फोटो और विचार: श्वेता मिश्रा
कुछ जगहें अक्सर मुझे रोकती है। मैं कितनी ही देर यूं ही एक तरफ खड़े रहकर दुनिया की भीड़ को देखती हूँ।
कहीं बाँहों में बाँहें डाले दो प्रेमी तो कहीं अकेले ही चलता कोई बुजुर्ग, कहीं इंसानों का बोझ उठाते घोड़े, तो कहीं दिन गुजारने की उधेड़बुन, कहीं उदासी तो कहीं कोई हसीन उमंग, कहीं महँगी गाड़ियों से उतरते सैलानी और कहीं पास में कूड़ा बीनते छोटे बच्चे, कहीं तिनका तिनका जोड़ती जिंदगी और कहीं कोई मदहोश नजर।
मैं धीमी रफ्तार से चलती इस जिंदगी में ठहरकर हर शय को इत्मीनान से देखती हूँ। वहीं अगले ही मोड़ पे अचानक से कोई गाड़ी मुझे ओवरटेक करती है और महसूस होता है कि यहाँ सब कितनी जल्दी में हैं। फिर मैं खुद को देखती हूँ ,ना जाने क्यूँ मुझे किसी चीज कि कभी जल्दी नहीं होती। न निकलने की जल्दी, न कहीं पहुँचने की जल्दी। न मिलने की, न ही बिछुड़ने की जल्दी ,किसी बात की कोई जल्दी नहीं है। न घर से ऑफिस जाने की न ऑफिस से घर आने की। दुनिया में इतने दु:ख और इतनी निराशाएं हैं कि लगातार चलते जाम और रोजमर्रा के संघर्ष मुझे कतई परेशान नहीं करते। मुझसे धूप और बर्फ घंटों बातें करते हैं, एक दूसरे की शिकायत करते हैं। मैं दोनों को सुनती हूँ और उनकी हथेलियों को सहलाती हूँ। मैं सुख और दु:खों पर मुस्कुराती हूँ। मैं जानती हूँ कि दर्द की इंतिहा क्या है, एक दिन दर्द भी खत्म हो जाता है ।मैं जानती हूँ कि आलोचनाओं और प्रशंसाएं सब क्षणिक हैं। मेरे जीवन को मुझसे अधिक कोई भी नहीं समझ पाएगा।
मैं घंटों एक ही जगह पर रूकी रहती हूँ। घंटों एक ही ग़ज़ल सुनती हूँ। घंटों एक ही इंसान के बारे में सोचती हूँ । एक ही किताब को कई कई बार पढ़ती हूँ। एक ही फिल्म दस बार देखकर, हर बार रोती हूँ। घंटों हवाओं के संगीत सुनती हूँ। घंटों बच्चों के साथ खेलती हूँ। घंटों गाड़ी चलाती हूँ। घंटों जंगलों में भटकती हूँ। घंटों अपने कमरे में बंद रहती हूँ। घंटों रसोई में खड़े रहकर खाना बनाती हूँ और सुबह से शाम हो जाती है। कभी कभी लगता है कि घड़ी मेरे जैसों के लिए नहीं बनी है। या तो मुझे वक़्त की कद्र नहीं है या मेरा मर्ज़ कुछ और ही है। मेरी घड़ियाँ हमेशा बंद रहती हैं, वक्त होते हुए भी उन्हें चार्ज कर लूँ या सैल भर लूँ, मुझसे इतना तक नहीं हो पाता। मैं वक़्त का हिसाब नहीं रख पाती, वक़्त मुझे बाँध नहीं पाता।
मैं शीशे में खुद को एक नजर भर के देखती हूँ और देखती हूँ कि झुर्रियाँ आने लगी हैं। मैं कभी वक्त के हिसाब से नहीं चली और वक्त अब मेरे चेहरे पर दस्तक दे, मुझसे जिरह करता हैं। मैं वक्त से कहती हूँ कि मैं झुर्रियों के साथ कुछ और खूबसूरत हो गई हूँ, इनमें मेरे जीवन की सुंदर प्रेम कहानियाँ दर्ज हैं। मैं वक्त से कहती हूँ कि मैं ठहर गई हूँ। वक्त, ना जाने किस बेरुखी में चला जाता है, मेरी घड़ियाँ अभी भी खराब रखी रहती हैं।
मेरी ये धीमी सी भीतरी दुनिया बहुत शांत है। दुनिया जिस पर बाहरी दुनिया की बेरुखी का कोई फर्क नहीं पड़ता। दुनिया जिसमें कहीं पहुँचने, कुछ होने की कोई होड़ नहीं है। मुझे लगता है मेरे अंदर कई लोग रहते हैं, जो बेहद सब्र और सुकून में हैं। वो मुझसे बात करते हैं।अंदर से कई आवाजें आती हैं। कभी-कभी मुझे उन आवाजों को सुनने की भी जल्दी नहीं होती।
कभी किसी शाम उदास रहने का मन हो तो कहीं कोई गीत, कहीं कोई मुस्कुराहट, कहीं कोई कविता, कहीं कोई मीठी बात याद आते ही वो उदास रहने की जल्दी भी खत्म हो जाती है। फिर किसी बात की जल्दी नहीं। यहाँ ना रात को गुजरने की जल्दी है और ना दिन को ढलने की। ना इस जहां में कायम रहने की और ना यहां से जाने की। मेरे पास वक्त ही वक्त है अपने अंधेरे कोने में बाहर की ओर झाँकती खिड़की से इस रोशन, चमकती, भागती दुनिया को नजर भर देखने का, और ना जाने क्या सोचते रहने का।
मैं इस धीमे-धीमे, हौले-हौले चलती हुई जिंदगी की शैदाई हूँ!