गुरु पूर्णिमा विशेष: जो कोई भी सामने आता है,कुछ न कुछ सीख तो दे ही जाएगा
– राघवेंद्र तेलंग
कवि,लेखक,विज्ञानवेत्ता
कुछ कला गुरू ऐसे होते हैं जो समक्ष या साक्षात् तो नहीं होते पर उनकी सांस्कृतिक आभा ही आपको लगातार मथती हुई रचती जाती है- रचती चली जाती है। महाभारत में उल्लेखित पात्र एकलव्य की कथा याद करें। इसे और आगे बढ़कर ऐसा कहा जा सकता है कि ऐसे कला गुरू अपने दूत के रूप में कुछ सूफियों-संतों को आपके निरंतर विकास की देखभाल के लिए नियुक्त करते हैं। जो कोई भी सामने आता है,कुछ न कुछ सीख तो दे ही जाएगा।
द्रोणाचार्य ने जब अर्जुन से पूछा ‘क्या!’ तो अर्जुन ने प्रत्युत्तर में इशारों ही इशारों में कह दिया कि वह ऑप्टिक्स, एयरोडायनामिक्स, मोमेंटम, सिंक्रोनाइजेशन ऑफ ब्रीदिंग पैटर्न, लेजर आई आदि सब साध कर तैयार है, बस उसे इंतजार है तो गुरू के आदेश का कि तीर छोड़ दिया जाए।
शिक्षा के गहन सूत्र एब्रिविएटेड फॉर्म में होते हैं जिसे शिक्षक और शिक्षार्थी ही डिकोड कर पाते हैं। गुरू पूर्णिमा के शुभ अवसर पर यह कहने का समय है कि पुरानी मगर अच्छी व उपयोगी परंपराओं को अब नए स्वरूप में देखने का समय आ गया है। मैं ऐसे कला गुरूओं के संपर्क में आया हूं जो इस बात की तस्दीक करते हैं और अपने शिष्यों के साथ अब वे जमाने के अनुसार मित्रवत व्यवहार के रिश्ते में हैं। ऐसे गुरूओं को आज मैं इस आलेख के जरिए अपना सादर चरण स्पर्श कहता हूं। संवादहीनता के इस दौर में इन गुरूओं की शिक्षा-दीक्षा का कार्य व्यवहार मौन ऊर्जा के दो-तरफा संवाद द्वारा डिजिटली संपन्न हो रहा है। ऊर्जाएं ऐसे ही ट्रांसफार्मेशन की गतिविधि को अंजाम देती हैं।
शायर, कवि, लेखक, कलाकार ये लोग समाज के दर्पण होते हैं, शिक्षक होते हैं। इन सबके पास एक तीसरी आंख होती है जिससे ये वर्तमान की पदचाप को चीन्हकर भविष्य के समाज की आहटों को एक दृष्टा की भांति देख लेते हैं।
कलावंत हमेशा से एक ऐसे समाज का स्वप्न देखते आए हैं जिसमें सीखना-सिखाना अपने-आप होने वाली प्रक्रिया हो जाए, आटोमेटेड। बेशक हमारा आशय यहां आनंददायक अनुभूति के साथ की शिक्षा से है और ऐसे क्रिएटिव एप्रोच के गुरू से है। यह तो हुई अपरा विद्या की बातें जो ज्ञान की संपूर्णता का आधा शेष भाग है, इसके आगे परा की दुनिया है। अपरा ज्ञान जो केवल बाहरी, नश्वर, विनाशी वस्तुओं का ज्ञान है। आत्मतत्व को जानने के लिए उसकी इतनी ही भूमिका है कि इल्युजन को कैसे समझा जाए। परा विद्या जिसके द्वारा अविनाशी ब्रह्मतत्व का ज्ञान प्राप्त होता है, को प्राप्त करने का एकमात्र रास्ता है और वह है उचित समय तक की प्रतीक्षा।
जी! इसके लिए आपको अपनी उम्र के पकने तक की प्रतीक्षा करना होगी जिसके लिए आपको पुरातन की अनुभूति में जाना होगा, गुरू परंपरा पर विहंगम दृष्टिपात करना होगा। यह जड़ों की भाषा को पढ़ने की बात है जिन्हें विशाल वट वृक्ष के तने के अंदर बरस दर बरस बने रिंग पैटर्न्स को महसूस किए बगैर नहीं पढ़ा-समझा जा सकता।
यह पढ़ना सिखाने वाले एकमात्र शिक्षक होते हैं आपके माता-पिता। उनकी आजीवन कोशिशें इसी बात के लिए होती हैं कि आप अपने शिक्षक स्वयं बनना सीख जाएं, वह भी उनके ही रहते। मगर अफसोस कि अक्सर ऐसा हो नहीं पाता। अपने तईं अगर कहूं तो जीवन के विविध विषयों की शिक्षा प्रदान करने वाले गुरू रूपी प्रेरणा पुंज इधर-उधर बिखरे-बिखरे से हैं। हालांकि वे सब मेरे आसपास ही हैं या तो हमउम्र सखा के रूप में या जो मुझे अपना शिष्य कहते हैं, उनके भेस में या फिर वे जो निरंतर याद करते हैं और अपनी वाइव्स अंदर तलक महसूस कराते रहते हैं। इस छोटी-सी उम्र में कई मोड़ आते हैं और हर मोड़ पर भेस बदलकर वे पता बताने वाले मिलने आते हैं, कभी-कभी तो पता पूछने के बहाने भी।
बचपन में जब पिता आपको बड़ा करने में लगे होते हैं तो वे आपको ऐसी-ऐसी जगहों पर ,ऐसे-ऐसे लोगों से मिलने ले जाते हैं जिनमें मैग्नेटिज्म होता है। पिता हर लम्हा चाहते हैं कि यह कच्चा लोहा पक जाए और इसमें भी चुंबकत्व प्रवेश कर जाए ताकि संघर्षों के समय में इसका जर्रा-जर्रा आपस में जुड़ा रहे और यह हर हाल में, हर हालात में टूटे नहीं। यह सिर्फ कहने-मानने की बात नहीं पर पिता से बड़ा ॠषि तुल्य गुरू और कोई हो ही नहीं सकताध्यान रखें कि कलाएं आपको जिंदगी में तन्हा होने से बचाती हैं। साथ ही तन्हाई, अकेलेपन के ब्लैक होल में डूबने से भी बचाती हैं। इसका अहसास मुझे कुछ अभिन्न मित्रों ने कराया। कला के कई गुरूओं का सानिध्य मुझे मेरे पिता यानी दादा के माध्यम से ही मिला। उन्हें कला-संगीत का यह हुनर अपने पिता यानी भैय्या से मिला। मेरी मां यानी आई ने इस हुनर की परंपरा को अक्षुण्ण बनाए रखा, पनपाया और सींचा। कहने की जरूरत नहीं कि मां-पिता से मिली सांगीतिक धरोहर ही माडुलेट होकर आपके सामने शब्द रूप में सामने आती है और सबके मामले में यह ऐसा ही है। हमारी कुल मिलाकर जिंदगी हमारे पूर्वजों का रिफ्लेक्शन ही है।
गुरू पूर्णिमा के शुभ अवसर पर महर्षि वेद व्यास की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले समस्त गुरूओं के सम्मान में इस लेख को समर्पित करते हुए उन सभी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष विभूतियों को नमन् कहूंगा जिन्होंने ज्ञान तो बेहिचक दिया ही उससे भी आगे बढ़कर ज्ञान को हुनर में बदलने का कौशल भी सिखाया और यह भी सिखाया कि चलते रहना ही जिंदगी है, हर पल हर लम्हा, रूकना नहीं, रूकना यानी सीखने का फुल स्टॉप यानी जड़ता। दोस्तों, मुझे पवित्र नर्मदा नदी में तैरने के दिन याद आ रहे हैं। आज तो तैरना सिखाने वाले उस गुरू को और नदी के गहरे पानी में अचानक दिए गए उनके उस धक्के को कोटि-कोटि नमन् कहता हूं।
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