एक कवि की उपस्थिति में उगता है नववर्ष का पहला सूर्य!

  • सरला अरुण माहेश्वरी

आज पोइला बैशाख है। बांग्ला कैलेंडर की पहली तिथि। नव वर्ष का एक ऐसा शुभ दिन, जब कैलेंडर से लेकर बांग्ला चित्त में भी किसी देवी-देवता की नहीं, रवि ठाकुर की मूरत हुआ करती है। बांग्ला चित्त पर राज करने वाले प्रथम पुरुष की तस्वीर। कल्पना करें — एक कवि, जिसकी उपस्थिति में किसी राष्ट्र के नववर्ष का पहला सूर्य उगता है!

वैसे तो रवींद्रनाथ का जन्मदिन पच्चीस बैशाख है पर बैशाख का प्रारंभ ही जैसे उनके आगमन की पगध्वनि के सुरों से बजने लगता है। हवा में तभी से उनकी पंक्तियाँ तैरने लगती हैं —

हे नूतन, देखा दीक आर बार। जन्मे प्रथम शुभो क्षन।

रवींद्रनाथ के जीवनीकारों ने लिखा है कि जैसे ही बैशाख की हवा बहनी शुरू होती थी, कवि के भीतर जैसे कोई मोर उमंग भरने लगता। वे बेचैन हो जाते थे, चाहे जहाँ हों, शांतिनिकेतन पहुँचना होगा। जैसे वहाँ पहुँचे बिना नववर्ष उनके भीतर नहीं उतरता था।

और शांतिनिकेतन का उनका आश्रम! वह तो तड़के सुबह से ही कवि गुरु के जन्मदिन की तैयारियों में, धूप, पुष्प, फूल-फल, दुर्वा, कपूर, अक्षत, नारियल, चंदन आदि पूजा, गान और नृत्य की तैयारियों में व्यस्त हो जाता था। इस दिन के शांतिनिकेतन की सुबह से शाम तक की व्यस्तताओं और कवि की आकुल-व्याकुल मनोदशा का लोगों ने क्या ख़ूब चित्र खींचा है! हमारे हजारी प्रसाद द्विवेदी को ही पढ़ा जा सकता है।

पता नहीं रवींद्रनाथ ने इस दिन के साथ अपने नए जन्म की अनुभूतियों पर कितने गीत लिखे होंगे, कितने व्याख्यान दिए होंगे। शांतिनिकेतन में आज भी बैशाख के इन आयोजनों की सुवास कायम है। रवींद्रनाथ के गीतों की धुनों से आज भी वहाँ इस दिन वैसी ही आनंदधारा प्रवाहित होती जान पड़ती है।

वहाँ इस दिन पूजा की जो थाली सजती है, वह किसी देवता के लिए नहीं, कवि के लिए सजा करती है। आम्रकुंजों की छाया में बैठकर बंगाल जैसे फिर से खुद को रचता जान पड़ता है। कवि के माध्यम से, कवि के स्वप्नों से। इस सुवासित पवित्रता में कोई मूर्ति नहीं होती- केवल कविता की उपस्थिति होती थी और आज भी होती है।
गान और नृत्य से मनुष्य के भीतर का देवता जागता है— वही देवता जो शब्दों से बना है।

ओगो बौशाख, बौशाख / तपोभेगे झरो झारझार…

इसकी ध्वनि में ही जैसे बैशाख के झड़-तूफान की शक्ति की गूँज और कामना भरी हुई है। नए मनुष्य के आगमन का वेग।
रवींद्रनाथ अपनी निजी डायरी में एक जगह लिखते हैं:

आज के दिन मेरे मन में एक प्रकार की बाल-उत्सुकता जाग जाती है… जैसे एक बार फिर नया हुआ हूँ। शांतिनिकेतन की हवा आज मेरा नाम लेकर बह रही है। पेड़ मुझे पहचानते हैं, और लगता है कि मेरी कविता भी आज फिर से मुझसे मिलने आई है।

इसलिए हमारा आज का “शुभो नबोबर्षो” कोई परंपरागत अभिवादन नहीं है। यह उस स्पर्श की पुनःप्राप्ति है, जो कविता के माध्यम से मनुष्य को नया बनाता है। हमारी धड़कनों में रवींद्र फिर से लौटते हैं। और हर पोइला बैशाख पर हम उनके शब्दों के सहारे खुद को फिर से पहचानते हैं।
नववर्ष से जुड़ी यही सबसे शुभ बात है कि हम फिर से मनुष्य हो सकें। और यदि हो सकें, तो थोड़ा सा कवि भी हो जाएँ !
कवि के शब्दों में—

आबार तोर संगी होबो
नूतन जीवनेर गान गाइबो।

(फिर तुम्हारा साथ दूँगा/नवजीवन का गीत गाऊँगा।)

शुभो नबोबर्षो!

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