
- सुलोचना
जयंती पर महान फिल्मकार सत्यजीत रे का स्मरण
सत्यजीत रे बांग्ला फिल्म निर्देशक थे; पर उससे पहले वे एक लेखक थे। अपने दो नयनों से उन्होंने जो कुछ देखा, उसे कागज़ पर उतारा। उनके भीतर फिल्मकार को दुनिया ने उनके लेखकीय चरित्र से अधिक सराहा। फिल्म बनाने से पहले उन्होंने विश्व की अनेक भाषाओं की फिल्मों को न सिर्फ देखा बल्कि उनका गहरा अध्ययन किया। रे के फिल्मों की भाषा भले ही बांग्ला हो, पर उनके फिल्मों की पटभूमि इतनी सरल पर शक्तिशाली है कि कोई भी आम मनुष्य उस फिल्म को अपने जीवन के करीब महसूस कर सकता है। यही कारण रहा कि भारत की क्षेत्रीय भाषा की फिल्में होने के बावजूद रे के फिल्मों की पहुँच भौगोलिक और भाषाई सीमाओं के बाहर तक है। आज भी यूट्यूब पर मौज़ूद उनकी कई फिल्मों के सब टाइटल्स फ्रेंच या अंग्रेजी में मिलते हैं।
रे की फिल्मों की एक गौरतलब बात है उनकी फिल्मों में चित्रित स्त्रियाँ, जो ग्रामीण और शहरी दोनों परिवेश से आती हैं, जिनका अपना एक आस्तित्व तो है पर वे पुरुषों से न तो प्रतिस्पर्धा करती हैं और न ही घृणा। शायद यह भी वजह रही कि उन्हें सराहा गया कि उन्होंने समाज में स्त्रियों को ऊँचा करने के लिए पुरुषों को कमतर नहीं आँका। पिता और प्रख्यात कवि सुकुमार रे के अल्प वय में निधन में बाद रे को उनकी माँ ने पाला। यह पहली वजह रही होगी कि उन्होंने पुरुषों से इतर स्त्री आस्तित्व को समझा, वरना नब्बे के दशक से पहले लोग स्त्रियों का पृथक आस्तित्व भी नहीं मानते थे। उसके बाद रे के जीवन में आईं उम्र में उनसे चार वर्ष बड़ी उनकी ममेरी बहन, बिजया दास जिनसे वे अत्यधिक प्रभावित हुए और आगे चलकर दोनों ने सामाजिक मापदंडों को किनारे रख विवाह किया। बिजया राय ने विवाह के बाद अपने फिल्मी करियर और संगीत प्रेम को विदा कहा और बन गईं रे के फिल्मों की सज्जाकार और प्रोप सलाहकार। फिल्म ‘ओपूर संसार’ में शर्मिला को उन्होंने ही तैयार किया था। ‘चारुलता’ की माधबी के प्रॉप्स उनके ही दिए हुए थे। इस प्रकार सत्यजित सज्जा के लिए बिजया की अभिरुचि पर भरोसा रखते थे।
सत्यजीत राय का नाम आते ही हिंदी जगत के लोग जिस फिल्म का नाम लेते हैं वह है ‘चारुलता’ (1964)। रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी ‘नष्ट नीड़’ पर आधारित यह फिल्म एक अकेली गृहिणी, चारू (माधवी मुखर्जी द्वारा अभिनीत) की कहानी है, जो एक अमीर घर की बहू है पर जिसके पति के पास व्यस्तता के कारण समय का अभाव है। ऐसे में अकेलेपन का शिकार हुई स्त्री के समवयसी देवर का आगमन उसकी चाहनाओं और महत्वाकांक्षाओं को कैसे जगाता है। फिल्म चारुलता की दुविधा, शादी में असंतोष की भावनाओं और रिश्तों के भ्रम को कलात्मक तरीके से दर्शाती है।
फिल्म ‘महानगर’ (1963) में परिवार के बोझ को साझा करने के लिए एक गृहिणी एक कामकाजी पत्नी में बदल जाती है। फिल्म ससुराल और पति के सांस्कृतिक सदमे सुंदर तरीके से चित्रित करता है। फिल्म कामयाबी के साथ मिलने वाली स्वतंत्रता, छुआछूत और संघर्ष की भावना को खूबसूरती से बयाँ करती है।
1960 में बनी फिल्म ‘देवी’ में 17 वर्षीय दयामयी (शर्मिला टैगोर) को उसके ससुर द्वारा देवी के रूप में प्रचारित किया जाता है। कहानी अंधविश्वास, रहस्यवाद और अंध विश्वास की शिकार महिलाओं के उत्पीड़न की कहानी है। दया, जो बाद में अपने ऊपर लगाए गए इस देवी-रूपी अवतार को तोड़ने में असमर्थ रह जाती है। इस फिल्म की खूबसूरती ही यह है कि इसमें फिल्मकार ने अपनी तरफ से कोई क्रांति करने की कोशिश नहीं की।
1984 में बनी फिल्म ‘घरे-बाईरे’ रवींद्रनाथ टैगोर के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित है जिसे स्वदेशी आंदोलन की पृष्ठभूमि में फिल्माया गया है। यह एक स्वदेशी नेता, एक उदारवादी नेता और गृहिणी बिमला (स्वातिलेखा चटर्जी अभिनीत) के बीच का प्रेम त्रिकोण है, जहाँ स्त्री को उसके घरेलू जीवन के बाहर की दुनिया के अन्वेषण के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
1955 में बनी फिल्म ‘पथेर पाँचाली’ सत्यजीत रे के निर्देशन की पहली फिल्म है और यह विभुतिभूषण बंद्योपाध्याय के बंगाली उपन्यास पर आधारित है। यह अपु और उसकी बड़ी बहन दुर्गा के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है। यह फिल्म अपू ट्रिलॉजी (पथेर पाँचाली-1955, अपराजितो-1956 और अपूर संसार-1959) की कड़ी की प्रथम फिल्म है। तीनों फिल्मों की कहानी पहली कहानी का ही विस्तार है। कहानी का नायक भले ही अपू हो, पर महिला पात्रों को अत्यंत प्रभावी तरीके से दर्शाया गया है। बड़ी बहन, दुर्गा (उमा दासगुप्ता) को जिज्ञासु, देखभाल करने वाली और प्रकृति के करीब एक आत्मा के रूप में चित्रित किया गया है। माँ, सर्वजया (करुणा बनर्जी) को पहली दो फिल्मों में एक पूर्ण चरित्र के रूप में देखा जाता है, जो गरीबी से जूझ रहे गाँव के जीवन के दौरान अपनी गरिमा बनाए रखती है और बाद में एक बच्चे के खो जाने से दु:खी हो जाती है। पत्नी, अपर्णा (शर्मिला टैगोर), अपूर संसार में अपू के जीवन के लिए सांत्वनात्मक आनंद लाती है और अपने पति के सिगरेट के पैकेट पर एक संदेश लिखती हुई दिखाई देती है, जो उसे कम धूम्रपान करने की याद दिलाती है! ये सभी महिलाएं अपू के जीवन और सीखने को विभिन्न तरीकों से प्रभावित करती हैं।
1969 में बनी फिल्म ‘अरण्येर दिन रात्रि’ समय से आगे की फिल्म थी। तीन दोस्त जो शहर से आते हैं, पलामू आकर आदिवासी जीवन से रू ब रू होते हैं और वहाँ की अलग-अलग वर्ग की महिलाओं के आज़ाद ख्याल और निर्भीकता को देख हैरान होते हैं। फिल्म में अलग-अलग वर्ग की अलग-अलग ज़रूरतों को भी बखूबी दर्शाया है।
सत्यजीत की फिल्मों में स्त्री वस्तु नहीं है, वह सज्जा की सामान भी नहीं है। वहाँ महिलाओं के अधिकारों को बरकरार रखने की जद्दोजहद है और वह इसके लिए उपकरण तलाशता है और तराशता भी है, लेकिन पुरुषों की कीमत पर नहीं।