हिंदी (गर्व) दिवस और अनुवादकों की पीड़ा
– पूजा सिंह
स्वतंत्र पत्रकार
आज हिंदी दिवस है। सुबह से अपनी भाषा पर ‘गर्व’ करने का सिलसिला चल रहा है। ऐसे में मुझे करीब दो साल पुरानी एक घटना याद आ गई।
राजधानी के एक बड़े होटल में दो पुस्तकों का लोकार्पण होना था। वहां मैं भी आमंत्रित थी। मैं नियत समय से कुछ पहले ही आयोजन स्थल पर पहुंची। मंच पर लेखक, मुख्य अतिथि और उनके साथ दो अन्य लोगों की कुर्सियां लगी थीं और उन सभी के नाम वहां लिखे हुए थे। मैं अपेक्षा कर रही थी कि मंच पर मेरे लिए भी एक कुर्सी लगी होगी। नहीं-नहीं आप गलत समझ रहे हैं। मैं कोई मंच प्रेमी नहीं हूं। मेरी यह उम्मीद इसलिए थी क्योंकि मैंने उन दोनों पुस्तकों का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया था। ऐसा भी नहीं है कि अनुवाद किसी छद्म नाम से किया गया था, किताबों में बकायदा अनुवादक के रूप में मेरा नाम दर्ज था। यह तो हुई अनुवादक की उपेक्षा की बानगी और इस घटनाक्रम में इतनी ही बातें महत्वपूर्ण हैं, इसके बाद जो कुछ हुआ उसका जिक्र बाद में करूंगी।
आज इस घटना का जिक्र इसलिए क्योंकि हिंदी दिवस का दिन इस बात के लिए एकदम उपयुक्त है कि हम अनुवादकों की दिक्कतों, उनके काम अहमियत नहीं दिए जाने, उनको असम्मानजनक भुगतान किए जाने जैसे मुद्दों पर भी बात करें।
सबसे पहले अनुवाद की बात करते हैं। दो भाषाओं के बीच पुल का काम करने वाले अनुवादकों को उनके काम का वह श्रेय अक्सर नहीं मिलता है जो उन्हें मिलना चाहिए। पाठक अनुवाद को पढ़ते हुए शायद ही कभी यह सोचने का समय निकालता हो कि वह जिस कृति को पढ़ रहा है वह पता नहीं किस भाषा में, किस परिवेश में, किस संस्कृति में रची गई जिसे अनुवादक अपनी मेहनत के बल पर एक तरह से दोबारा रचकर पाठक के समक्ष पेश करता है।
अंग्रेजी या किसी अन्य भाषा के शब्दों के स्थान पर उनके हिंदी समानार्थी रख देना ही अनुवाद नहीं है। एक अनुवादक के लिए दोनों भाषाओं के ज्ञान के साथ-साथ रचनाकार की मन: स्थिति को समझना और रचनाकाल को जानना आवश्यक है। शब्दश: अनुवाद की कोशिश ही कई बार अर्थ का अनर्थ भी करती है। आदर्श स्थिति तो यही है कि कविता का अनुवाद कवि, कहानी का अनुवाद कहानीकार और खबर का अनुवाद पत्रकार करे। इससे वह अनुवाद में मूल कथ्य की आत्मा को बचाने में कामयाब रहेगा।
बुकर के बहाने अनुवादकों की बात
कुछ वर्ष पहले की बात है हिंदी की सुप्रसिद्ध लेखिका गीतांजलि श्री को बुकर पुरस्कार मिलने पर हिंदी में उचित ही जश्न का माहौल था। गीतांजलि श्री से परिचित हिंदी की दुनिया ने उससे पहले उनकी पुरस्कृत किताब ‘टूम ऑफ सैंड’ का अनुवाद करने वाली डेजी रॉकवेल का नाम नहीं सुना था। यहां तक कि अनुवाद के पूरा होकर प्रकाशित होने तक दोनों की मुलाकात तक नहीं हुई थी। जाहिर है, उनके बीच भाषा कोई बड़ी बाधा नहीं होती बशर्ते कि अनुवादक ने भाव के स्तर पर कृति को समझा हो। यदि कलम दमदार है तो आपका लिखा अपने लिए पाठक और बाजार खुद तलाश कर लेता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है लैटिन अमेरिकी साहित्य। जो अक्सर पहले मूल भाषा से अंग्रेजी में और फिर वहां से हिंदी में अनुवाद होता है। इसके बावजूद यह अनुवाद की खूबी ही कही जाएगी कि पाठकों को उन किताबों का इंतजार रहता है।
हिंदी मेरी मातृभाषा भी है और मेरी आजीविका भी। मैं हिंदी में लिखती हूं और अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद करती हूं। डेढ़ दशक से अधिक के अपने अनुभव से मैं यह कह सकती हूं कि हिंदी को लेकर स्वयं हिंदी भाषियों में आत्मविश्वास की कमी है। यदि थोड़ी परिष्कृत हिंदी में अपनी बात कह दी जाए तो लोग कुतूहल से देखना शुरू कर देते हैं। मजाक उड़ाया जाता है कि आप ‘हिंदी’ में बोलिए। वहीं अगर अंग्रेजी थोड़ी कम भी आती है तो आप बुनियादी सम्मान के हकदार होते हैं। अगर अच्छी अंग्रेजी के जानकार हैं तो कहने ही क्या। कहने की जरूरत नहीं कि औपनिवेशिक मानसिकता ने एक भाषा को संप्रेषण के माध्यम के बजाय ज्ञान का पर्याय बना दिया है। मेरे कहने का यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि हमें अंग्रेजी नहीं सीखनी चाहिए। मैं बस यह कहना चाहती हूं कि उसे केवल एक जरूरी भाषा के रूप में अपने जीवन का हिस्सा बनाइए।
अनुवाद और आजीविका का प्रश्न
जानकारी के मुताबिक बुकर पुरस्कार की 50 लाख रुपये की धनराशि में आधी राशि अनुवादक डेजी रॉकवेल को मिली। यह अनुवादक का उचित सम्मान है। हिंदी के प्रकाशकों ने गीतांजलि श्री को मिले पुरस्कार को पर बधाइयों की झड़ी लगा दी। उनकी पुरानी किताबों को नए सिरे से प्रचारित करने का जतन शुरू हुआ लेकिन इस बीच यह भूलना नहीं चाहिए कि एक दो प्रकाशकों को छोड़कर अधिकांश अनुवादकों का शोषण करने के लिए कुख्यात हैं।
हिंदी से अंग्रेजी अनुवाद की दर पिछले दो दशक से 50-75 पैसा प्रति शब्द पर टिकी हुई है। इतना ही नहीं इस राशि का समय पर भुगतान हो जाना भी बहुत बड़ी खुशकिस्मती प्रतीत होता है। अनुवाद करके जीवन चला रहे अधिकांश अनुवादक इतनी बुरी माली हालत में होते हैं कि उनके पास ऐसे गरिमाहीन समझौते करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं होता। इसका खमियाजा उन पेशेवर अनुवादकों को उठाना पड़ता है जो अपने श्रम का उचित मेहनताना चाहते हैं। मुझे अनुवाद की दुनिया में आए 10 वर्ष से अधिक समय हो चुका है। प्रकाशक कहते हैं कि मेरे अनुवाद में उन्हें दोबारा काम नहीं करना पड़ता लेकिन उनकी यह तारीफ अक्सर पारिश्रमिक में नहीं बदलती।
मैंने सबसे ऊपर जिस घटना का जिक्र किया उस पर वापस लौटते हैं। जाहिर है पुस्तक लोकार्पण के उस कार्यक्रम के आयोजकों के मन में अनुवादक की कोई महत्ता नहीं थी। पुस्तकों के लेखक के मन में भी यह खयाल नहीं आया कि जिस अनुवादक के माध्यम से मैं अपनी किताबों को व्यापक हिंदी भाषी क्षेत्रों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहा हूं, उन्हें वह सम्मान प्रदान करूं जिसकी वह हकदार हैं।
बहरहाल, मैंने आवाज उठाई और अपना हक लिया। हिंदी के अन्य अनुवादकों को भी अनुवाद को खाली समय में किया जाना वाला काम मानने से परहेज करना चाहिए और अपना हक लेने की आदत डालनी चाहिए।
आपने बहुत सही लिखा है. असल में हिंदी के तथाकथित शुभ चिंतकों ने केवल कथा-कविता को हिंदी मान लिया है. अनुवाद को, वैचारिक लेखन को, तकनीकी काम को हिंदी से जुड़ा काम मानने वाले बहुत कम हैं. उम्मीद करें कि आप जैसे हिम्मती और खरी बात कहने वालों के प्रयासों से यह स्थिति बदलेगी.
अनुवाद मूल लेखन से ज्यादा दुष्कर कार्य है। एक हिंदी के पत्रकार के नाते इसे बेहतर समझता हूं। यदि शिवाजी सावंत के मृत्युंजय उपन्यास का हिंदी अनुवाद नहीं होता तो हम जैसे हजारों लोग एक महान कृति को पढ़ने से वंचित रह जाते। ऐसी कई कृतियां हैं जिन्हे अनुवाद के कारण ही पढ़ सके। इसलिए अनुवाद को ज्यादा तवज्जो देना चाहिए।
शैलेश पाण्डेय