किसे बचाने के लिए चार साल छिपाए रखी रिपोर्ट?

जे.पी.सिंह, वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के विशेषज्ञ

हेमा कमेटी की रिपोर्ट ने मलयालम फिल्म का वो काला सच या स्याह चेहरा उजागर किया है, जिसके बाद हिंदी और दूसरी फिल्म इंडस्ट्री में भी कोहराम मचा हुआ है। जहां एक और महिलाओं की सुरक्षा को लेकर चिंता पैदा हो गई है वहीं मी टू के इस दौर में एक बार फिर वे किरदार सहम गए हैं जो काम के बदले सेक्स में विश्वास करते हैं। इस रिपोर्ट ने फिल्म इंडस्ट्री के उस स्याह चेहरे को उजागर किया है, जिसकी चर्चा किसी न किसी रूप में हमेशा ही होती रही है। महिला कलाकारों ने काम के बदले सेक्स डिमांड, कास्टिंग काउच, कॉम्प्रोमाइज जैसे ऐसे गंदे सच को सामने लाकर रख दिया है, जो इस इंडस्ट्री में उनको झेलना पड़ रहा है। हेमा कमेटी का कहना है कि पूरा मलयालम सिनेमा मलयालम फिल्म माफिया पावर ग्रुप की गिरफ्त में है जिसके इशारे के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता।

फिल्म इंडस्टी, वो जगह जहां काम करने का सपना ज्यातादर युवतियां देखती हैं। लेकिन चमक-दमक से भरी इस इंडस्ट्री पर अक्सर कई तरह के आरोप लगते रहे हैं। चाहे वह कास्टिंग काउच हो, नेपोटिज्म हो या फिर अनैतिक डिमांड। कॉम्प्रोमाइज की डिमांड वाले आरोप कई कलाकार समय-समय पर लगाते रहे हैं। ये बातें जितनी तेजी से उठती हैं, उतनी ही तेजी से दब भी जाती हैं। लेकिन इन दिनों जस्टिस हेमा कमेटी की रिपोर्ट ने मलयालम फिल्म इंडस्ट्री के स्याह सच को उजागर कर दिया है। रिपोर्ट सामने आने के बाद से सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक बवाल मचा हुआ है।

वर्ष 2017 में जस्टिस हेमा कमेटी का गठन किया गया था, जब वुमेन इन सिनेमा कलेक्टिव (डब्ल्यूसीसी) ने मुख्यमंत्री पिनराई विजयन को एक ज्ञापन देते हुए फि‍ल्म उद्योग में काम के हालात पर अध्ययन करने की मांग की थी। यह ज्ञापन उस घटना के बाद दिया गया था जब एक प्रतिष्ठित अभिनेत्री का उनकी ही कार में कुछ पुरुषों ने यौन उत्पीड़न किया था। इस मामले में इंडस्ट्री के एक बड़े एक्टर का नाम भी आया जिससे पूरे केरल में हाहाकार मच गया।

इस कमेटी में वयोवृद्ध अभिनेत्री टी. शारदा और केरल की प्रिंसिपल सेक्रेटरी रह चुकीं केबी वाल्सालाकुमारी को शामिल किया गया था। वर्ष 2017 में बनी डब्ल्यूसीसी जागरूकता और नीतियों में बदलाव के मार्फत सिनेमा में महिलाओें की लैंगिक समानता के लिए काम करती है। इसमें वो महिलाएं सदस्य हैं, जो मलयालम उद्योग में काम करती हैं। कमेटी के सदस्यों को लगता है कि उनकी चिंताएं आखिरकार सही साबित हुईं और उन्होंने सरकार से कार्रवाई की मांग की है।

जस्टिस के. हेमा की अगुवाई वाली कमेटी की रिपोर्ट जमा किए जाने के साढ़े चार साल बाद केरल सरकार ने इसे जारी किया है। 290 पन्नों की इस रिपोर्ट के 44 पन्ने गायब हैं क्योंकि इन पन्नों में महिलाओं ने अपने साथ शोषण और उत्पीड़न करने वाले पुरुषों के नाम बताए थे। रिपोर्ट से हटाए गए दूसरे हिस्से के ठीक बाद यौन उत्पीड़न की शिकार एक महिला का ज़िक्र है, जिन्हें उस शख्‍स के साथ पति और पत्नी के तौर पर भूमिका निभानी पड़ी और गले लगाना पड़ा जिसने एक दिन पहले ही उनका यौन उत्पीड़न किया था।

रिपोर्ट में कहा गया है, “यह बहुत भयानक था। शूटिंग के दौरान महिला के साथ जो कुछ हुआ था, उसकी वजह से उनके चेहरे पर गुस्सा और नफरत साफ़ झलक रही थी। सिर्फ़ एक शॉट के लिए 17 रीटेक लेने पड़े थे। इसके लिए डायरेक्टर ने महिला की आलोचना की।”

राज्य सरकार ने यह रिपोर्ट सार्वजनिक करने में चार साल से ज्यादा का समय लिया। इस कारण उसे कई दिशाओं से आलोचना का सामना भी करना पड़ा। कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने रिपोर्ट रिलीज होने के बाद कहा, “यह बेहद शर्मनाक और चौंकाने वाली बात है कि सरकार करीब पांच साल तक इस रिपोर्ट पर बैठी रही।” विधानसभा में विपक्ष के नेता और कांग्रेस विधायक वीडी सतीशन ने भी रिपोर्ट जारी करने में हुई देरी के लिए राज्य सरकार की आलोचना करते हुए कहा कि वह फिल्म इंडस्ट्री के मजबूत लोगों को बचाना चाहती है।

दूसरी ओर, केरल सरकार का कहना है कि रिपोर्ट में मौजूद संवेदनशील जानकारी के कारण इसे सार्वजनिक करने में समय लगा। मुख्यमंत्री पिनरई विजयन ने रिपोर्ट जारी होने के एक दिन बाद कहा, “जस्टिस हेमा ने सरकार को 19 फरवरी 2020 में लिखे गए एक पत्र में कहा था कि रिपोर्ट को इसमें मौजूद सार्वजनिक जानकारी के कारण रिलीज न किया जाए।”

जनवरी 2022 में केरल सरकार ने हेमा कमीशन की सिफारिशों को लागू करने की योजना बनाने के लिए एक पैनल का गठन किया। इस पैनल ने मई 2022 में सिफारिशों का एक ड्राफ्ट तैयार कर भी दिया। लेकिन इसके बाद पांच आरटीआई एक्टिविस्ट और मीडिया कर्मी केरल राज्य के सूचना आयोग के पास पहुंचे। दो साल के इंतजार के बाद छह जुलाई 2024 को सूचना आयोग ने इनके पक्ष में फैसला सुनाया।

अब राज्य सरकार के लिए रिपोर्ट जारी करना अनिवार्य हो गया। सो 14 अगस्त को रिपोर्ट की रिलीज से पहले इससे 60 पन्ने हटाए गए। फिल्म प्रोड्यूसर साजी पराइल और अभिनेत्री रंजिनी ने अपनी निजता का हवाला देते हुए हाई कोर्ट में इसकी रिलीज का विरोध भी किया लेकिन दोनों की याचिकाएं रद्द हो गईं। आखिरकार रिपोर्ट 19 अगस्त को जनता के सामने आई।

जस्टिस हेमा कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि मलयालम फिल्म इंडस्ट्री में यौन शोषण की एक संस्कृति हावी है। कास्टिंग काउच (जहां शक्तिशाली मर्द फिल्मों में काम देने के बदले महिलाओं से यौन संबंधों की मांग करते हैं) का चलन आम है। पुरुष कलाकार महिलाओं के लिए अभद्र भाषा का प्रयोग करते हैं और कई बार शराब पीकर जबरन उनके कमरों में भी घुस जाते हैं। रिपोर्ट में बताया गया कि प्रतिशोध के डर के कारण महिलाएं यौन उत्पीड़न की रिपोर्ट दर्ज कराने से बचती हैं। जस्टिस हेमा रिपोर्ट में लिखती हैं, “कमेटी ने जिन लोगों से पूछताछ की गई उनमें से कई उन चीजों को उजागर करने से डरते थे जो उन्होंने अनुभव की थीं। हमें एहसास हुआ कि उनका डर सही है।”

रिपोर्ट में साइबर उत्पीड़न के डर का भी जिक्र किया गया है। आवाज उठाने वाली महिलाओं के सामने जहरीले फैन क्लब्स का भी खतरा था। अगर कोई महिला इंडस्ट्री के हालात पर सवाल उठाती इन फैन क्लब्स का इस्तेमाल शांत रखने के लिए किया जाता था। रिपोर्ट में लिखा गया कि पुरुष कलाकारों और निर्माताओं का एक ‘माफिया’ इंडस्ट्री के सारे फैसले लेता है। कोई भी उनके खिलाफ आवाज उठाने की जुर्रत नहीं करता।

साथ ही इंडस्ट्री में महिलाओं को मूलभूत सुविधाएं भी नहीं मिलतीं। कई फिल्मों के सेट्स पर न ही टॉयलेट होता है न ही चेंजिंग रूम। रिपोर्ट में लिखा है कि कई बार महिलाओं को या तो पुरुषों के टॉयलेट इस्तेमाल करने पड़ते हैं या खुले में शौच करना पड़ता है।

महिलाओं के साथ व्यवस्थित यौन शोषण सहित रिपोर्ट के खुलासे नए नहीं हैं और हमेशा से ही अफवाहों के रूप में माहौल में रहे हैं, लेकिन रिपोर्ट ने एक काम किया है कि महिलाओं द्वारा बताए गए ऐसे अनुभवों को वैध बनाया है और सबसे बढ़कर, जवाबदेही की मांग की है।

जस्टिस के. हेमा समिति की 19 अगस्त को जारी रिपोर्ट के अनुसार, मलयालम सिनेमा में शीर्ष पर बैठे 10-15 लोगों का एक “सर्वथा पुरुष”, शक्तिशाली और विशेषाधिकार प्राप्त समूह उद्योग को नियंत्रित करता है, अभिनेताओं पर प्रतिबंध लगाता है और जब महिलाएं उत्पीड़न की शिकायत लेकर उनके पास आती हैं तो वे कथित तौर पर आंखें मूंद लेते हैं।

अधिकाधिक महिलाओं द्वारा अभिनेताओं और उद्योग जगत के नेताओं पर यौन दुराचार का आरोप लगाए जाने के साथ, उद्योग जगत में यह ‘शक्तिशाली समूह’, जिस पर रिपोर्ट में विस्तार से चर्चा की गई है, चर्चा का मुख्य विषय बन गया है। हालांकि, इस बात के कोई संकेत नहीं हैं कि ये ‘शक्तिशाली’ पुरुष कौन हैं, क्योंकि उच्च न्यायालय ने रिपोर्ट के केवल एक संपादित संस्करण को जारी करने की अनुमति दी है – जिसमें आरोपी या शिकायतकर्ताओं के नाम नहीं हैं।

समिति ने अपनी रिपोर्ट में कम से कम 70 बार ‘शक्ति’ और ‘शक्ति समूह’ का उल्लेख किया है, जिसमें विस्तार से बताया गया है कि किस तरह से महिलाएं और पुरुष “शक्तिशाली लॉबी के क्रोध का शिकार हो रहे हैं जो… उद्योग पर शासन करती है।” रिपोर्ट में उद्धृत एक प्रमुख अभिनेता ने लॉबी को ‘माफिया’ के रूप में वर्णित किया है जो उम्मीद करता है कि हर कोई उनकी आज्ञा का पालन करेगा, ऐसा न करने पर वे उद्योग से प्रतिबंध या स्थायी निष्कासन के आदेश जारी करते हैं, बिना कोई कारण बताए।

रिपोर्ट में कहा गया है, “यदि सत्ताधारी समूह का कोई सदस्य व्यक्तिगत पूर्वाग्रह के कारण भी सिनेमा में किसी व्यक्ति से खुश नहीं होता है, तो सत्ताधारी समूह के सभी सदस्य हाथ मिला लेते हैं और ऐसे व्यक्ति को सिनेमा में काम करने से रोक दिया जाता है।” साथ ही, इसमें यह भी कहा गया है कि संबंधित व्यक्तियों को कोई नोटिस नहीं दिया जाता है।

प्रतिबंध के बारे में कभी भी सार्वजनिक रूप से बात नहीं की जाती है, लेकिन यह बात कि कोई विशेष अभिनेता ‘उपद्रवी’ है और इसलिए अवांछित व्यक्ति है, एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक फैल जाती है जब तक कि यह आधिकारिक नहीं हो जाता। रिपोर्ट में लिखा है, “प्रतिबंध को साबित करने के लिए कोई सबूत उपलब्ध नहीं होगा, लेकिन जिस व्यक्ति पर प्रतिबंध लगाया गया है, उसे प्रतिबंध के बारे में पता चल जाएगा।”

रिपोर्ट में कहा गया है कि महिला कलाकारों के मामले में प्रतिबंध लागू करने के लिए आमतौर पर इस्तेमाल की जाने वाली लाइन यह होती है कि ‘वह एक ‘मी टू’ व्यक्ति हैं’। मी टू एक वैश्विक आंदोलन का संदर्भ है, जिसमें महिलाओं ने हिंसक पुरुषों के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए थे।

कुछ मामलों में, फिल्म निकाय निर्माताओं को ‘प्रतिबंधित’ कलाकार को कास्ट न करने के लिए मजबूर करते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है, ” केरल में फिल्म चैंबर ऑफ कॉमर्स है जो ‘अनापत्ति प्रमाण पत्र’ जारी करता है और उनके लिए किसी फिल्म की रिलीज को रोकना बहुत आसान होगा। इसलिए, जिस निर्माता को सत्ता समूह द्वारा किसी विशेष अभिनेता को कास्ट न करने की चेतावनी दी जाती है, वह किसी अन्य अभिनेता को कास्ट करके अपनी फिल्म का निर्माण करना पसंद करेगा और कोई जोखिम नहीं उठाएगा।”

रिपोर्ट में कहा गया है कि सत्ता की गतिशीलता को देखते हुए, कोई भी आंतरिक शिकायत समिति (आईसीसी) – जो कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न [रोकथाम, निषेध और निवारण] अधिनियम के तहत अधिकृत है – अप्रभावी होगी। इसके बजाय, समिति फिल्म उद्योग में यौन उत्पीड़न और दुर्व्यवहार के मामलों का निपटारा करने के लिए ट्रिब्यूनल जैसे एक स्वतंत्र निकाय की सिफारिश करती है।

1991 में केरल पहला भारतीय राज्य बना जिसे पूर्ण साक्षर राज्य का दर्जा मिला। इस उपलब्धि का एक बड़ा कारण 1957 में समाज सुधारकों और तत्कालीन वामपंथी सरकार द्वारा शुरू की गई सांस्कृतिक क्रांति है। दशकों बाद, राज्य उसी मोड़ पर है।
हेमा कमेटी की रिपोर्ट ने उजागर कर दिया है कि पूर्ण साक्षर राज्य केरल फिल्म इंडस्ट्री के क्षेत्र में पूरी तरह पितृसत्तात्मक व्यवस्था के चंगुल में है। सभी नहीं बल्कि कई पितृसत्तात्मक समूह और संस्कृतियां इस राय पर आधारित हैं कि पारंपरिक रूप से महिलाओं को शारीरिक रूप से कमजोर और/या कम बुद्धिमान माना जाता है। ऐसी उपसंस्कृतियों में, महिलाओं से परिवार के भीतर पुरुषों के साथ-साथ परिवार के बाहर के पुरुषों के अधीन रहने की अपेक्षा की जाती है।

पितृसत्ता एक सामाजिक संरचना है जहां पुरुष मुख्य रूप से सत्ता का प्रयोग करते हैं, और यह सदियों से अस्तित्व में है, जो कृषि क्रांति से शुरू हुआ। खानाबदोश शिकारी-संग्राहक समाजों से बसे हुए कृषि समुदायों में बदलाव ने पितृसत्तात्मक व्यवस्था की शुरुआत को चिह्नित किया।पितृसत्ता एक सामाजिक व्यवस्था है जिसने ऐतिहासिक रूप से राजनीति, अर्थशास्त्र और संस्कृति सहित समाज के विभिन्न पहलुओं में पुरुषों को प्राथमिक शक्ति और विशेषाधिकार प्रदान किया है।पतृसत्ता का प्रभाव आधुनिक जीवन के कई पहलुओं तक फैला हुआ है, जो लिंगों के बीच शिक्षा, रोजगार के अवसरों और आय में असमानताओं में योगदान देता है। यह लिंग आधारित हिंसा को सामान्य बनाने और महिलाओं के प्रजनन अधिकारों पर नियंत्रण में भी भूमिका निभाता है ।

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