्तु बार-बार पढ़ने के लिए मजबूर करे। पढ़ने वाले को पढ़ते-पढ़ते सोचना पड़े। शेर के लफ़्ज़ी मआनी को देखें तो शाइर कह रहा है कि जिसे भुलाया जा चुका होता है उसे कोई याद नहीं करता और जिसकी यादों में कोई हो उसकी यादों में कोई दूसरा नहीं हो सकता है। मगर यह शेर इस सीधे अर्थ के पीछे कई ध्वनियां पैदा कर रहा है।

यहां ‘तुम’ महत्वपूर्ण है। इस शेर को तसव्वुफ़ के नज़रिए से समझा जाए तो बन्दा अपने मेहबूब से मुख़ातिब है। जिस बन्दे को उसका मेहबूब याद नहीं रखता उसे कोई याद नहीं करता। यानी जिस पर रब की मेहर नहीं होती उस पर किसी की इनायत नहीं होती। जिस पर वह नज़र नहीं डालता,उस पर कोई भी नज़र नहीं डालता। यानी दुनिया की नज़र में आने के लिए उसकी नज़रे- इनायत ज़रूरी है। इसे यूं भी समझा जा सकता है कि उसकी नज़र जब तक नहीं हो, कुछ भी संभव नहीं है। सानी मिसरे में इसके उलट बात कही गई है। यह मिसरा कह रहा है कि जिसके सामने उसका मेहबूब हो उसे कुछ याद नहीं रहता।

इस बात को इस तरह भी समझा जा सकता है कि जो इंसान अपने लोगों से, अपनी काविशों से, अपनी ज़मीन से जुड़े होते हैं उनका नज़रिया ही अलग हो जाता है। जो अपने लोगों को भुला दिया करते हैं, अपनी ज़मीन को पराया कर देते हैं, अपने कर्म से विमुख हो जाते है उन्हें कहीं महत्व नहीं मिलता है। इसके विपरीत जिस इंसान की नज़रों में उसके अपने बसे होते हैं, जो अपनी ज़मीन के प्रति वफ़ादार होता है, जो अपनी कोशिशों पर भरोसा रखता है उसे किसी के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ता। किसी और के बारे में सोचने की उसे फुर्सत नहीं होती।

यह शेर एक तरफा प्यार में दो तरफा प्यार के मआनी भी समझा रहा है। किसी की नज़र में अगर कोई बस जाए तो उसकी नज़र में कोई दूसरा नहीं बस सकता है लेकिन कोई नज़र से उतर जाए तो वह किसी नज़र में चढ़ नहीं सकता है। आशिक जब अपने माशूक को भूल जाता है तो माशूक को ऐसा महसूस होता है कि उसका अब कोई नहीं है। कोई उसे देख नहीं रहा। कोई उसे चाह नहीं रहा। कोई उसे समझ नहीं रहा। एक पल के लिए लगता है कि उसकी दुनिया में कुछ बचा ही नहीं है। लेकिन जब तक माशूक आशिक की नज़र में बसा रहता है तो वह सिर्फ़ उसी का होता है। माशूक को महसूस होता है कि उसकी दुनिया वही है जो आशिक की नज़रों में दिख रही है। इसके सिवाय कुछ और है ही नहीं।

इसे ज़िन्दगी की ज़रूरियात और इंसानी हक़ों के नज़रिए से समझना नए अर्थ खोलता है। सरपरस्त जब अपनी रिआया को नज़रंदाज़ कर देता है तो उसे कहीं सहारा नहीं मिलता है। जिन नुमाइंदों को अपने लोग नहीं दिखते, उन लोगों का कहीं भला नहीं होता। परंतु रिआया हुक्मरानों की तरह नहीं होती। वह जिसे एक बार अपना मान लेती है फिर किसी को अपने क़रीब नहीं आने देती। रिआया और हुक्मरानों के अंतर्संबंधों की भी यह शेर तस्दीक कर रहा है।

दरअसल , यह शेर इब्तिदा की भी बात कर रहा है और इंतिहा की भी। जिसके जीवन की इब्तिदा नहीं होती वह इंतिहा के बारे में नहीं सोच पता। जब ज़िन्दगी में ऐसा कुछ हासिल हो जाता है जिसे पा कर यह महसूस होता है कि अब इसके बाद और कुछ नहीं है तो वह ज़िन्दगी की इंतिहा होती है। शेर का पहला मिसरा जिंदगी की इब्तिदा से जुड़ा है और दूसरा मिसरा इंतिहा से। जब तक बेहतर शुरुआत नहीं होगी तब तक न कोई आपकी तरफ देखेगा, न आपसे कुछ पूछेगा ,न आपके बारे में सोचेगा और न ही आपकी तरफ़ ध्यान देगा। लेकिन जब इब्तिदा हो गई उसके बाद एक मकाम ऐसा आएगा जहां पहुंचकर लगेगा कि यह ज़िन्दगी के इत्मीनान वक़्त है। जो कुछ मैंने चाहा था वह मुझे मिल गया। अब इसके बाद और कुछ नहीं चाहिए। वह स्थिति जिसके बाद और कुछ पाने की तमन्ना न हो वही ज़िन्दगी के इम्तिहान होती है। जिसे अपनी ज़िंदगी के इम्तिहान याद रहते हैं, उसे कुछ याद रखने की ज़रूरत नहीं होती।

संपर्क: 9827084966

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