जे.पी.सिंह, वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के विशेषज्ञ
देश में अब तक की सबसे भयानक गर्मी पड़ रही है। कई हिस्सों में लगातार 50 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा तापमान बना हुआ है। बुधवार को दिल्ली में 52 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा तापमान दर्ज किया गया। देश के कम से कम 37 शहरों में तापमान 45 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा हो गया। कुछ स्थानों पर रात का तापमान 36 डिग्री सेल्सियस तक रहा, जो विशेष रूप से खतरनाक है। अब तक हीटवेव से सैकड़ों लोग अपमी जान गंवा चुके हैं।
दरअसल, ग्लोबल वार्मिंग के इस दौर में तपती धरती अपना रौद्र रूप दिखा रही है। रेगिस्तान की रेत में पापड़ सेंकने से लेकर बुंदेलखंड में गर्मी का 132 साल का रिकॉर्ड टूटने तक की तस्वीरें रोजाना सामने आ रही हैं। इन हालात के कारणों पर रोशनी डालने वाली आईआईटी की रिपोर्ट में शहरीकरण को इस दशा के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है। कड़ाके की ठंड, बेहिसाब बारिश और झुलसा देने वाली गर्मी जैसी मौसम की चरम स्थिति के लिए वैज्ञानिक, जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। वहीं, बड़ा सवाल यह है कि जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कौन है?
धरती का तापमान बढ़ाने वाले कारणों से जुड़े इस सवाल का जवाब देश के अग्रणी प्रौद्योगिकी संस्थान आईआईटी की रिपोर्ट में दिया गया है। आईआईटी भुवनेश्वर की रिपोर्ट के अनुसार धरती का तापमान संतुलित रखने की जिम्मेदारी निभाने वाले पेड़ों की जगह कांक्रीट के जंगल बनाने के कारण ताप वृद्धि हो रही है। इस स्थिति के लिए अनियोजित विकास के कारण हो रहे अनियंत्रित शहरीकरण को जिम्मेदार ठहराया गया है। इसमें स्मार्ट सिटी के नाम पर नगरों के सड़क चौड़ीकरण तथा बड़े पैमाने पर सिक्स लेंन से 12 लेन के एक्सप्रेस वे के निर्माण के लिए पेड़ों की अंधाधुंध कटाई का योगदान भी शामिल है। इसी का नतीजा है कि बुंदेलखंड जैसे इलाकों में गर्मी 100 साल के रिकॉर्ड को ध्वस्त कर रही है। इसका पहला असर जैव जगत को गति देने वाले जल संतुलन पर पड़ रहा है और इस स्थिति से सर्वाधिक प्रभावित होने वाला तबका किसान हैं।
आईआईटी की अध्ययन रिपोर्ट हाल ही में अंतरराष्ट्रीय जर्नल नेचर सिटीज में प्रकाशित हुई हैं। इसके अनुसार भारत में भीषण गर्मी बढ़ाने में शहरीकरण का योगदान 60 फीसदी तक पाया गया है। रिपोर्ट के अनुसार शहरों में बहुत तेज गति से लगातार हो रहे विस्तार के कारण हरित क्षेत्र को व्यापक पैमाने पर सपाट मैदान में तब्दील किया जा रहा है। पेड़ों की अंधाधुंध तरीके से कटाई किए जाने के कारण आसपास के इलाकों में ताप वृद्धि हो रही है। इस शोध में पिछले 2 दशक के दौरान देश के 141 शहरों के तापमान एवं अन्य मौसम संबंधी कारणों का अध्ययन किया गया है। इसमें 2003 से 2020 के दौरान नासा के उपग्रह से प्राप्त आंकड़ों का अध्ययन कर वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं।
शोध में शामिल शहरों का तापमान बढ़ाने में शहरीकरण के सर्वाधिक योगदान वाले 4 शहरों में जबलपुर, जमशेदपुर, गोरखपुर और आसनसोल शामिल हैं। इन शहरों का तापमान बढ़ाने में शहरीकरण 100 फीसदी तक जिम्मेदार माना गया है। वहीं, मेंगलौर, श्रीनगर और भागलपुर शहर में यह स्तर 95 से 97 फीसदी पाया गया है। भुवनेश्वर, कटक, मुजफ्फरपुर और देहरादून की ताप वृद्धि में शहरीकरण का योगदान 80 से 90 फीसदी पाया गया है। रिपोर्ट के अनुसार शहरीकरण की प्रक्रिया में हरित क्षेत्र की जगह ले रहे कंक्रीट के जंगल, कार्बन उत्सर्जन में निर्णायक भूमिका निभा रहे हैं। इतना ही नहीं बड़े पैमाने पर अब एयर कंडीशनर का बढ़ता उपयोग भी ताप वृद्धि में इजाफा कर रहा है।
रिपोर्ट में जंगल और जल स्रोतों के साथ खेती के सिमटने के पीछे सरकारी नीतियों को जिम्मेदार ठहराया गया है। इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि विकास के नाम पर बहु उपयोग में आसानी होने वाला बदलाव ही शहरीकरण के लिए जिम्मेदार है। इसकी वजह से ही प्रकृति में ताप संतुलन बनाए रखने वाले जंगल, नदी, झील और पहाड़ों की जगह कांक्रीट के जंगल ले रहे हैं। यह स्थिति ही अतिरिक्त गर्मी को पैदा कर रही है। रिपोर्ट के अनुसार इस स्थिति को महज जलवायु परिवर्तन से जोड़ कर देखना ठीक नहीं है, बल्कि कथित विकास के नाम पर संचालित हो रही गतिविधियां जलवायु परिवर्तन का कारण हैं।
दूसरी और जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) के अनुसार, मानव-कारण वार्मिंग के बिना हर 10 साल में एक बार आने वाली हीटवेव अब 2.8 गुना ज्यादा बार (या हर 3.6 साल में एक बार) आने की संभावना है और 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म हैं। ऐसा जीवाश्म ईंधन के जलने से होने वाले जलवायु परिवर्तन के कारण है। मानव-कारण वार्मिंग के बिना हर 50 साल में एक बार आने वाली अत्यधिक हीटवेव अब 4.8 गुना अधिक बार (या हर 10.4 साल में एक बार) आने की संभावना है और 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म हैं। यदि उत्सर्जन को योजनाबद्ध तरीके से बहुत तेजी से कम नहीं किया जाता है, तो वे फिर से 2-3 गुना अधिक आम हो जाएंगे।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली के वायुमंडलीय विज्ञान केंद्र का कहना है कि भारत और दुनिया के कई अन्य हिस्सों में व्यापक, लंबे समय तक चलने वाली और तीव्र गर्मी की स्थिति ग्रीनहाउस गैसों के मानव उत्सर्जन के कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन का प्रत्यक्ष परिणाम है। बढ़ते वैश्विक औसत तापमान को नियंत्रित करने के लिए अनुकूलन कदम उठाने की तत्काल आवश्यकता है। अन्यथा परिणाम हमारे सामने हैं।
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि अल नीनो के बाद की गर्मी ने इस वर्ष उत्तर भारत में सामान्य से अधिक तापमान में योगदान दिया है। अल नीनो और ला नीना वायुमंडलीय पैटर्न हैं जो मध्य और भूमध्यरेखीय प्रशांत क्षेत्र में समुद्री सतह के तापमान के गर्म होने और ठंडा होने को प्रभावित करते हैं। दो विरोधी पैटर्न एक अनियमित चक्र में होते हैं जिसे अल नीनो दक्षिणी दोलन (इएनएसओ) चक्र कहा जाता है, जिसके बीच में एक तटस्थ अवधि होती है। मार्च 2024 में, विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्लूएमओ) ने घोषणा की है कि भले ही 2023-24 अल नीनो आने वाले महीनों में जलवायु को प्रभावित करना जारी रखेगा। यह मानवजनित रूप से उत्पादित ग्रीनहाउस गैसों द्वारा पकड़ी गई गर्मी को बढ़ाता है, जिससे तापमान बढ़ता है।
आईएमडी ने अपने मई बुलेटिन में कहा कि भूमध्यरेखीय प्रशांत क्षेत्र में वर्तमान में कमजोर अल नीनो की स्थिति देखी जा रही है तथा इसके और कमजोर होकर इएनएसओ तटस्थ में परिवर्तित होने की संभावना है। 2016 में प्रकाशित एक अध्ययन में भविष्यवाणी की गई थी कि यदि भविष्य में अल नीनो की सक्रियता बढ़ती है तो भारत में गर्मी की लहरें तेज हो सकती हैं।
एल नीनो के दौरान, भूमध्यरेखीय प्रशांत क्षेत्र में सतह का तापमान बढ़ जाता है, और व्यापारिक हवाएं- भूमध्य रेखा के पास बहने वाली पूर्व-पश्चिम हवाएं- कमज़ोर हो जाती हैं। आमतौर पर, पूर्वी व्यापारिक हवाएं अमेरिका से एशिया की ओर बहती हैं। अल नीनो के कारण, वे लड़खड़ा जाती हैं और दिशा बदलकर पश्चिमी हवाओं में बदल जाती हैं। अल नीनो का प्रभाव कम हो रहा है, 2024 की दूसरी छमाही में ला नीना विकसित होगा।
हालांकि, इएनएसओ अकेले में अत्यधिक गर्मी पैदा नहीं करता है। टेलीकनेक्शन, जो वैश्विक मौसम और हवा के पैटर्न के बीच संबंध हैं, एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। वॉकर परिसंचरण, जिसमें भूमध्य रेखा के साथ पूर्व से पश्चिम की ओर बहने वाली व्यापारिक हवाएँ शामिल हैं, टेलीकनेक्शन के कारण इएनएसओ से प्रभावित होते हैं। अल नीनो वॉकर परिसंचरण में बदलाव से जुड़ा है, जिससे गर्मी और नमी का बड़े पैमाने पर पुनर्वितरण होता है। सतह पर गर्मी का पुनर्वितरण समुद्र के ऊपर हवा के प्रवाह को प्रभावित करता है। यह ज्ञात है कि अल नीनो भारतीय मानसून को कम करता है क्योंकि कमजोर वॉकर परिसंचरण भारतीय महासागर से भारतीय उपमहाद्वीप की ओर नम हवा के प्रवाह को बाधित करता है, जिससे हवाओं में उपलब्ध नमी कम हो जाती है, जिससे शुष्क परिस्थितियाँ पैदा होती हैं।
अल नीनो भारतीय उपमहाद्वीप पर उच्च दबाव वाले क्षेत्र भी बनाता है, जो बादलों के निर्माण और वर्षा को रोकता है। बादलों की अनुपस्थिति भी उत्तर और मध्य भारत में वर्तमान हीटवेव में योगदान दे रही है। दिल्ली और उत्तर तथा मध्य भारत के अधिकांश भाग जो वर्तमान में गर्म हवाओं की चपेट में हैं, महासागरों के प्रभाव से बहुत दूर हैं जो तापमान और हवा की नमी को नियंत्रित कर सकते हैं। महाद्वीपीय हवा, जो एक भूभाग पर शुष्क हवा की एक बड़ी मात्रा है, अपने अंतर्देशीय स्थान के कारण दिल्ली के मौसम को बहुत प्रभावित करती है। उष्णकटिबंधीय वायु द्रव्यमान जो थार रेगिस्तान और भारत के पश्चिम और उत्तर-पश्चिम में अन्य गर्म, शुष्क क्षेत्रों में उत्पन्न होते हैं, दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में अधिक गर्मी लाते हैं, जिससे गर्म हवा की स्थिति पैदा होती है।
भारत में हीटवेव की स्थिति को बढ़ाने वाला एक और महत्वपूर्ण कारक पेड़ों की कमी है। सीएसटीईपी में जलवायु, पर्यावरण और स्थिरता की प्रमुख इंदु के. मूर्ति ने ‘द हिंदू’ को बताया है कि बहुत कम या बिना पेड़ों वाले खुले क्षेत्रों का विशाल विस्तार सीधे सूर्य के प्रकाश के प्रभाव को बढ़ाता है।” ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच के अनुसार, भारत ने 2001 से 2023 तक 2.33 मिलियन हेक्टेयर वृक्ष क्षेत्र खो दिया है, जो 2000 से वृक्ष क्षेत्र में 6% की कमी और 1.20 बिलियन टन कार्बन डाइ ऑक्साइड उत्सर्जन के बराबर है।
15 मई, 2024 को नेचर जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि अकेले शहरीकरण के कारण भारतीय शहरों में तापमान में 60% की वृद्धि हुई है। यूएचआई प्रभाव ग्लोबल वार्मिंग में योगदान देता है क्योंकि यह ऊर्जा की बढ़ती मांग से जुड़ा है जिससे ग्रीनहाउस गैसों का अधिक उत्पादन होता है। यूएचआई प्रभाव गर्मी के अलावा अन्य जलवायु कारकों जैसे वर्षा, प्रदूषण आदि को भी प्रभावित कर सकता है। मई 2024 में प्रकाशित विज्ञान और पर्यावरण केंद्र की एक रिपोर्ट में पाया गया कि शहर रात में पहले की तरह ठंडे नहीं हो रहे हैं, जिससे लोगों को दिन की गर्मी से उबरने का मौका नहीं मिल रहा है। अध्ययन में कहा गया है कि “गर्म रातें दोपहर के अधिकतम तापमान जितनी ही खतरनाक हैं।
शहरों के लगातार फैलने से कांक्रीट के जंगल बनते जा रहे हैं। बेतहाशा निर्माण कार्यों की वजह से जलवायु पर भी अनदेखा असर पड़ रहा है। हर बड़े महानगर में तापमान में अंतर दिखता है। जहां हरियाली ज्यादा है, वहां पर पारा 2-3 डिग्री नीचे रहते हैं, लेकिन जहां कम है, वहां गर्मी ज्यादा है। इसे अर्बन हीट आइलैंड कहते हैं। अर्बन हीट आइलैंड्स वो जगह होती है जहां पर शहर के अंदर ही ज्यादा गर्मी महसूस होती है। तापमान ऊपर रहता है क्योंकि वहां पर काफी ज्यादा घनत्व में इमारतें होती हैं। हरियाली कम या बहुत कम होती है। इसलिए ये इलाके ज्यादा गर्मी सोखते हैं। ज्यादा समय तक गर्म रहते हैं। इसलिए भी महानगरों और उसके आसपास के इलाके दिन में गर्मी सोखने के बाद रात को भी गर्म ही रहते हैं,. क्योंकि इमारतों के मटेरियल गर्मी निकालते रहते हैं।
इसके अलावा दूसरी सबसे बड़ी वजह है एयर कंडिशनर का बेतहाशा इस्तेमाल. इसकी वजह से पारा और ऊपर जाता है। एसी अपने आप में हीट पंप होते हैं। ये गर्मी पैदा करते हैं। लेकिन बाहर की तरफ. घर के अंदर तो ये ठंडा कर देते हैं लेकिन वायुमंडल को गर्म। इनकी वजह से हवा गर्म होती है।