शैरिल शर्मा
करघनी घंटों घुमाने के बाद भी
केश ही सुलझे मन की गिरहें नहीं
दर्पण के सम्मुख स्वयं को देख
ये कैसा अचरज देवी?
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ये किस दुनिया में
इस दुनिया से चल पड़ती हो
फटी बिवाइयां और धंसी आंखें
किसकी बांट जोहते हुए देहरी की ओर बढ़ती हैं?
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मन का आंगन जानता है
अभ्यासी भी है किंतु खो जाने पर
कितना कुछ पा जाता है और
असल दुनिया में आते ही ठगा सा रह जाता है।
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गंगा के किनारे धूप दीप अस्थियां ही नहीं
उम्मीद की आस्था भी बहती चली गई
अब लौटना असंभव था और
मेरा पुनः मुड़ना अपशकुन।
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सामने पड़ा काजल निहारता रहा नेत्रों की रेख
चूड़ियां कलाई को तरस उठी,
बिंदिया ललाट पर थिर न सकी
रक्तगर्भा की चाह में जलता रहा मन
शेष सभी रंगों से आगे जा चुकी है
जीवन नौका।
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चंदा से शीतल मन पर
अंशुमाली का सारा ताप उड़ेल गए विधाता
नेत्रों का जल बाहर नहीं भीतर रिसता गया
वसुधा से गहरे मन की देवी की
अंजुरी में शृंगार का सफेद चंदन आया।
बहुत सुन्दर रचना….शानदार शब्द अनुशासन👍