… पर बीच में किसी की नाक नहीं आनी चाहिए

चैतन्‍य नागर, स्‍वतंत्र पत्रकार

आज़ादी शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं। इसकी नाप-तौल, परख के भी कई तरीके हो सकते हैं और हर तरीका उन संस्कारों द्वारा परिभाषित होगा जिनमें हम पले-बढे हैं। किसी भूखे इंसान को रोटी में आज़ादी दिखती है, बेरोजगार को काम में, तो किसी अमीर को प्रचुर, असीमित राजनीतिक ताकत में। तथाकथित संत भी और अधिक आध्यात्मिक लोकप्रियता में अपना स्वातंत्र्य या मुक्ति देखता है। पर क्या आज़ादी का कोई बुनियादी मतलब भी हो सकता है जो हर परिस्थिति में लागू होता हो?

ऐसा लगता है कि आज़ादी का एक व्यापक अर्थ एक ऐसी अवस्था या परिवेश है जिसमे हम अपने बारे में खुद फैसले ले सकें; हम बगैर किसी भय के अपने मन की बात कह सकें। अक्सर आज़ादी का मतलब लोग समझते हैं कि यह एक ऐसी स्थिति है जिसमे हम जो चाहे, जब चाहें कर सकते हैं, पर यह सही नहीं। ऐसा तभी संभव है जब आप बिलकुल अकेले किसी जंगल में रहते हों और कोई दूसरा मानव आपके साथ न रहता हो। ज्यों ही एक समाज की सृष्टि होगी, चाहे वह कितना ही लघु समाज क्यों न हो, आज़ादी का अर्थ बदल जाएगा। ऐसे में आप अपनी आज़ादी का जश्न मनाते समय किसी दूसरे की स्वतंत्रता का हनन करते हैं तो उसके परिणाम आपको भुगतने होंगें।

इस तरह देखा जाए, तो आपको अपने हाथ तेज़ी से घुमाने की आज़ादी तो है पर बीच में किसी की नाक नहीं आनी चाहिए। यदि आपने इस स्थिति में अपने विवेक का उपयोग नहीं किया तो फिर कानून और प्रथाएं होंगी आपको रोकने के लिए। समाजीकरण का एक मुख्य उद्येश्य आपको भयभीत होने की आदत डालना भी है। आप जिस परिवेश में रहते हैं वहां की अन्य बातों के अलावा वहां के डर भी हमारे अपने हो जाते हैं, और हम ख़ुशी ख़ुशी अपनी आज़ादी को त्यागने के लिए तैयार हो जाते हैं, क्योंकि यही ‘सामान्य’ आचरण का हिस्सा बन जाता है।

अतीत का बोझ और आने वाले समय की चिंताएं भी हमें आजाद होने से रोकती हैं, व्यक्तिगत स्तर पर, और सामाजिक, राजनीतिक स्तर पर भी। जिन लोगों ने हमें रिश्तों में चोट पहुंचाई है, जिन राजनीतिक दलों ने हमारे साथ वादाखिलाफी की है उन्हें हम फिर से अपने भविष्य की कुंजी नहीं सौपेंगें—आज़ादी की यही मांग है। अपने बुरे अनुभवों और पुरानी गलतियों को न दोहराने का अवसर मिलना भी एक तरह की बड़ी आज़ादी है। यदि हमें एक लोकतंत्र में अपनी सरकार को चुनने की आज़ादी न मिले, मतदाताओं को बूथ तक जाने से रोका जाए, उन्हें किसी चीज़ का लोभ देकर उनके राजनीतिक रुझान को बदलने की कोशिश की जाए, तो यह स्वतंत्रता का उल्लंघन है। यदि किसी आततायी को पसंद न करते हुए भी आपको उसके साथ रहना पड़े, अपनी व्यक्तिगत, आर्थिक और सामाजिक मजबूरियों के चलते, तो यह भी आपकी आज़ादी के खिलाफ है।

आज़ादी बहुत अधिक सजगता की मांग भी करती है। कितनों को तो इसका अहसास भी नहीं होता कि वह वास्तव में आजाद नहीं या फिर जिसे वह आज़ादी समझ रहे हैं वह गुलामी का ही एक परिष्कृत रूप है। सुसज्जित पिंजरों को आज़ादी समझना हमारी व्यक्तिगत और सामूहिक आदत है। अक्सर आज़ादी को परिभाषित करते हैं सत्तासीन शासक और धर्म ग्रंथ, पर इनके द्वारा परिभाषित स्वतंत्रता सिर्फ उनकी ताकत को बनाए रखने का एक माध्यम भर होती है। वह आपको हर आज़ादी दे सकते हैं, खुद पर प्रश्न उठाने की आज़ादी को छोड़ कर। इस संबंध में एक दिलचस्प किस्सा है जो सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी से जुडा है।

स्तालिन अपने तानाशाही रवैये के बारे में कुख्यात थे और उनके बाद आए ख्रुश्चेव जिनकी छवि थोड़े उदार नेता की थी। ख्रुश्चेव ने स्तालिन की आलोचना की थी और उनपर आरोप लगाए थे कि भले ही स्तालिन कम्युनिज्म के आदर्शों के प्रति समर्पित थे, उन्होंने खुद को महिमामंडित करने की भी कोशिश की। जब ख्रुश्चेव पार्टी सदस्यों के सामने यह कह रहे थे, तभी किसी ने पूछा: “ये बातें आपने तब क्यों नहीं कहीं, जब स्तालिन मौजूद थे?” ख्रुश्चेव ने दहाड़ते हुए पूछा: कौन बोला? बैठक में शांति छा गई। कोई एक शब्द भी नहीं बोला। ख्रुश्चेव ने कहा: “जिस वजह से आप आज नहीं बोल रहे, उसी वजह से मैं भी उस समय नहीं बोल रहा था!”

सीमित स्वतंत्रता

यह तो स्पष्ट है कि राजनीतिक अर्थ में आज़ादी बहुत ही सीमित होती है। स्वयं आज़ादी और पारदर्शिता के नाम पर शपथ लेने वाले दलों के भीतर खुल कर तानाशाही रवैया चलता है, भाई भतीजावाद को बढ़ावा दिया जाता है और धन एवं जाति-धर्म वगैरह के नाम पर लोगों को पार्टी की टिकटें दी जाती हैं। फिर आज़ादी किस बात की? जब हम धन, सत्ता, लोभ और अनावश्यक संग्रह की प्रवित्तियों से ही मुक्त नहीं हुए तो फिर एक झूठी, सीमित आज़ादी का हम क्या करें? जब तक सड़क पर चलता आदमी संसद तक जाने में सहज महसूस न करे, तो आज़ादी कैसी? फिर तो वह आज़ादी धनपशुओं, लुच्चों और असंवेदनशील संभ्रांत वर्ग के खेल का मोहरा बन कर रह गयी? एक पिंजरे से निकल कर दूसरे पिंजरे में जाना भी आज़ादी नहीं। एक मैले-गंदे पिंजरे से निकल कर एक सुसज्जित पिंजरे में बस जाना भी आज़ादी नहीं। जब किसी एक पार्टी की जगह हमारी पार्टी सत्ता में आती है तो लगता है हमें आज़ादी मिल गई। थोड़े दिन बाद मोहभंग होता है और हम किसी नए पिंजरे की तलाश में लग जाते हैं। क्या आज़ादी सिर्फ पिंजरे बदलने का खेल भर है?

राजनीतिक तौर पर देखा जाए तो कई देशों की अपेक्षा हम ज्यादा आजाद हैं। पर क्या आज़ादी की परख तुलनात्मक दृष्टि से होनी चाहिए? या सिर्फ इस तरह देखना चाहिए कि हम आजाद हैं या नहीं। वैसे तो इसे एक परमवादी दृष्टिकोण कहा जाएगा जिसके अनुसार या तो हम आजाद हैं या नहीं हैं, पर आंशिक आज़ादी, सीमित आज़ादी, किश्तों में मिली आज़ादी का कोई मूल्य है भी?

किसकी आज़ादी, कैसी आज़ादी?

बग़ैर साक्षरता और सजगता के आज़ादी का कोई अर्थ ही नहीं। इन कई मामलों में सोशल मीडिया ने लोगों को जागरूक बनाने के लिए सकारात्मक काम किया है। दूसरी तरफ महिलाओं और कमज़ोर वर्ग के लोगों पर बार बार होने वाले हमलों ने हमारी आज़ादी को लेकर बड़े सवाल उठाए हैं। जिस देश में खुलेआम राजनीतिक और सामाजिक घृणा की वजह से कमज़ोर वर्ग के लोगों पर हमले हों, क्या उसे एक आजाद देश कहा जा सकता है? जिस देश में हर बीस मिनट पर एक स्त्री के साथ बलात्कार होता हो, क्या उसे हम स्वतंत्र कहेंगे? जहां सदियों से कई वर्ग दारिद्य और दुःख में जीवन बिता रहे हों, क्या वह देश आजाद है? कौन आजाद है यहां, और किसके लिए है हमारी आज़ादी? जहां सत्ता के करीब रहने वाले 27 मंजिल के घर में रहते हों और उसी शहर में लाखों लोग गंदगी में लोटते हुए झुग्गी झोपड़ियों में कई-कई पीढियां गुजार देते हों, वह देश क्या आजाद है? जिस देश में किसान कर्ज के संकट से डर कर फांसी पर झूल जाएं, जहां छोटे बच्चे पारिवारिक दबाव की वजह से या तो स्कूल ही न जा सकें, और या मां बाप और शिक्षक के दबाव में चूहा दौड़ में शामिल हो जाएँ और थक हार कर खुदकुशी कर लें, तो ऐसे में क्या हमे खुद को आजाद देश का नागरिक कहना चाहिए?

बदलते मायने

जैसे-जैसे समाज विकसित होता है सियासी आज़ादी के लिए उसकी मांगें बढती हैं; परिष्कृत, संशोधित होती जाती है। मतदान के अधिकार की मांग पहले आती है, फिर नागरिक अधिकारों की मांग, शिक्षा की मांग, जन स्वास्थ्य प्रणाली की मांग, वैज्ञानिक शिक्षा और अभाव से मुक्ति की मांगें भी अलग अलग अवस्था में सामने आती चली जाती हैं। इन मांगों के पूरा होने से लोगों को यह महसूस होने लगता है कि वे अब अपने सपनों के हिसाब से जी सकते हैं। पर एक लोकतांंत्रिक देश में सरकारें बदलने के साथ आज़ादी की धारणाएं भी बदलती हैं। दक्षिणपंथी और वामपंथी विचारधाराएँ स्वतंत्रता को भी अपने तरीके से परिभाषित करती हैं।

वास्तव में दोनों ही सीमित आज़ादी की ही तरफदारी करती हैं और उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता अपनी राजनीतिक सत्ता की निरंतरता ही होती है। अभिव्यक्ति की आज़ादी के हिमायती अपने शासनकाल में भी किन्हीं किताबों पर रोक लगाने में संकोच नहीं करते, पर राजनीति में इन विरोधाभासों को रोज़मर्रा के खेल का हिस्सा मान लिया जाता है, और तात्कालिक हितों के सामने विचारधारा के प्रति निष्ठा को कुर्बान करने में कोई संकोच नहीं होता। स्वतंत्रता के जिन आवश्यक पहलुओं का ऊपर जिक्र किया गया है, उनका उल्लंघन वही लोग करते दिखते हैं जो कभी उनकी रक्षा के लिए जान देने की बातें किया करते थे। इस तरह स्वतंत्रता की कोई एक सर्वमान्य, विश्वव्यापी धारणा निर्मित नहीं हो पाती। बस एक सीमित और जहां तक हो सके प्रगतिशील, सर्वसमावेशी आम राय बनती है और उसे लेकर ही बहसें, तर्क-कुतर्क, मनोमालिन्य चलता रहता है।

आज़ादी को लेकर जो एक सीमित आम राय बनी है उसके आधार पर देखा जा सकता है कि हर व्यक्ति या समाज कुछ खसस तरह की स्वतंत्रता की मांग करता है जो कि इन बातों के साथ जुडी होती हैं:

सबसे पहले तो आती है बोलने और खुद को व्यक्त करने की आज़ादी जिसे हर सभ्य और प्रगतिशील समाज में अत्यावश्यक माना जाता है। गौरतलब है कि जिन समाजों ने इस आज़ादी को तवज्जो नहीं दी है, उनकी तादाद और उनका प्रभाव हाल के वर्षों में बढ़ा है जो समूची मानवता के लिए एक शोचनीय और शर्मनाक बात है।

दूसरी महत्वपूर्ण आज़ादी है: अपने अपने भगवान की अपने ढंग से पूजा वगैरह करने की आज़ादी। इस आज़ादी का एक अहम् पहलू है नास्तिकों की आज़ादी, क्योंकि अनीश्वरवादी हमेशा से समाज का हिस्सा रहे हैं और अपने वैज्ञानिक, तार्किक चिंतन के जरिये उन्होंने समाज के विकास में योगदान दिया है। ईशनिंदा की आज़ादी को इसमें शामिल किया जाना चाहिए।

अभावमुक्त जीवन दुनिया के हर व्यक्ति को, हर पशु पक्षी को उपलब्ध होनी चाहिए। यह ठोस भौतिक अभाव की बात है न कि मनोवैज्ञानिक अभाव की, जिसके लिए कोई सरकार कुछ नही कर सकती।

चौथी महत्वपूर्ण आज़ादी है भय से मुक्ति: पडोसी के हमले का भय, रास्ते चलती स्त्रियों के अपमान का भय, बच्चों के मन में उनके शिक्षकों का भय, नौकरी चले जाने का भय, दुर्घटनाओं का भय, बुजुर्गों में रुग्णता, असुरक्षा का भय वगैरह। हालांकि भय एक मनोवैज्ञानिक अवस्था है पर जिन ठोस भौतिक भयों को सांगठनिक और सम्मिलित उपायों के द्वारा दूर किया जा सकता है, उन्हें दूर करना व्यवस्था की ही जिम्मेदारी है।

स्वतंत्रता के लिए सजगता जरुरी

दरअसल, आज़ादी बड़ा ही भारी भरकम शब्द है और इस शब्द का उपयोग बड़ी सावधानी के साथ करने की जरुरत है। द सोशल कॉन्ट्रैक्ट में रूसो लिखता है:

इंसान आजाद पैदा होता है, पर हर जगह वह जंजीरों से बंधा है। कोई सोचता है कि वह दूसरों का मालिक है, पर हकीकत तो यह है कि वह दूसरों की तुलना में अधिक बड़ा गुलाम है।

आप गौर से देखें तो हर आज़ादी के साथ ही एक गुलामी चली आती है। कोई युवा अच्छी नौकरी पाने के सपने देखता है, और जिस दिन नौकरी पाता है, उसे अहसास होता है कि उसने अपनी आज़ादी खो दी। अब उसके जीवन के अगले चालीस साल किसी और के लिए काम करते हुए, किसी और के इशारे पर चलते हुए मिलेंगें। वह तरक्की करेगा, पद उसका साल दर साल ऊंचा होता जाएगा, पर वास्तव में सिर्फ गले में बंधी हुई रस्सी लंबी होगी। उसकी आज़ादीहमेशा रस्सी की लंबाई के आधार पर नापी जाएगी। कमोबेश यही हाल अविवाहित लोगों का होता है जो विवाह के सपने देखते हैं। विवाह के साथ परिवार और बच्चों की जिम्मेदारी आती है। क्या जीवन में स्वतंत्रता, जिम्मेदारी और अनुशासन का संतुलन बना कर चला जा सकता है? क्या यह एक असंभव स्थिति है? इसकी पड़ताल की जानी चाहिए।

आध्यात्मिक निहितार्थ

जीवन की संध्या में एक और आज़ादी बहुत कीमती हो जाती है और वह है मृत्यु के भय से आज़ादी। अब यहां स्वतंत्रता एक राजनीतिक और सामाजिक आयाम से निकल कर धामिक और आध्यात्मिक अन्वेषण का विषय बन जाती है। यह वह मुक्ति है जिसका उल्लेख बुद्ध, गाँधी और विवेकानंद जैसे लोगों ने किया है। बुद्ध ने इस मुक्ति को निर्वाण (निब्बान) या दुःख ध्वंस कहा था। इसके अलावा वे किसी भी मुक्ति को मुक्ति मानने के लिए तैयार नहीं थे। अपनी कामनाओं और तृष्णाओं से मुक्ति की बात यूनानी दार्शनिकों ने भी कही और उनमें सुकरात के अलावा डायोजीनीस भी शामिल थे। शेक्सपियर का मशहूर पात्र हैमलेट डेनमार्क का राजकुमार था पर अपना देश उसे एक जेल की तरह लगता था। आज़ादी एक अर्थ में एक मानसिक अवस्था भी है।
गांधी जी ने 16 जनवरी 1930 को यंग इंडिया में लिखा:

“मेरे विचार में तो सोने की जंजीरें लोहे की जंजीरों से भी बुरी हैं। लोहे की जंजीरें तो किसी को भी घिनौनी लग सकती हैं, पर सोने की जंजीरों को कोई आसानी से भूल सकता है। इसलिये यदि भारत को जंजीरों में ही बंधा रहना है, तो बेहतर होगा कि वे जंजीरें सोने या और किसी कीमती धातु की न होकर लोहे की ही हों।”

आज एक ज्वलंत प्रश्न है यह; हम कैसी आज़ादी चाहते हैं और राष्ट्रपिता ने किस तरह की आज़ादी का सपना संजोया होगा यह कहते समय? गाँधी जी ने आज़ादी के बारे में एक और बहुत ही कीमती बात कही थी जिसका ज़िक्र यहाँ जरुरी है। उनका कहना था कि “यदि आज़ादी में गलती करने या पाप करने तक की आज़ादी शामिल नहीं, तो फिर उस आज़ादी का कोई अर्थ नहीं। यह पूरी तरह मेरी समझ से बाहर है इंसान जो इतना अनुभवी और कुशल है, दूसरे इंसानों को इस अधिकार से वंचित रखकर कैसे खुश हो सकता है।” (यंग इंडिया, 12 मार्च, 1931)।

धरती की आज़ादी

आज़ादी का एक और पहलू है जिसे हमें भूलना नहीं चाहिए- और यह है धरती की आज़ादी, उसके लिए जीने की आज़ादी। जिस तरह लोभ के कारण पिछले दशकों में धरती का शोषण हुआ है वह एक अभूतपूर्व और बहुत ज्यादा दुःख देने वाली घटना है। इसका परिणाम भी हम लगातार भुगत रहे हैं। धरती की आज़ादी का अर्थ है नदियों को बहने की आज़ादी, जंगलों को उगने की आज़ादी, पक्षियों को चहकने की, पशुओं को निर्भीक होकर अपने जंगलों में घूमने फिरने की आज़ादी। इसके प्रति सजगता जरुर बढी है, पर इस सजगता के पीछे हमें खुद के असुरक्षित होने का भय अधिक है, धरती को बचाने की फिक्र कम। यदि हमारे कुकर्मों से धरती का नुकसान होता पर हम बचे रह जाते, तो हमें धरती या पर्यावरण की जरा भी फिक्र नहीं होती। तो धरती के लिए धरती की फिक्र करने की उम्मीद कर सकते हैं हम, खुद से और अपनी संतानों से? यदि यह धरती और हमारे मूक सहचर ही हमारी अदम्य कामनाओं के पिंजरे में कैद हो गए, तो हम कैसे स्वतंत्र हो सकते हैं।

विवेकानंद ने स्वतंत्रता को उसके गहरे और व्यापक अर्थ में परिभाषित किया है और उनकी बात पर गौर करना आवश्यक लग रहा है। उनका कहना है: “सभी मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे हैं, एक क्षुद्र अणु से लेकर एक सितारे तक”। हम सब अपनी आज़ादी के साथ साथ उनकी आज़ादी की भी फिक्र करें जिन्हें हम ‘अन्य’ या ‘पराया’ कहते हैं, तभी मुक्ति का यह लक्ष्य हमारी पहुंच के भीतर रहेगा; वर्ना हर दिन यह दूर खिसकता चला जाएगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *