चैतन्य नागर, स्वतंत्र पत्रकार
फोटो: गिरीश शर्मा
अक्सर सोशल मीडिया पर दौड़ते-भागते एथलीट-अभिनेता मिलिंद सोमन की तस्वीर दिखती है। मिलिंद देश के फिटनेस आइकॉन में एक हैं और सत्तावन की उम्र में किसी युवक जैसी देह रखते हैं। हॉलीवुड अभिनेता टॉम क्रूज साठ साल के हो चुके हैं और अभी उतने ही फिट लगते हैं जितने कि अपनी पुरानी फिल्म ‘टॉप गन’ या ‘मिशन इम्पॉसिबल’ में लगते थे। दौलत, शोहरत और सेहत का संतुलन सभी कायम नहीं रख पाते। भारत में शेयर बाजार के शेर कहे जाने वाले राकेश झुनझुनवाला अरबों कमाने के बाद भी सेहत से इतने परेशान थे कि देश के सबसे प्रमुख नेता का कुर्सी से उठ कर अभिवादन भी नहीं कर पाते थे। डायबिटिक फुट और खराब किडनियों के कारण चलना भी मुश्किल था और अपनी मृत्यु के समय उनकी ज्यादा उम्र भी नहीं थी। अर्थ, काम, धर्म मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों की अपनी-अपनी भूमिका है जीवन में। इनके बीच ठीक ठाक मेल बैठ सके यह कठिन साधना की मांग करता है। बहुत कम लोग हैं जो संतुलित तरीके से जी पाते हैं। जिनके पास जरूरत के हिसाब से अधिक धन भी हो, सेहत भी हो और सुकून भी।
कुछ महीनों पहले रतन टाटा ने एक स्टार्ट अप में निवेश किया है जो ऐसे वृद्ध लोगों की देखभाल करेगा, उनका साथ देगा जो बुढ़ापे में अकेले हो गए हैं। रतन टाटा ने बड़ी मार्मिक बात कही कि जो अकेला नहीं वह नहीं समझ सकता कि अकेलापन होता क्या है। अस्सी पार टाटा अभी तक कुंवारे हैं और उनके पास भी असीमित धन दौलत है। इतने संपन्न शख्स से अंदरुनी गरीबी की बात सुन कर कई लोगों को ताज्जुब हो सकता है, अमीरी और समृद्धि एक ही चीज़ नहीं। बहुत ही अमीर व्यक्ति कई आतंरिक क्लेशों से पीड़ित रह सकता है। हो सकता है उसका कोई साथी न हो। हॉलीवुड की उम्दा अभिनेत्रियों में से एक ग्रेटा गार्बो ने अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर अचानक एक दिन अकेले रहने का फैसला कर लिया। ताउम्र मीडिया और फिल्म की दुनिया से अलग रहीं और मरने के समय उनके परिवार में कोई नहीं था।
अमीरी के कई सकारात्मक पहलू हैं। पर आम तौर पर अमीर उतने सृजनात्मक नहीं होते और सृजनशील लोगों को पैसों की तंगी बनी रहती है। जीवन की बुनियादी जरूरतें पूरी करने के अलावा धन हमें जीवन के अन्य लक्ष्य प्राप्त करने में मदद तो करता है। परिवार के लोगों की शिक्षा, इलाज, यात्रा वगैरह की जरूरतें भी पूरी करता है। पैसा हमें ज्यादा स्वतंत्र भी बनाता है; हमारी प्रतिभा को खिलने का अवसर देता है। इसकी मदद से हम दुनिया की कई खूबसूरत जगहों पर जा सकते हैं, पर उनका आनंद लेने के लिए जिस फुर्सत और जिज्ञासु मन की दरकार है, वह शायद पैसा छीन लेता है। धन की अपनी अगिनत सीमायें हैं।
धन दूसरों के जीवन में सार्थक बदलाव लाने की ताकत देता है, पर धनी लोग अक्सर कृपण भी हो जाया करते हैं। उनके धन का उपयोग उनकी मृत्यु के बाद अक्सर वे करते हैं जिनको वे जानते तक नहीं थे। ‘सूम का धन शैतान खाए’ मुहावरा शायद इसी स्थिति में जन्मा होगा। धन स्वाभाविक रूप से इंसान को दरियादिल नहीं बनाता। यह रिश्ते बनाने का समय और अवसर दे सकता है, पर उन्हें बनाये रखने की स्पेस, इसके लिए आवश्यक समानुभूति और स्नेह नहीं खरीद सकता। अक्सर धन और उससे जुडी भागम-भाग लोगों को क्लांत, पलायनवादी, आत्मकेंद्रित और एकाकी बना डालता है।
धन से संपन्न और भीतर से विपन्न लोगों की कहानियां अक्सर हम इधर-उधर पढ़ते सुनते रहे हैं। एमहर्स्ट कॉलेज के मनोविज्ञान की प्रोफेसर कैथरीन सैंडरसन कहती हैं:
“हम हमेशा सोचते हैं कि यदि थोडा अधिक धन होता, तो हम अधिक खुश होते, पर जब हमें वह धन मिल जाता है तो हम सुखी नहीं होते।
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डैन गिल्बर्ट की किताब ‘स्टमब्लिंग ऑन हैप्पीनेस’ काफी मशहूर है। उनका कहना है कि “एक बार हमारी बुनियादी जरूरतें पूरी हो जाएं तो बहुत अधिक धन हमें बहुत ज्यादा खुश नहीं करता।”
महंगी चीज़ों से शुरुआत में तो हम उत्तेजना का अनुभव करते हैं, पर जल्दी ही उनकी आदत पड़ जाती है। इसके बाद खोज होती है, अधिक महंगी चीज़ों की, और अधिक उत्तेजना की। धन का प्राचुर्य मन को एक मायाजाल में फंसा देता है। यह गहरी प्रज्ञा को जन्म नहीं देता। यह हमारे भीतर कामना, तृष्णा की प्रकृति को समझने की ललक पैदा नहीं करता; काम्य वस्तुओं के जाल में फंसा देता है। इच्छाओं की ट्रेडमिल पर बस हम हाँफते-भागते चले जाएँ, और अचानक हृदयाघात के शिकार होकर गिर पड़ें, शायद धन का देवता इसी ‘मनोरंजक क्षण’ की प्रतीक्षा में रहता है! अर्थशास्त्री इसे ‘हेडोनिक ट्रेडमिल’ कहते हैं।
समस्या धन से अधिक हमारे भीतर कहीं है। जैसा कि ऊपर कहा गया है, शास्त्रों में जीवन के चार पुरुषार्थ चिन्हित किये गए हैं: अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष| इनमे अर्थ या धन सबसे निचली सीढ़ी पर आता है। शायद जीवन की कला इन चारों पुरुषार्थों के बीच संतुलन और समन्वयन में ही है। शेली अपनी एक मशहूर कविता में कहते हैं: ‘जो नहीं होता हम उसके लिए ही तड़पते हैं।’ अमीर सेहत के लिए, सेहतमंद लोग धन के लिए और गरीब बुनियादी जरूरतों के लिए बेचैन रहता है। आवश्यकताओं का भी एक अधिक्रम होता है। एक के बाद दूसरी, फिर तीसरी। एक अंतहीन सफर है कामनाओं का।
कितने पैसे जरूरी हैं, यह सवाल तो बना रहेगा पर पैसे के लिए हम कितनी कीमत चुका रहे हैं, यह भी एक बड़ा सवाल है। ऐसा न हो कि धन के लिए अपना जमीर, अपनी आत्मा, अपना दिलो दिमाग गिरवी रख देना पड़े। संतुलित मानसिक अवस्था ही सबसे बड़ा धन है। जीवन में किसी भी एक वस्तु के लिए अपना सब कुछ स्वाहा न कर देने वाली प्रज्ञा जिनके पास है, शायद वही धनी है और समृद्ध भी। राल्फ वाल्डो इमर्सन की एक बात याद आ रही है: ‘जो भी हो, धन के लिए कीमत बहुत चुकानी पड़ती है।’
स्टीव जॉब्स ने अपनी मौत से पहले एक लेख लिखा था और उनकी जीवन शैली को देखते हुए इस पर यकीन भी हो जाता है। उन्होंने लिखा है: ‘कारोबार की दुनिया में मैं शिखर पर पहुंचा, पर जीवन में काम के अलावा मेरे पास कोई सुख नहीं। मेरी संपत्ति बस एक तथ्य है मेरे जीवन का जिसका मैं आदी हो चुका हूँ। इस पल में, अपने बिस्तर पर पड़ा हुआ मैं इस बात को समझ रहा हूँ कि मेरी शोहरत और संपत्ति जिन्हें लेकर मुझे इतना गर्व था, सब कुछ धुंधला हो चुका है; मौत के सामने सब कुछ निरर्थक हो गया है।”
कोई देह से त्रस्त है और कोई गरीबी से। जैसा कबीर ने कहा, कबिरा सब जग निर्धना, धनवंता न कोय…
शश्वत सत्य का दिग्दर्शन