यह मत कहो, मुझे विषय दो, यह कहो कि मुझे आंखें दो

आलेख एवं फोटो: पूजा सिंह

स्‍वतंत्र पत्रकार

आज 15 अगस्त है। देश की आज़ादी का दिन। वह दिन जब लंबे संघर्ष के बाद हमें अंग्रेजों की दासता से आज़ादी मिली थी। देश के नागरिकों के मौलिक अधिकार बहाल हुए थे। इस आज़ादी के लिए अनगिनत लोगों ने अपने प्राण दिए। मांओं ने अपने बेटे, बहनों ने अपने भाई और भाइयों और पिताओं ने अपनी बहन-बेटियों की कुर्बानी दी।

क्या है आज़ादी?

आखिर क्या है आज़ादी? क्या आज़ादी एक सोशल कॉन्ट्रैक्ट है? कोई लिखित अनुबंध है कि आज से हम आज़ाद हैं? वे कौन सी बाते हैं जो एक आज़ाद देश को गुलाम देश से अलग करती हैं? वे कौन से पैमाने हैं जिन पर किसी देश की आज़ादी, उसकी तरक्की को आंका जाता है? क्या महाशक्ति बन जाना विकास है? क्या विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हो जाना विकास है? नहीं केवल इतना भर होना विकास नहीं है। यह विकास का एक पहलू जरूर हो सकता है।

मानव सभ्यता के विकास के क्रम में हमारे विकास की प्रक्रिया एक नागरिक के रूप में हमारे विकास से जुड़ी हुई है। क्या हमने जाति से आज़ादी पाई? क्या हमने सांप्रदायिक सोच से आज़ादी पाई? क्या हमने अपने घरों में काम करने वालों के साथ कमतर आचरण बंद किया? उनके खाने-पीने के बर्तन अलग करना बंद किया? उन्हें काम पर रखने से पहले उनकी जाति पूछनी बंद की? अगर नहीं तो यकीन मानिए हम शारीरिक और भौतिक रूप से आज़ाद भले ही हो गए हों लेकिन हमारी यह आज़ादी अधूरी है। हमें अभी मानसिक स्तर पर कई बंधनों से खुद को आज़ाद करना है।

पिछले कुछ सालों से भले ही देश की हर मुश्किल का कारण कुछ संप्रदायों और समुदायों को बताया जा रहा हो, यह कहा जा रहा हो कि उन्होंने हजारों साल हमें गुलाम बनाए रखा लेकिन हकीकत यह है कि हमने यह आज़ादी अंग्रेजों से हासिल की है और हमारी प्रताड़ना के सबसे बड़े जिम्मेदार अंग्रेज ही थे। वो जिन्हें आज जिम्मेदार बताया जा रहा है वे तो अंग्रेजों के साथ हमारी लड़ाई में साथ-साथ लड़े। कंधे से कंधा मिलाकर लड़े।

दो सौ साल लंबी रात

संविधान सभा की बहसों से गुजरते हुए एक तथ्य जो बार-बार हमारा ध्यान अपनी ओर खींचता है, वह यह है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने जब भी गुलामी की बात की, उन्होंने जब भी दासता का जिक्र किया, उन्होंने 200 सालों की गुलामी की बात की। यानी वे भी यही मानते रहे कि हमें अगर किसी ने गुलाम बनाया तो वे अंग्रेज थे न कि कोई अन्य समुदाय। यह एक दो सौ साल लंबी रात थी जिसकी सुबह 15 अगस्त 1947 को हुई। हमें उस उजाले को बरकरार रखना है।
‘मेरा दागिस्तान’ जैसी मशहूर किताब के लेखक रसूल हमज़ातोव ने कहा था-

यह मत कहो, मुझे विषय दो/यह कहो कि मुझे आंखें दो।

जाहिर है कि अगर आंखें होंगी तो हम पर्यवेक्षण कर सकेंगे और अगर हम अपने आसपास की चीजों पर घटनाओं पर नजर डालेंगे तो हमारे पास विषयों की कमी नहीं होगी। दो सौ सालों की गुलामी भी एक ऐसा ही विषय है जिस पर गौर करने पर हम पाते हैं कि हजारों सालों की गुलामी का तर्क कितना थोथा है। हम यह भी पाते हैं कि देश के संसाधनों की जैसी लूट अंग्रेजों ने की वैसी किसी ने नहीं की। वह बताता हैं कि कैसे ब्रिटेन का 200 सालों का उभार दरअसल भारत में 200 सालों तक की गई खुली लूट का परिणाम था। वह यह भी कहते हैं कि भारत को आधुनिक बनाने का दम भरने वाले ब्रिटिश अगर भारत को गुलाम नहीं बनाते तो भारत उनसे कहीं पहले आधुनिक देश होने का दर्जा पा चुका होता।

भारत पर शासन करने वाले मुगलों और ब्रिटिश राज में एक बुनियादी अंतर था। मुगलों ने भारत आने के बाद कभी दोबारा समरकंद का रुख नहीं किया जहां से वे आए थे। वे यहीं के होकर रह गए। उन्होंने यहां राज किया, वैवाहिक संबंध स्थापित किए और प्रजा की भलाई के लिए उसी तरह काम किया जैसे उस दौर के अन्य शासक करते थे।

इसके उलट अंग्रेजी शासन के बारे में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत पर पहला अंग्रेजी शासन दरअसल एक कंपनी का शासन था जिसका नाम था ईस्ट इंडिया कंपनी। इतिहास में ऐसा दूसरा उदाहरण मुश्किल है जहां एक कंपनी ने किसी देश पर राज स्थापित किया हो। ऐसे में उसका एकमात्र उद्देश्य मुनाफा कमाना भर था और उसने यही किया भी। भले ही बाद में ब्रिटिश सम्राट का शासन हो गया लेकिन भारत की लूट का उद्देश्य नहीं बदला। इस बीच रेलवे और डाक जैसी जो सुविधाएं अंग्रेजों ने विकसित कीं दरअसल वे भारतीयों के हित के लिए नहीं बल्कि संसाधनों की लूट और अपने राज को सुरक्षित करने के लिए बनाई गई थीं।

कंपनी राज का ऐतिहासिक बोझ

आइए जानते हैं उस निर्णायक क्षण के बारे में जब देश में कंपनी का राज स्थापित हुआ:

अठारहवीं सदी के मध्य तक भारत में मुगल साम्राज्य पतन के कगार पर था। इस बीच स्थानीय राजाओं और यूरोपीय औपनिवेशिक ताकतों ने अपने राजनीतिक और आर्थिक हितों पर जोर देना शुरू कर दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी भी उनमें से एक थी और उसने तत्कालीन भारत के सबसे अमीर सूबे बंगाल की राजनीति में दखल देना शुरू कर दिया।

आखिरकार कोलकाता से 100 मील दूर प्लासी के मैदान में नवाब सिराजुद्दौला और फ्रांसीसी सैनिकों तथा ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच जंग छिड़ी। कंपनी की सेना का नेतृत्व लेफ्टिनेंट कर्नल रॉबर्ट क्लाइव के हाथ में था। मीर जाफर की गद्दारी के कारण 50,000 की क्षमता वाली सिराजुद्दौला की सेना महज 3,000 सैनिकों वाली कंपनी की सेना से हार गई और इस प्रकार सन 1757 में भारत के एक हिस्से पर पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन हो गया।

इसके बाद जो लूट मची उसका ब्यौरा शशि थरूर की किताब ‘एन एरा ऑफ डार्कनेस: ब्रिटिश एंपायर इन इंडिया’ में पाया जा सकता है। उनकी किताब में शामिल प्रमुख बिंदुओं की बात करें तो भारत के संसाधनों और श्रम की ब्रिटिशों द्वारा लूट, एक देश के रूप में भारत की अवधारणा पर ब्रिटिश प्रभाव, फूट डालकर शासन करने की उनकी नीति, भारत का सांप्रदायिक विभाजन, अपने स्वार्थ के लिए भारत का कथित विकास और उपनिवेशवाद की विभीषिका आदि प्रमुख हैं।

हम एक आज़ाद मुल्क के बाशिंदे हैं, यह कहना-सुनना अच्छा लगता है लेकिन आज़ादी कोई एक बार मिलकर अनंतकाल तक चलने वाली चीज नहीं है। एक नागरिक के रूप में यह हमारी निरंतर यात्रा है। हमें हर रोज अलग-अलग मोर्चों पर आज़ादी की रक्षा करनी है।

One thought on “यह मत कहो, मुझे विषय दो, यह कहो कि मुझे आंखें दो

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *