प्रीति राघव, गुरुग्राम
सिर्फ सजदे में गिरना है और अदब से दुआ करना
कला फिल्मों की दहलीज पर दस्तक मम्मी-पापा के शौक के कारण हुई। प्रारंभिक दौर में अंधेरे से फिल्मांकन, धीमी बोझिल रफ्तार और बिना किसी गाने या इक्का-दुक्का गाने से टिमटिमाती कला फिल्मों से उबासी आ जाती थी। समय के साथ जब इन फिल्मों के पीछे छिपा परिश्रम, सामाजिक समस्याओं को उजागर करने की नेक नीयत, व्यवसायिक फिल्मों की चकाचौंधी तामझाम से इतर जमीनी पकड़ बनाये रखने की ईमानदारी, विचारमंथन को उकसाती इनकी भाषा-शैली, पृष्ठभूमि, मुखर पटकथा सबने ऐसा मोह में जकड़ा कि धीमे-धीमे इनका नशा चढ़ने लगा, हुड़क जगने लगी कि इन्हें देखा जाये और सराहा भी जाये। इस नशे ने उन सभी जाने-पहचाने परंतु प्रसिद्धि व चकाचौंध से दूर ढ़ेरों कलाकारों से भी बाकायदा परिचय कराया। इन्हीं चेहरों में से एक चेहरा था इरफान साहब का। मरहूम लिखना मुझे सही नहीं लगता क्योंकि मेरी सोच में कलाकार कभी मरते नहीं हैं,वे जीते हैं अपने मुरीद के ज़ेहन में, धड़कते हैं उनके दिल में और आंखों से दर्द का आंसू बन टपकते भी हैं।
इरफान साहब ने अपनी शानदार अदाकारी,बोलती-चमकती आंखों और कातिल मुस्कान से अपनी जगह कुछ इस तरह बनायी कि आज तक उस पर विराजमान हैं वे। किसी और के लिये कहीं कोई गुंजाइश नहीं रख छोड़ी है उन्होंने। उनकी लंबे समय तक चलती बीमारी, इलाज और बनती-बिगड़ती तबियत की खबरों पर लगातार निगाह बनी रही। कुछ सुधार के समय उनके पुराने कमिटमेंट्स को ,अधूरे काम को पूरा करने का उनका जज्बा उनसे मोहब्बत में डुबोता गया। दिल बस यही दुआएं करता कि काश, वे बने रहें हमेशा-हमेशा, थोड़े और, थोड़े से और… काश!
उनके जाने का दर्द आज भी उनकी किसी फिल्म को देखकर तनिक और बढ़ जाता है। दिल कहता है कि कुछ लोगों को कभी नहीं जाना चाहिये,पर जीवन-मृत्यु शाश्वत सत्य जो हैं,जिनकी थाह लेना हम इंसानों के वश में है ही कहां!
इरफान का जाना शब्द बनकर कागज पर कुछ इस तरह बिखरा कि लगा जैसे वे हर समय अपनी फिल्मों को एक झोले में डाले एक मनमौजी दरवेश बनकर संग-संग चले हों। ये तुमने ठीक नहीं किया बीहड़ के बागी… तुम्हें चंबल अपना पानी और बीहड़ अपनी तपिश माफ नहीं करेंगे,तुम्हें ये कर्जा उतारने फिर से इस जहां में आना ही होगा।
कुछ याद है तुम्हें? तुमने ही कहा था बीहड़ में बागी होत हैं, डकैत होत हैं पार्लियामेंट में! झूठ था, ये कोरा झूठ। तुमई ठहरे सबसे बड़े डकैत जो दिलों में डाका मार के ऐसे फ़रार हुये हो कि कोई भी माई का लाल अब मुखबिरी भी ना कर सकेगा तुम्हारी।
किसी भी कलाकार का जाना उदास तो करता है मगर अमूमन यूं आंखें जब-तब नम होकर झरने लगें, ऐसा बहुत ही कम होता है। तुम्हारा जाना ना जाने क्यूँ बुरा चुभ रहा है, बबूल के कांटे की तरह, गहरा घाव जो दिन पर दिन दर्द बढ़ा देता है, असहनीय पीड़ा कोई।
जब भी सुने, जिधर भी सुने तुम्हारी नेकनीयती के किस्से ही सुने। अरे बागी रे, तुम मिट्टी से जुड़े, आला इंसान बनकर रहे जीवनभर। जिसकी दुनिया में प्रपंचों की कहीं कोई जगह थी ही नहीं।
एक सच्चे, जुझारू कलाकार जिसका धर्म सिर्फ अपनी कला से मोहब्बत करना भर था। तुमसे लगन कब लगी ये खुद को भी पता ना चला! तुम्हारा होना इंसानियत भरी उम्मीद की रौशनी सा था और जाना घुप्प-सुनसान अंधेरे जैसा हो गया है।
अब ‘क्या कहें’ कि…तुम्हारा ‘स्पर्श’ तो पढ़ने वाली उम्र में ‘जस्ट मोहब्बत’ की तरह हो गया था।
मुझे याद है… ‘भारत एक खोज’ पर निकले थे तुम ‘चंद्रकांता’ के साथ ‘श्रीकांत’ बनकर! ‘कहकशां’ तक ‘किरदार’ की छाप छोड़ने वालों में तुम अनूठे ही थे। चाणक्य सी विलक्षणता ‘मानो या ना मानो’ तुम्हें ‘बॉम्बे ब्लू’ में ‘स्टार बेस्टसेलर’ बना गयी। मैं मन ही मन मुस्कुराती-इतराती रही, जब तुम ‘रोडीज 7’ पर ‘द वॉरियर’ बनकर कुछ ऐसे छाये थे, ज्यों मानो कोई ‘द ग्रेट मराठा’ सा फर्स्ट इमिग्रेंट ‘द नेमसेक’ ही ज़ोर से ‘जय हनुमान’ बोलकर घुस गया हो ‘टोक्यो ट्रायल’ का जज बनकर फैसला देने।
रुपहले पर्दे पर जब भी तुम्हारी तिलिस्मी आखें और ख़ामोश चेहरा देखा,उसमें अनगिनत कहानियों को तैरते पाया।
ख़ामोश आंखें गदर काटती थीं तुम्हारी! मैं यकायक हँस पड़ी थी एक दफ़ा और तब तुमने ‘श्ssssकोई है’ बोलकर ‘डॉन’ की तरह रौब में अपने ‘शेष प्रश्न’ दागे थे।
आज कहां चले गये हो तुम? कौन से ‘जुरासिक वर्ल्ड’ में खो गये हो, ‘इनफर्नो’ की मिस्ट्री सुलझाते-सुलझाते… ‘लाइफ ऑफ पाई’ के कौन से एडवेंचरस ट्रिप पर? कहो तो!
काश कि तुम पहले की तरह ‘न्यूयॉर्क-आई लव यू’ बोलते-बोलते ‘न्यूयॉर्क’ ही चले गये होते। मेरे ‘अमेजिंग स्पाइडरमैन’ तुम्हें वहां से वापस बुला लेना, हम सभी के लिये आसान तो होता, कम से कम।
तुम्हारी यादें हिलोरें लिये जा रही हैं, बाहर झुलसाने वाली धूप खिली है मगर भीतर छांव में भी ये चटकन कैसी है जेहन पर! क्यूं ये उदासी आत्मा तक को झुलसा रही है।
‘स्लमडॉग मिलेनियर’ बन कर उभरे थे गुलाबी ज़मीन से तुम रंगमंच की दुनिया में, दोस्तों ने मजाक में ‘द दार्जिलिंग लिमिटेड’ कंपनी का कॉपीराइट भी ऐंवी झूठ-मूठ का दे दिया।
किसी ने उन हुल्लडबाज़ी की दोपहरियों में भला कहां सोचा था कि एक दिन तुम ‘चिल्लर पार्टी’ के कोकून से निकल कर ‘पुरुष’ बन कर कड़क ‘सलाम बॉम्बे’ कहकर ‘मुम्बई मेरी जान’ बोल दोगे। कहां जानती थी कि ‘द गोल’ था तुम्हारा उस सतरंगी सपनों की दुनिया के उस ‘जजीरे’ पर राज करने का, जो तुमने किया भी सात समुंदर पार तक। अब भी करोगे हमेशा-हमेशा।
रंगमंच की स्पॉटलाइट के नीचे एक प्रिज्म की तरह थे तुम। अनगिनत कला के रंगों की किरणें तुमसे उभरीं और छा गईं दुनियाभर के आसमान पर। तुम्हारे कितने ही रूपों से तो प्यार हो चला था मुझे। ‘बिल्लू’ बनकर तुम सुरमे की तरह आंखों में ही रहते हो, सच्ची बहुत बड़े बहरूपिये थे तुम… खुदाया ख़ैर! लेकिन असलियत में नेक फरिश्तों सी तासीर वाले शख्स रहे हो सदा।
‘लाइफ इन अ मेट्रो’ कैसी सुलगती, भागती, राख होती सी जिंदगी होती है, उसमें तुम चुपके से कानों में कह गये… तू ख्वाब सजा, तू जी ले जरा, कर ले तू भी मोहब्बत! मैं भीगने लगी थी तुम्हारे उस रूप को देखकर, हो ही गई थी तुमसे मोहब्बत।
‘बड़ा दिन’ था जब दिल तुम्हारे नाम पे धड़का था और मेरे ‘मुझसे दोस्ती करोगे’ कहने पर तुमने ‘मकबूल’ कर लिया था। और वो ‘अपना आसमान’ सोसाइटी वाला वो फ्लैट उस ‘संड़े’ को ढ़ेरों ‘चॉकलेट’ से भर गया था। हम चारों दोस्तों की चौकड़ी ‘क्रेजी फोर’ ने ‘गुंडे’ बनकर कितना ‘चरस’ बोया था! वो पूरी सोसायटी से लड़ने-झगड़ने वाले फ्लैट नंबर 11 के ‘साहब, बीबी और गेंगस्टर रिटर्न्स’ को क्या सॉलिड तरीके से ‘नॉक आउट’ किया था तुमने ‘धुंध’ में ‘चेहरा’ बदलकर, ‘घात’ लगाकर! हम सब बैठे थे ‘फुटपाथ’ पर जब वो निकले थे वहां से, तब समझा दिया था उन्हें ‘हाथी का अंड़ा’ का फार्मूला! कोई ‘गुनाह’ थोड़े ना किया था बस पोल खोल प्रोग्राम की धमकी देकर ‘ब्लैकमेल’ भर ही तो किया था, यहां तक कि सुधरने के लिये उनको ‘डेडलाइन सिर्फ चौबीस घंटे’ की ही तो दी थी। एट दि एंड ऑफ द डे ‘माइटी हार्ट’ को भला सोसाइटी के लोगों का वो सुकून कैसे ना ‘हासिल’ होता!
तुमसे दोस्ती कोई ‘प्रथा’ तो नहीं थी, जो जरूरी होती और ना ही ये कोई ‘कसूर’ होता मेरा लेकिन ‘ये साली जिंदगी और दृष्टि’ दोनों ही बहुत बुरी चालाक निकलीं, ‘रोग’ लगा दिया मोहब्बत का…जिसके घेरे में आ जाना मतलब ‘करीब-करीब सिंगल’ होते -होते भी ‘साढ़े सात फेरे’ लग ही जाना।
तुमसे प्यार हो जाना ‘राइट या रांग’ से बहुत आगे की बात थी। मैं ही क्या तुम जैसी शख्सियत से मोहब्बत पूरी दुनिया ही कर बैठी। तुम एक नहीं, दो नहीं अनगिनत जिंदगानियों का वो अबोला ‘किस्सा’ हो, जो किसी ‘पज़ल’ की तरह कभी ‘हिंदी मीडियम’ तो कभी ‘अंग्रेजी मीडियम’ की…’द फिल्म’ सा चलना शुरू होता है, तो तुम पर इश़्क की दावेदारी के लिये ‘पार्टीशन’ खिंच जाते हैं। ये पैनी-पैनी ‘तलवार’ निकल आती हैं म्यान से बाहर! मोहब्बत और खुलूस ऐसे उमड़ते हैं कि…’जज्बा’ सैलाब बन कर ‘एसिड फैक्ट्री’ में तब्दील हो जाता है।
तुम चले तो अकेले थे गुलाबी नगरी से निकल कर…लेकिन देखो ‘कारवां’ तुम्हारे पीछे चल निकला।
मुझे आज भी याद है, उस रोज़ वो क्या बोलते हैं उसे … अम्म् हां ‘डी-डे’ पर हम सब के संग तुम ‘पिता’ का ‘करामाती कोट’ पहनकर जब ‘रोड टू लद्दाख’ से होते हुये जा रहे थे तो वहीं ‘द बाइपास’ पर ‘सुतापा’ का दिया ‘लंचबॉक्स’ लेकर खाने बैठे और हम सबको ‘द जंगल बुक’ का वो गीत सुनाने लगे पैरोडी बनाकर…’जंगल-जंगल बात चली है पता चला है, ‘हिस्स्स्’ करते-करते कोई ‘पीकू’ निकला है।’
कितना हँसे थे हम सब तुम्हारी पैरोडी पे, हँसाते-हँसाते आँसू भर गये तुम तो!
वो लंच आज भी याद है मुझे..इतना लज़ीज था कि गर सामने रहती तुम्हारी सुतापा तो उनके हाथ चूम लेते हम सब। तुम्हारी असली मोहब्बत को ढ़ेर सा ‘थैंक यू’ पहुंचे।
‘शैडो ऑफ टाइम’ भी क्या शै है ना! तुमको ‘मंटो’ के संग बिठाकर ‘काली सलवार’ की स्क्रिप्ट तक पढ़वा दी। तुम ना-ना करने का ढ़ोंग करते हुये ये भी बोल रहे थे मंटो से कि ‘बनेगी अपनी बात’! ठहाके लगा के हँसे थे मंटो और बोले… इरफ़ान तेरे तो ‘सात खून माफ’। तुम तो एक दिन आसमान का ‘चमकू’ सितारा बनोगे।
तब समझी ही नहीं कि वो क्या दर्द दे गये थे कि दवा दे गये थे… उस वक्त तो ‘दिल कबड्डी’ करने लगा था, मंटो से तुम्हारी तारीफ सुनकर।
‘कमला की मौत’ हुई तब तुम बहुत अपसेट थे। बड़बड़ाते रहते कि ‘यूं होता तो क्या होता’ या वैसा होता, ऐसा होता…जाने क्या-क्या तो भी!
बड़ी मुश्किल से उबरे थे, जब ‘हैदर’ आया था तब।
मुझे याद है पर्दे पर तुम्हारे ‘बोक्शू द मिथ’ के औघड़ साधू ने ‘हासिल’ से कहीं ज्यादा ‘द किलर’ वाला रोल निभाया था।
मेरा मानना है कि कलाकार अपने चाहने वालों के दिल पर अपना कब्जा करके वसीयत लिखवा लेता है। तुमने तो करोडों दिलों की जमीन का पट्टा लिखवाया है अपने नाम तब भी फ़ौजदारी का मुकदमा ना चलेगा तुम पर।
तुम कहते थे ‘हैदर’ से कि ‘मैं हूं ,मैं ही रहूंगा’।
हां तो …रहोगे ही, रहोगे। ऐसे कैसे चले जाओगे!
जानते हो! तुम ना… देश की, रंगमच की, इंडस्ट्री की ‘आन’ हो, हर हथेली पर रखी ‘तुलसी’ पत्र हो,जिसे हम अदब से माथे लगा लेते हैं, पूजा के बाद।
तुम दिलों के डॉक्टर थे और आज ‘एक डॉक्टर की मौत’ हुई है लेकिन वो भी तुम्हें ले जाकर दु:खी हुई होगी, तुम्हारे चाहने वालों की आह से कराही तो होगी वो भी!
शिकायत है मुझे उस नीली छतरी पर बैठे ‘मदारी’ से, बहुत दर्द और रोष है कि तुम्हारे प्रोमो वीडियो के बाद तुमसे वापस मिलने की वो उम्मीद की रौशनी क्यूं छीन ली आज उसने?
तुम्हारी याद की बिजली जब कड़कड़ाती है तो मन आज रमता ही नहीं कहीं भी नियत दिनचर्या में, तुम उमड़ते-घुमड़ते रहते हो घटा बनकर आंखों में। कभी रुई से अटे बादलों का नर्म फाहा बन कर दिल के दर्द पर बिछ जाते हो तुम …दद्दा ‘पानसिंह तोमर’ बन के, तुमको ऐसे भजने थोड़े ही देंगे। ना तुम भज ही पाओगे हमें ऐसे छोड़कर।
तुमने भले ही भैंसे पे बैठी कोई आकृति देखी हो पर इतने करोड़ों दिलों में तुम्हारा अंश बसा है, उसे कोई कहीं छीनकर नहीं ले जा सकता, साक्षात यमराज भी नहीं।
असल में ‘मदारी’ तो तुम निकले… कैसे डुगडुगी बजाकर हम सबकी हँसी छीन ले गये, उदासी की गुलाटियां दे गये और सचमुच एक ‘पजल’ जैसी थमा गये हमारे हाथों में! जिसे सुलझाना मतलब थोड़ा और तुम में ही उलझ जाना है।
तुम्हें रू-ब-रू ना देख पाने की टीस अब मरते दम तक फांस बन चुभती रहेगी। लेकिन भरोसा है कि तुम ‘दूब’ बनकर हर पल यादों की बगिया में हरियाते रहोगे, ओस की बूदों को सहेजे, नमी बनाये रखोगे आजीवन, जहां-तहां।
पुण्यतिथि पर विदा नहीं कहूंगी, बस यही कि
बस इतनी इजाजत दे कदमों पे जबीं रख दूं
फिर सर ना उठे मेरा ये जां भी वहीं रख दूं।