आज भी बच्चों को जब पेंटिंग करने को कहा जाता है तो उनकी तमाम कल्पनाओं के बीच केनवास पर एक नदी, एक पहाड़, एक पेड़, उगता सूरज, कुछ पंछी उभर आते हैं। बच्चों के केनवास पर बचा रह गया प्रकृति का यह नजारा हमारे असल जीवन से ओझल हो रहा है। पहाड़ काट कर राह निकाल लेना अथक परिश्रम और जज्बे को जताने का मुहावरा है। अब तो मशीनों से पहाड़ चीर कर रास्ता बना दिया गया है ताकि हम रफ्तार पा सकें। ऐसी अंधाधुंध गति जो हमें जाने किस खाई में ले जाकर छोड़ेगी। हमें निर्बाध गति भी चाहिए और निष्कलंक श्वास भी।
फिर समाधान कहा हैं? हमारी चिंताओं के ये दोनों छोर मध्यप्रदेश में दिखाई दे रहे हैं। एक चित्र है नए बन रहे दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेस वे का। झाबुआ जिले के थांदला के पास का यह फोटो। युवा पत्रकार शिशिर अग्रवाल द्वारा लिए गए फोटो का यह दृश्य बताने के लिए काफी है कि रफ्तार पाने के लिए क्या-क्या दांव पर लगा है।
दूसरी तरफ, हरियाली के प्रति आस्था एक दूसरा ही दृश्य है। यह दृश्य बता रहे हैं प्रख्यात फोटोग्राफर बंसीलाल परमार। वे लिखते हैं:
मंदसौर जिले के सुवासरा से मात्र तीन किलोमीटर दूर पूर्व दिशा में एक गांव है धानखेडी़। इस गांव से दक्षिण-पश्चिम दिशा में एकमगरा (छोटी पहाड़ी) है। इसकी खास बात यह है कि यह पूरा मगरा वृक्षों से आच्छादित है जबकि इसके आसपास की छोटी पहाड़ियों पर पेड़ नहीं है। खाली पहाडि़यों के बीच हरे भरे इसमगरे पर जाने से किसी नेशनल पार्क में जाने जैसी अनुभूति होती है। मैं कई बार गया हूं यहां। इस अकेली पहाड़ी के यूं हरा-भरा रहने का रहस्य जानने की इच्छा हुई। तलाशने पर पता चला कि मगरे पर ऊपर माताजी का मंदिर है। यहां परंपरा है कि कोई भी व्यक्ति चाहे वो गांव का हो या बाहरी, यहां वृक्ष नहीं काट सकता है। वर्षों से यह परंपरा जारी है। इस कारण यह पूरी पहाड़ी वृक्षों से आच्छादित है।
कितना अच्छा हो कि किसी भी देवस्थान पर इस तरह वृक्षों का संरक्षण हो तो यह प्रकृति बची रहेगी। आज धार्मिक स्थलों के आसपास संगमरमर के भव्य द्वार सहित न जाने कितने आडंबर होने लगे हैं और ऐसे स्थलोंको क्रांकीट के जंगल में तब्दील कर दिया है। आज महाकाल लोक से ज्यादा महाकाल वन और रुद्रसागर की जरुरत है जिनका जिक्र पुराणों और धार्मिक ग्रंथों में है।