
- आशीष दशोत्तर
साहित्यकार एवं स्तंभकार
फोटो: गिरीश शर्मा
न पाने की तड़प और पाने की जद्दोजहद
हम तरसते ही, तरसते ही, तरसते ही रहे
वो फलाने से, फलाने से, फलाने से मिले।
अपनी शाइरी के ज़रिए लोकप्रियता की बुलंदियां छूने वाले, प्रगतिशील विचारधारा से प्रभावित, क़लंदर-मिज़ाज शाइर कैफ़ भोपाली का यह शेर सादा ज़ुबानी की मिसाल है। इतने सलीस लहजे में अपनी बात कही जा सकती है, इसका यह सबूत है। यह शेर दिखने में बहुत आसान है मगर इस शेर के भीतर से गुज़रें तो कई सम्तों में यह हमें ले जाता है। लफ़्ज़ी मआनी पर ग़ौर करें तो इश्किया ज़ुबान में इससे आशिकी के एक अंदाज़ को समझा जा सकता है। हम जिसे चाहते हैं वह सभी से मिल रहा है बस हमें ही नहीं मिल रहा है। यह इस शेर के सीधे-सीधे मआनी हैं जो किसी भी आशिक के लिए बहुत ख़ास हो सकते हैं।
अब शेर के भीतर उतरें तो हमें इसके कई अक़्स नज़र आते हैं। तसव्वुफ़ के नज़रिए से यह बहुत बड़ा शेर है। शाइर यहां आशिक और माशूक के बीच के रिश्तों को बता रहा है। आशिक अपने माशूक को पाने के लिए बहुत कुछ कर गुज़रता है लेकिन माशूक है कि उसके क़रीब नहीं आता। उस पर ज़ुल्म यह कि दीगर लोगों से वह मिल रहा है, एक बस उसे छोड़कर। वह अपने माशूक को उलाहना दे रहा है और यह सोच रहा है कि आख़िर मेरी आशिक़ी में क्या कमी रह गई, जो मेरा माशूक मेरे करीब नहीं आ रहा है और दूसरों के क़रीब जा रहा है। इश्क के इस अजीब से रिश्ते की बहुत गहरी बयानी यहां दिखाई देती है। एक तरफ़ अपने माशूक को पाने की चाह में तड़पता और तरसता हुआ दिल है और दूसरी तरफ माशूक का सितम। यहां स्पष्ट होता है कि आशिक की आशिक़ी में कहीं न कहीं कमी है जो उसका माशूक उसके क़रीब नहीं आ रहा है। माशूक है ज़रूर, इस बात की गवाही देने के लिए वह दूसरों से मिल रहा है। दूसरों से मुख़ातिब है। दूसरों के जज़्बात समझ रहा है। एक सिर्फ़ इस आशिक के ही नहीं समझ रहा। शाइर कह रहा है कि आशिक और माशूक के बीच का रिश्ता सिर्फ लेन-देन का रिश्ता नहीं होता। वह इतना गहरा होता है कि उसमें कुछ पाने की चाह नहीं रहती। यहां अगर आशिक अपने माशूक को न पा कर निराश हो रहा है तो उसकी आशिक़ी में कहीं न कहीं स्वार्थ की बू आ रही है।
शाइर कहता है कि माशूक तो आशिक के भीतर ही है, जबकि आशिक उसे दूसरे लोगों से मिलते हुए देखकर तरस रहा है। यह जीवन दर्शन से जुड़ा शेर है। जो हमारे भीतर होता है उसे हम देख नहीं पाते और जो सामने दिखता है उसे सही समझ कर ज़िन्दगी भर तड़पते रहते हैं। शाइर का प्रगतिशील दृष्टिकोण इसे सामाजिक असमानता की स्थिति से भी जोड़ रहा है। समाज में सदा से दो वर्ग रहे हैं। एक वह जिसके पास सभी सुविधाएं हैं, जिसका पूंजी पर नियंत्रण है, यह संपन्न वर्ग है। इसके सामने दूसरा वर्ग है जिसके पास अपना कुछ भी नहीं। विषमता की यह खाई इस शेर के ज़रिये बखूबी अभिव्यक्त होती है। एक वर्ग है जो सदियों से तरस रहा है, सुख सुविधाओं के लिए, अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए, अपनी ज़रूरतों के लिए मगर आज तक उसे कुछ भी नसीब नहीं हो पाया। वह विपन्न है। दूसरा वर्ग जिसका समस्त संसाधनों पर नियंत्रण है। वह विपन्न वर्ग की ओर देख ही नहीं रहा है। वह अपने लोगों से मिल रहा है, उनसे बात कर रहा है और उनसे मिलकर यह समझ रहा है कि सब उनके जैसे ही हैं। वह तरसते लोगों की तरफ़ निगाह नहीं डाल रहा है।
यह सामाजिक विषमता को न देखने का एकवर्गीय दृष्टिकोण भी है। समाज में अधिकांश पूंजी नियंत्रक कुछ इसी तरह से अपना दान धर्म, अपनी समाज सेवा करते हैं, जो ज़रूरतमंदों तक नहीं पहुंचती है। अपनों ही अपनों के बीच बांट दी जाती है। ज़रूरतमंद हमेशा तरसता रह जाता है और ख़ैरात बांटने वाले ख़ैरात उन लोगों तक पहुंचा देते हैं जिन्हें इसकी ज़रूरत नहीं। यह फलाने, फलाने लोग इस पूंजीवादी नियंत्रण में है और इधर आम इंसान आज भी अपनी ज़रूरत के लिए तरस रहा है। विषमता की खाई को बहुत गहराई से उजागर करता यह, शेर इस अर्थ में बहुत बड़ा और दूर तक पहुचता नज़र आता है
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