साथ-साथ चलने चाहिए वैचारिक स्वतंत्रता और जनसंघर्ष

  • अरुण माहेश्वरी

प्रख्यात मार्क्सवादी चिंतक और लेखक


फासिस्ट सत्ता की छाया में बुद्धिजीवी (शैव दर्शन के आलोक में)

एक फासिस्ट शासन व्यवस्था की बुनियाद उस भ्रम में निहित होती है जहाँ सत्ता स्वयं को ‘परम सत्य’ के रूप में प्रस्तुत करती है। इस भ्रम का सबसे गहरा असर उस वर्ग पर होता है जो समाज की चेतना का वाहक माना जाता है- सांस्थानिक बुद्धिजीवी वर्ग। यह जानते हुए भी कि सत्ता लोगों की आत्मचेतना को संकुचित कर रही है, वे भीतर ही भीतर एक प्रच्छन्न आनुगत्य के शिकार हो जाते हैं। यह वह स्थिति है जिसे शैव दर्शन में ‘मायीयमल’ कहा गया है- एक ऐसा बौद्धिक आवरण जो चेतना को सीमित कर देता है और यह भ्रम रचता है कि “यही एक मात्र विकल्प है”। यही वह ‘There is no alternative’ वाला आत्मज्ञान है, जो सत्ता की भाषा में बुद्धिजीवी के आत्मबोध को ढाल देता है।

अभिनवगुप्त के तन्त्रालोक में इस प्रकार की सत्ता-आसक्ति को ‘चिदाकाश के अपहरण’ के रूप में देखा गया है- जब कोई संगठन (जैसे आरएसएस) स्वयं को ‘परमार्थिक आकाश’ की तरह प्रस्तुत करता है, तो वह वास्तव में चेतना के वास्तविक विस्तार चिदाकाश को अवरुद्ध कर देता है। मोदी जैसे नेता उस संगठन के प्रमात्रांश बन जाते हैं- ऐसे प्रतीक जो अपने को पूर्ण मानते हैं, पर वास्तव में संकुचित चैतन्य की कठपुतलियाँ होते हैं। यहाँ कोई स्वतंत्र स्पंदन नहीं होता, बस एक यांत्रिक गति- जैसे सत्ता की डोर किसी और ही हाथ में हो।

शैव ग्रंथ विज्ञानभैरव इसे ‘मनः क्षोभ’ कहते हैं- भयजनित मानसिक उत्तेजना। यह भय कोई स्पष्ट रूप नहीं लेता, बल्कि कोहरे की तरह चेतना में व्याप्त होता जाता है। इस छाया-चेतना के तहत बुद्धिजीवी सत्ता के प्रतीकों में सद्गुण देखने लगते हैं- ‘छाया-शिव’ की आराधना करने लगते हैं। उन्हें यह भ्रम होता है कि वे स्वतंत्र हैं, जबकि उनकी आलोचना, भाषा, यहाँ तक कि प्रतिरोध के तरीके भी सत्ता की स्वीकृति के भीतर ही निर्धारित हो रहे होते हैं। उनका नाद- जो एक समय अनाहत स्वर था- अब सत्ता की ध्वनि बन जाता है, जो अस्वाभाविक और अनुनादहीन है।

यह स्थिति केवल समकालीन भारत की नहीं है। जोनाथन पेट्रोपौलोस की पुस्तक Artists Under Hitler हमें दिखाती है कि हिटलर के जर्मनी में आधुनिकतावादी कलाकारों और बुद्धिजीवियों ने किस प्रकार सत्ता से सामंजस्य की उम्मीद में स्वयं को धीरे-धीरे खो दिया। पॉल हिंदेमिथ, एमिल नोल्द, गौटफ्रेड बेन, लेनी रिफेनस्थाल जैसे कलाकारों ने सोचा कि वे नाज़ी शासन में कला को स्थान दिला सकते हैं- यह भ्रम पाले रखा कि स्थिति सुधरेगी, शासन मानवीय होगा, और उन्हें उनके विशेषाधिकार फिर मिलेंगे। पर अंततः सत्ता ने न सिर्फ़ यह भ्रम तोड़ा, बल्कि उन्हीं बुद्धिजीवियों को निष्कासित कर दिया। वे सत्ता के साथ रहते हुए भी उसके लिए विदेशी बन गए।

यह ऐतिहासिक उदाहरण हमें यही सिखाता है: सत्ता, जब प्रमाता बन बैठती है, तब उसकी आलोचना के सभी उपकरण भी वह निगल जाती है। आलोचक सिर्फ़ सत्ता की ही भाषा बोलता है, यद्यपि विरोध के भेष में।

इससे मुक्ति का मार्ग वहीं है जिसे शैव दर्शन ‘स्वातंत्र्य का नाद’ कहता है। चित्तं नादः- चित्त ही स्वर है। सत्ता के शोर से ऊपर उठकर, बुद्धिजीवी को उस स्वतः-स्फुरित नाद को सुनना होगा जो किसी प्रमात्रांश से नहीं, बल्कि स्वयं से उत्पन्न होता है। यह भैरवी दृष्टि है- भय को पहचानकर उसे नाद में रूपांतरित कर देने वाली दृष्टि। अभिनवगुप्त का सूत्र है: “चिद्विलासः स्वातन्त्र्यम्”- चेतना का विलास ही स्वतंत्रता है।

जहाँ भय है, वहाँ शिव नहीं। और जहाँ शिव नहीं, वहाँ न तो विचार स्वतंत्र होता है, न कला। बुद्धिजीवी का धर्म यही है: सत्ता के मायीय मल को पहचानकर उससे मुक्त होना, और अहं शिवः के भाव में एक स्वतंत्र चिदाकाश की रचना करना।

यहाँ चिद्विलास की अवधारणा से आतंकित होने की ज़रूरत नहीं है। फासीवादी सत्ताएँ सबसे पहले भाषा, विचार और विमर्श पर कब्जा करती हैं। ऐसे में, बुद्धिजीवियों का यह दायित्व है कि वे सत्ता-निर्मित “सत्य” से मुक्त हों। शैव दर्शन का ‘चिद्विलास’ यही सिखाता है। यह एक आत्मशोधन की प्रक्रिया है, ताकि बुद्धिजीवी सत्ता के ‘मायीय मल’ (भ्रमजाल) में फंसकर उसके अनुचर न बनें।

परंतु यह कत्तई जनसंघर्ष का विकल्प नहीं है। चिद्विलास वैयक्तिक चेतना का विषय है, जबकि फासीवाद के खिलाफ लड़ाई सामूहिक संघर्ष की मांग करती है।

शैव दर्शन की ‘अहं शिवः’ (मैं ही शिव हूँ) की भावना व्यक्ति को आंतरिक रूप से सशक्त बनाती है, लेकिन सामाजिक परिवर्तन के लिए संगठित जन-आंदोलन, संवैधानिक लड़ाइयाँ और राजनीतिक विकल्पों का निर्माण जरूरी है।

जर्मनी के उदाहरण में भी, जो बुद्धिजीवी नाज़ियों के साथ ‘समझौता’ करते रहे, वे अंततः उसी व्यवस्था के शिकार हुए। इसलिए, वैचारिक स्वतंत्रता और जनसंघर्ष दोनों साथ-साथ चलने चाहिए।

‘चिद्विलास’ से प्रेरित होकर बुद्धिजीवी सत्ता के भय से मुक्त हों, ताकि वे जनसंघर्ष को और प्रभावी ढंग से समर्थन दे सकें। ‘चिद्विलास’ आंतरिक गुलामी को तोड़ने का उपकरण है, लेकिन बाहरी गुलामी (सत्ता का दमन) को खत्म करने के लिए जनसंघर्ष ही अंतिम हथियार है। दोनों एक-दूसरे के पूरक है। हमारे मत में चिद्विलास की यह अवधारणा ही जनतंत्र के लिए बुद्धिजीवियों के संघर्ष के किसी भी व्यापक मंच के इंद्रधनुष की तरह के स्वरूप का आधार प्रदान करती है।

जैसे, अभिनवगुप्त कहते हैं: ‘चिद्विलासः स्वातन्त्र्यम्’ (चेतना का विलास ही स्वतंत्रता है), परंतु इस स्वतंत्रता को साकार करने के लिए बाहरी संसार में भी संघर्ष जारी रहना चाहिए।

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