नहीं चाहिए तुम्‍हारी शुभ कामनाएं, मेरा कोई मित्र नहीं…

Friendship Day: यह उद्घोष कैसी मरू रिक्‍तता से भरा हुआ है कि मेरा कोई मित्र नहीं, मैं किसी का मित्र न हुआ

दिवस मनाने की संस्‍कृति के चलन के समय में एक और दिवस गया। मित्रता का दिन। पक्ष, विपक्ष और निष्‍पक्ष की ही तरह दिवस मनाने की संस्‍कृति के पक्ष में कुछ होते हैं, कुछ विपक्ष में और कुछ निष्‍पक्ष मतलब मन हुआ तो शुभ कामनाएं दे दीं, मन न हुआ तो नहीं दी। हर दिन को मनाते वक्‍त सिर्फ शुभ कामनाएं ही नहीं दी जाती, कुछ उलाहनें होते हैं, कुछ तानें, कुछ सलाहें और बहुत सी उम्‍मीदें। कुछ थोड़े नास्‍टेल्जिक होते हैं, कुछ जरा दिखावटी, कुछ एकदम सादा रहते हैं, महसूस करते हैं मगर कह न पाने की असमर्थता को ढोते हुए। ऐसे में कोई ऐसा भी हो सकता है जो कहें कि मेरा कोई मित्र नहीं? क्‍या वह यह कहना चाहता है कि मेरी किसी से मित्रता नहीं। यानी मेरा कोई मित्र नहीं, मैं किसी का मित्र नहीं।

इस फ्रेंडशिप डे सोशल मीडिया पर अग्रज कवि मणि मोहन जी की एक कविता खूब प्रसारित हुई। आप भी पढ़ें:

जरुरी भी नहीं कि
तमाम उम्र साथ रहें दोस्त
कुछ दोस्त
ऐसे भी मिले
जिंदगी में कि
वे मिले जब
हम बदहवास हालत में
प्रार्थना कर रहे थे
वे फरिश्तों की तरह आये
और फिर
गायब हो गए ज़िंदगी से! (-मणि मोहन)

कितना खूबसूरत भाव! मित्रता की परिभाषा को आकाश सा विस्‍तार देता हुआ। इसी के बरअक्‍स कुछ और संदेश देखें तो एक संदेश कई सालों से घूम-घूम कर हमें मिलता है। यह कहता है:

जीवन में एक मित्र श्रीकृष्ण जैसा होना ही चाहिए जो हमारे लिए चाहे युद्ध ना लड़े! लेकिन, सच्चा पथ प्रदर्शक बना रहे… एक दोस्त कर्ण जैसा भी होना चाहिए, जो गलत होने पर भी हमारे लिए युद्ध लड़े!

मित्रता की बात हो कृष्‍ण का उल्‍लेख न हो, ऐसा कैसे हो सकता है? कृष्‍ण-सुदामा सी मित्रता चाहने वाले ‘कृष्‍णा’ व कृष्‍ण की मित्रता को भी उदाहरण दे कर प्रस्‍तुत किया जाता है:

एक मित्र ऐसा भी हो जो हमें कहीं भी लज्जित न होने दे… बिल्कुल हमारे मोहन जैसा।

भगवत् गीता में यूं तो कृष्ण ने सृष्टि में अपनी उपस्थिति को परिभाषित किया है। उन्‍होंने संबंध पर कुछ कहा नहीं लेकिन शुभ कामनाएं मैसेज में कहा गया कि श्री कृष्‍ण ने कहा है कि रिश्‍ते में वे मित्रता हैं। इस कथन के पीछे माधव का यह संदेश हो सकता है जिसमें वे कहते हैं कि अराजकता को रोकने वाले साधनों के बीच न्यायोचित दंड और विजय की आकांक्षा रखने वालों में मैं उनकी उपयुक्त नीति हूं। रहस्यों में मौन और बुद्धिमानों में उनका विवेक हूं।

नारायण संबंधों में मित्रता हैं क्‍योंकि मित्र ही उपयुक्‍त नीति सुझाता है और विपदा में बुद्धिमानों का विवेक बनाए रखने में सहायक होता है। इसीलिए कहा गया है कि विपत्ति के समय सच्चे मित्र की पहचान होती है। जैसे, कहा गया है:

आढ् यतो वापि दरिद्रो वा दुःखित सुखितोऽपिवा।
निर्दोषश्च सदोषश्च व्यस्यः परमा गतिः॥
(चाहे धनी हो या निर्धन, दुःखी हो या सुखी, निर्दोष हो या सदोष – मित्र ही मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा होता है।)

बाबा तुलसीदास ने भी मानस में लिखा है:

देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥
बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥3॥
(देने-लेने में मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्ति के समय तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद के अनुसार यही संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण हैं।)

भगवान राम के चरित्र में भी निषाद राज, सुग्रीव और विभीषण के साथ आदर्श मित्रता के उदाहरण मिलते हैं। हमारे इतिहास, साहित्य, लोक और संस्कृति में मित्रता के हजारों संदर्भ हैं।

वैसे का मित्रता का एक आध्‍यात्मिक पक्ष भी है। यह भी कृष्‍ण से ही जुड़ता है। कृष्‍ण आराधना का सख्‍य भाव। जो मानता है कि कृष्‍ण ही हमारे सखा है। जैसे, बाल गोपाल के लिए कृष्‍ण हमेशा मित्र रहे। द्वारिकाधीश नहीं। यह सखा भाव लिए आज भी तो कृष्‍ण भक्ति में डूबे लोग हमारे आसपास हैं हीं।

ओशो को पढ़ेंगे तो वे मित्रता पर एक नई दृष्टि देते हैं। वे कहते हैं:

कहावत है: मुसीबत में जो साथ आए, वह मित्र। दुख में जो साथ रहे, वह साथी। मैं तुमसे कहता हूं: मस्ती में जो काम आए, साथ रहे,वह साथी। दु:ख में साथ देनेवाले तो बहुत मिल जाएंगे। मस्ती में साथ देनेवाले लोग नहीं मिलते। और कारण साथ है। गणित स्पष्ट है।
दु:खी आदमी पर दया करने में अहंकार को तृप्ति मिलती है। तुम भी जब भिखमंगे को दो पैसे दे देते हो तो जरा भीतर देखना। दिये तो हैं दो पैसे, लेकिन भीतर एक तृप्ति मिलती है कि अहा, कैसा दानी! मुझ जैसा कोई और करुणावान नहीं। इतने लोग निकले जा रहा हैं रास्ते से,किसी को चिंता नहीं है इस गरीब बूढ़े भिखारी की, एक अकेला मैं…। दिये हैं दो पैसे, कुछ प्राण नहीं दे दिए हैं,लेकिन एक रौनक आ जाती है चेहरे पर। अहंकार में एक चमक आ जाती है। एक और आभूषण जुड़ जाता है कि दयावान, करुणावान!
सहानुभूति दिखाने में बड़ा रुग्ण मजा है क्योंकि सहानुभूति दिखाने में तुम ऊपर होते हो और जिसको सहानुभूति दिखाते हो वह पड़ा है जमीन पर धूल-धूसरित। दु:ख में साथ देना बहुत कठिन नहीं है। सच तो यह है कि लोग दु:ख में ही साथ देते हैं। मस्ती में, आनंद में किसी को साथ देना बहुत कठिन है क्योंकि जिसका तुम्हें साथ देना है वह तुमसे ऊपर! वह तुम्हारे अहंकार को चोट पहुंचा रहा है। तुम दया के पात्र, वह दया का पात्र नहीं है। तुम्हें झोली फैलानी पड़ेगी उसके सामने। वह भरेगा तुम्हारी झोली फूलों से। उसके पास है। उसके हृदय में आनंद नाच रहा है,गीत फूट रहे हैं। वह बरसाएगा अमृत तुम पर। नहीं; इसे झेलना मुश्किल हो जाता है।
(ओशो के प्रवचन से साभार)

यह कहा भी कितना सच है! हम किसी की सफलता, आनंद, मस्‍ती में कहां शामिल हो पाते हैं, ईर्ष्‍या, डाह, जलन, प्रतिस्‍पर्धा हमारी राह न रोक लेगी। मगर ऐसे कई मित्रों को जानता हूं जिन्‍होंने अपनी विफलता भूला कर दोस्‍तों की सफलता में नृत्‍य किया है। कितने ही लोगों दोस्‍ती के नाम पर बर्बाद हो जाने के ताने, आरोप, शिकवे सुने हैं मगर मित्रता को छोड़ा नहीं। ऐसे भी हैं जो एक तरफा ही सही मगर दोस्‍ती निभाते गए।

कहावत है, घोड़ा घास से दोस्‍ती करेगा तो खाएगा क्‍या, इसलिए कुछ लोगों ने दोस्‍ती को खा लिया। हो सकता है ऐसे लोगों के घायल मित्रों का मित्रता से विश्‍वास ही उठ गया हो। कसम खाई हो कि अब कभी दोस्‍त पर भरोसा नहीं करेंगे। मगर, बीसियों उदाहरण हैं वे दोस्‍ती पर कभी न कभी भरोसा कर ही लेते हैं।

ऐसे भी अनुभवी हैं जो सिद्ध करते हैं कि जो बात किसी से नहीं कही जा सकती वह मित्र से कही जा सकती है। यही कारण है कि हर संबंध को उसके परिभाषित दायरे से बाहर लाते हुए उसमें मित्रता का स्‍वर्ण तंतु जोड़ा जाता है। जैसे, मित्रवत् पिता-पुत्र। पति-पत्‍नी में मित्रता का भाव।

जब हम दु:खी हों तो दोस्‍त खोजने निकल जाते हैं। दिल जरा अधिक खुश हो तो बेसाख्‍ता कह देते हैं, तू तो यार है मेरा।

ऐसे में जब मणि मोहन फरिश्‍तों की तरह आए व्‍यक्ति में अभिन्‍न मित्र का रूप देख लेते हैं, जब हम सुदामा, पार्थ, द्रोपदी होते हुए कृष्‍ण सा सखा पाने की हसरत पालें रहते हैं, जब विपदा में मित्र ही हमें तारने को हाथ बढ़ा देते हैं, जब ओशो मस्‍ती में साथ देने वाले दोस्‍त के होने को महत्‍वपूर्ण बताते हैं तब यह जानना कैसा है कि मेरा कोई मित्र नहीं!

यह उद्घोष कैसी मरू रिक्‍तता से भरा हुआ है कि मेरा कोई मित्र नहीं, मैं किसी का मित्र न हुआ।

कैसा हतभाग है कि उम्र बढ़ रही दिन प्रतिदिन, मगर अब तक कोई विपदा में हाथ बढ़ाने वाला न मिला, न फरिश्‍ता ही आया कोई। न हेठी दिखाता बाल सखा है, न बुद्धिमान का विवेक बढ़ाता मित्र। जो आराधना के सखा भाव के रस से अपरिचित हैं और संबंधों के मधुर रस से अनजान।

कटी हो ऐसी ही कोरी उम्र तो क्‍या? गुजर रहा हो ऐसा जीवन तो क्‍या भला जहां कहने को एक मित्र नहीं। जहां होने को हम किसी के मित्र नहीं; न मित्रता निभाने को, न मित्रता जीने को। न मस्‍ती के यार, न दु:ख के संगी। कितना भावविहीन जीना, कितना रीता है हर कोना। सरल रेखा होना भी कितना अधूरा सा है, जिसकी इंद्रधनुषी वक्रता का कोई निशान नहीं।

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