ओवरथिंकिंग: इससे पहले की दिमाग आप पर काबू कर ले, संभल जाइए!

पूजा सिंह, स्वतंत्र पत्रकार
अधिक सोचने वाले व्यक्तियों को समाज में कुछ अलग ही नजर से देखा जाता है। उन्हें सोचने-विचारने वाला धीर-गंभीर व्यक्ति माना जाता है। लोग उनसे हास-परिहास करने से बचते हैं, उन्हें अतिरिक्त सम्मान देते हैं या उनसे भयभीत रहते हैं। यहां तक तो ठीक है लेकिन क्या होता है जब कुछ लोग कुछ ज्यादा ही सोचने लगते हैं? दूसरे शब्दों में कहें तो सोचने की सीमा तय करने के मामले में खुद पर उनका नियंत्रण नहीं रह जाता है?
आइए कुछ उदाहरणों के जरिये इसे समझने की कोशिश करते हैं:
उदाहरण एक: इंदौर की हाउस वाइफ प्रियंका हमेशा नकारात्मक विचारों से जूझती रहतीं। दिमाग में तरह-तरह के ख्याल आते। कई बीमारियों का डर सताता। किसी से शेयर करतीं तो लोग इसे समस्या मानने से ही इनकार कर देते। वह खुशकिस्मत थी जो एक मनोचिकित्सक दोस्त ने उनकी समस्या को न केवल समझा बल्कि इसका इलाज भी किया। अब वह स्वस्थ और खुशहाल जिंदगी जी रही हैं।
उदाहरण दो: विदिशा के रहने वाले राहुल व्यवसायी हैं। मेहनती हैं और कामयाब भी। लेकिन कुछ दिनों से उनकी सोचने की आदत उन्हें परेशान कर रही है। कंपनी को बड़ा प्रोजेक्ट मिलने पर राहुल खुश तो हुए लेकिन उनको लगने लगा कि कहीं गलती हो गई तो? कहीं प्रोजेक्ट फेल हो गया तो? इस सोच ने उन्हें सरदर्द और माइग्रेन का शिकार बना दिया। उनका आत्मविश्वास जाता रहा। ओवरथिंकिंग ने उनके शारीरिक और मानसिक दोनों तरह के स्वास्थ्य पर असर डाला।
उदाहरण तीन: चौथी कक्षा में पढ़ने वाला अमन शहर के एक प्रतिष्ठित स्कूल का विद्यार्थी है। माता-पिता की ओर से ‘तुम्हें टॉप करना है’ कि रट ने उसे असमय बड़ा बना दिया है। वह दिन-रात सोच में डूबा रहता है। ‘कम नंबर आए तो क्या होगा?’, ‘दोस्तों के नंबर मुझसे ज्यादा क्यों हैं?’ ऐसी बातों ने उसकी नींद उड़ा दी है वह चिड़चिड़ा हो गया है और दोस्तों से दूर हो चुका है। आखिरकार एक टीचर ने उसकी दिक्कत को पहचाना। उसके माता-पिता को समझाया और उसकी जिंदगी पटरी पर आई। अमन खुशकिस्मत था। क्या हो अगर समझदार शिक्षक और समझने वाले माता-पिता न मिलें?
उदाहरण चार: निजी क्षेत्र में काम करने वाला युवा हर्ष हमेशा इस चिंता में रहता है कि ईएमआई पर चल रही जिंदगी के बीच अगर उसकी नौकरी चली गई तो क्या होगा? हर छोटी आर्थिक समस्या उसे बहुत बड़ी नजर आने लगी और वह ओवरथिंकिंग का शिकार हो गया। इस मानसिक स्थिति ने उसे सिरदर्द, नींद की कमी जैसी दूसरी परेशानियों में डाल दिया। जाहिर है कि आर्थिक दबाव भी ओवरथिंकिंग को जन्म दे सकते हैं।
उदाहरण पांच: जबलपुर की शिक्षिका सुमन राजपूत परफेक्शन की चाह में रहती थीं। नतीजा, वह खुद पर ही संदेह करने लगीं। वह जिस परिवेश से आई थीं वहां हर चीज परफेक्ट रखने की चाह होती थी। यह उनकी भी आदत में शामिल हो गया। ऐसे में उन्हें हर छोटी गलती भी बड़ी नजर आने लगी। वह बच्चों की नाकामी को अपनी विफलता मानने लगीं। सुमन की ओवरथिंकिंग उनके परिवार की अपेक्षाओं और व्यवहार के कारण बनी एक मानसिक स्थिति है और उन्हें इसके लिए मनोचिकित्सक से मिलने की आवश्यकता है।
ऐसे तमाम उदाहरण हैं जो बताते हैं कि अक्सर ओवरथिंकिंग को समस्या मानने से बचा जाता है जो दरअसल समस्या को और अधिक बढ़ा देता है। देखा जाए तो ज्यादा सोचना अपने आप में तब तक समस्या नहीं है जब तक कि आपके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करना नहीं शुरू कर दे।
मानसिक बीमारियों का पूर्व संकेत
ओवरथिंकिंग अपने आप में कई बीमारियों के पहले की अवस्था है। यह अधिक सोचने से कहीं ज्यादा जटिल स्थिति है। अपने जीवन में हम सभी कभी न कभी ओवरथिंकिंग से गुजरते हैं। तेज भागती आधुनिक जिंदगी में जब एक साथ-साथ कई-कई काम करने पड़ते हैं और अधूरे कामों की एक लंबी लिस्ट तैयार हो जाती है तो ओवरथिंकिंग होना आम बात है। ओवरथिंकिंग के कारण धीरे-धीरे हमारी आदत कुछ ऐसी बन जाती है कि हम छोटी-छोटी बातों पर जरूरत से ज्यादा विचार करने लगते हैं। बीती बातों को याद करके दुखी होने लगते हैं। ऐसे में हम अनिवार्य रूप से अपने भविष्य को लेकर भी असुरक्षित महसूस करने लगते हैं। इसका नतीजा क्या निकलता है- इसका नतीजा होता है निर्णय लेने में असमर्थता, नकारात्मक सोच और खुद पर संदेह करने की प्रवृत्ति।
इस प्रवृत्ति का अगला चरण मानसिक थकान और मानसिक समस्या के रूप में सामने आता है। लेकिन हममें से कई लोग मानसिक स्वास्थ्य को लेकर इतने लापरवाह हैं या उसे लेकर हमारे मन में ऐसी ग्रंथियां हैं कि हम भय या संकोच के कारण अपनी इन समस्याओं को सामने लाने से बचते हैं।

मददगार किताब
सुप्रसिद्ध मनोचिकित्सक डॉ. सत्यकांत त्रिवेदी द्वारा लिखी पुस्तक ‘ओवरथिंकिंग से आज़ादी वन द बैटल ऑफ योर माइंड’ न केवल ओवरथिंकिंग की समस्या को समझने में हमारी मदद करती है बल्कि आसानी से अपनाए जा सकने वाले उपायों की मदद से ओवरथिंकिंग से निजात पाने का भरोसा भी दिलाती है।
एक दशक से भी अधिक समय से मनोचिकित्सक के रूप में काम कर रहे डॉ. सत्यकांत त्रिवेदी की यह पुस्तक 29 छोटे-छोटे अध्यायों में बंटी हुई है। ये अध्याय ओवरथिंकिंग के अलग-अलग प्रकार और पहलुओं से पाठकों को अवगत कराते हैं। उदाहरण के लिए कैसे एक समय के बाद ओवरथिंकिंग हमारे रिश्तों में तनाव की वजह बन जाती है, बच्चों में ओवरथिंकिंग के क्या प्रभाव होते हैं, ओवरथिंकिंग के लक्षण क्या होते हैं, ओवरथिंकिंग को लेकर समाज का सोच क्या है? लंबे समय तक ओवरथिंकिंग से कैसे बचें आदि। पुस्तक डीपथिंकिंग और ओवरथिंकिंग के अंतर से भी परिचय कराती है।
इतना ही नहीं पुस्तक आधुनिक तकनीक के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों की भी विस्तार से पड़ताल करती है। उदाहरण के लिए आर्टिफिशल इंटेलिजेंस का मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव, इंटरनेट पर अधिक जानकारी जुटाने से संबंधित भ्रम किस तरह हमारी दिमागी सेहत को प्रभावित करते हैं यह भी पुस्तक में बताया गया है। पुस्तक के हर अध्याय में कहानियों के जरिये ओवरथिंकिंग को स्पष्ट करने के साथ ही पांच-पांच सीख भी बिंदुवार प्रस्तुत की गई हैं जिनके माध्यम से उस अध्याय का सार ग्रहण किया जा सकता है।
हमने ऊपर प्रियंका की कहानी का जिक्र किया। यह कहानी पुस्तक के पहले अध्याय में है और ओवरथिंकिंग के शिकार उन सभी लोगों का प्रतिनिधित्व करती है जिन्हें अपनी समस्या को भलीभांति पहचानने और सामने रखने में दिक्कत होती है। ‘प्रियंका का आंसू से मुस्कान का सफर’ नामक इस अध्याय में प्रियंका नामक एक हाउसवाइफ अपनी जुबानी अपनी कहानी कहती है। प्रियंका की कहानी दरअसल देश के उन लाखों लोगों की कहानी है जो अपनी समस्या को पहचानते तो हैं लेकिन कई कारणों से उसका निदान नहीं ले पाते। कभी अपने ही मन की दुविधा आड़े आ जाती है तो कभी आसपास के लोगों और समाज की मानसिक समस्याओं को लेकर लापरवाह सोच उनकी राह रोक लेती है। प्रियंका की कहानी एक महत्वपूर्ण सबक देती है। वह यह कि किसी भी मानसिक समस्या की स्थिति में चिकित्सकीय सलाह और इलाज अवश्य लें और हालात में सुधार होने पर भी स्वयं, अपने परिवार या दोस्तों के कहने पर दवाएं बंद न करें। मानसिक स्वास्थ्य की दवाएं हमारे मस्तिष्क के रासायनिक संतुलन से जुड़ी होती हैं जो अत्यधिक नाजुक होता है, ऐसे में चिकित्सक के अलावा किसी अन्य पर कतई भरोसा नहीं करना चाहिए।
पुस्तक के अन्य अध्याय भी हमारे आसपास के मध्यवर्गीय जीवन के चरित्रों की दुविधाओं, उनके जीवन की घटनाओं के माध्यम से ओवरथिंकिंग के अलग-अलग प्रकार को न केवल समझाने वाली शैली में पाठकों के सामने रखते हैं बल्कि ये छोटी कहानियां पाठकों की मदद भी करती हैं ताकि अगर उनमें ऐसे कोई लक्षण हैं तो वे इन्हें चिन्हित करके जरूरी कदम उठा सकें।
कोई भी हो सकता है शिकार
यह भी स्पष्ट है कि ओवरथिंकिंग का संबंध किसी खास आयु वर्ग, जाति, लिंग या आर्थिक स्थिति से नहीं है। अमीर से अमीर और गरीब से गरीब व्यक्ति इसका शिकार हो सकता है। हां कुछ वर्ग जैसे अकेले रहने वाले बुजुर्ग आदि इसके खतरे की चपेट में अधिक आ सकते हैं लेकिन यह बीमारी किसी एक व्यक्ति या वर्ग की नहीं है। इससे बचने के लिए चिकित्सीय उपायों के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि हम सभी अपना सामाजिक दायरा घना करें। लोगों से मिलें, अपने सुख दुख बांटें।
ओवरथिंकिंग को लेकर किसी को भी लग सकता है कि सोचते तो सभी हैं कुछ लोग थोड़ा अधिक सोचते हैं इसमें परेशान होने वाली क्या बात है। ग्रामीण क्षेत्रों में अक्सर ओवरथिंकिंग करने वालों को फालतू सोचने वाला करार दे दिया जाता है। कई बार इसे ऊपरी हवा या भूत-पिशाच का खेल मान लिया जाता है। पुस्तक शांति देवी नामक एक ग्रामीण महिला का उदाहरण देती है जो पति की मौत के बाद अत्यधिक चिंता और ओवरथिंकिंग की शिकार हो जाती है। घर वाले उसे झाड़ फूंक के लिए ले जाते हैं जिससे समस्या हल होने के बजाय बढ़ जाती है। वहीं शहरों के शिक्षित तबके में इसे लेकर अपेक्षाकृत जागरुकता की स्थिति है। लोग न केवल इसे समझ रहे हैं बल्कि चिकित्सकीय सलाह भी ले रहे हैं जो सकारात्मक बात है।
डेनमार्क की मशहूर मनोविज्ञानी और मेटाकॉग्निटिव स्पेशलिस्ट पिया कल्लेसेन अपने एक आलेख में लिखती हैं, “ओवरथिंकिंग एक दुष्चक्र रच देती है। लगातार अधिक सोचने से आपकी नींद गायब हो सकती है, ध्यान केंद्रित करने में समस्या आ सकती है और थकान महसूस हो सकती है। इतना ही नहीं यह आगे बढ़कर एंग्जाइटी या डिप्रेसन की वजह बन सकता है।”
इसी तरह मशहूर ब्रिटिश फुटबॉलर डीन स्मिथ का एक मानीखेज कथन है, “अगर आप ज़िंदगी में हर बात को जीने-मरने का प्रश्न बना देंगे तो यकीन मानिए आप एक नहीं कई-कई बार मरेंगे।“
ओवरथिंकिंग के रूप अनेक
ओवरथिंकिंग का शाब्दिक अर्थ जरूरत से अधिक सोचना अवश्य है लेकिन सत्य यह है कि ओवरथिंकिंग के भी कई प्रकार होते हैं। इसकी कई वजहें होती हैं। उदाहरण के लिए सामाजिक रूप से अलग-थलग होना, आर्थिक असुरक्षा का होना, स्वास्थ्य को लेकर जरूरत से अधिक सतर्क रहना, भविष्य को लेकर अनिश्चितता आदि कई बातें हैं जो ओवरथिंकिंग को जन्म दे सकती हैं।
इसलिए इससे निपटने के लिए कोई एक तरह का फॉर्मूला नहीं है। हर प्रकार की ओवरथिंकिंग से निपटने के लिए एक विशिष्ट योजना बनाने की आवश्यकता होती है। ओवरथिंकिंग एक ऐसी आदत है जो हमें कोई सिखाता नहीं है बल्कि वह हमारे भीतर खुद पैदा होती है। यहां एक सकारात्मक बात यह है कि हम इस आदत को थोड़े प्रयासों से बदल सकते हैं। अगर हालात वाकई बेकाबू हो रहे हों तो चिकित्सकीय सलाह और मदद ली जा सकती है।
आदमी मरने के बाद कुछ नहीं सोचता।
आदमी मरने के बाद कुछ नहीं बोलता।
कुछ नहीं सोचने और कुछ नहीं बोलने पर
आदमी मर जाता है।
मशहूर कवि-कथाकार उदय प्रकाश की कविता की ये पंक्तियां दरअसल यही तो कहती हैं कि मनुष्य एक विचारशील प्राणी है। सोचना और हर मुद्दे पर अपना स्वतंत्र विचार रखना मनुष्य होने की अनिवार्य शर्त है। परंतु क्या होता है जब हम बहुत अधिक सोचना शुरू कर देते हैं? सोचने पर किसी का वश नहीं। एक चिकित्सक, एक कारोबारी, एक गृहणी, एक छात्र, एक किसान, इन सभी के सिर पर सोच की एक अदृश्य गठरी होती है। यह गठरी किसी को दिखती नहीं लेकिन उसे हर व्यक्ति ढोता है। कई लोग इस बोझ को सहन कर लेते हैं जबकि कई लोगों के लिए इसे संभालना बहुत कठिन हो जाता है। वे इसके तले दब जाते हैं। ऐसे में बेहतर यही है कि लक्षणों को पहचान कर बिना हिचकिचाए तत्काल चिकित्सकीय सहायता ली जाए और जीवन में आगे बढ़ा जाए।
एक पुरानी कहावत है कि समस्या को पहचानना और उसे स्वीकार करना आधी समस्या को हल कर देता है। ओवरथिंकिंग पर भी यह बात लागू होती है। अपनी समस्या को पहचान कर उससे निपटने की नीतियां बनाई जा सकती हैं। डॉ. सत्यकांत त्रिवेदी की यह महत्वपूर्ण पुस्तक लाखों लोगों को ओवरथिंकिंग से निजात पाने में मदद कर सकती है।
पुस्तक: ओवरथिंकिंग से आज़ादी
लेखक: डॉ. सत्यकांत त्रिवेदी
प्रकाशक: प्लसप्रमेश
पृष्ठ संख्या: 202
मूल्य: 300 रुपये