राघवेंद्र तेलंग
सुपरिचित कवि,लेखक,विज्ञानवेत्ता
आंखें… जिन्हें रोशन सितारे करते हैं
आध्यात्मिक होना वास्तव में अपने भीतर ऐसे एक नए आयाम के कौशल का विकास करना है जिसमें सिर्फ देखने भर से ख़ुद के जीने का सलीका बदल जाए और आगे बढ़कर कहना हो तो यह कहना होगा कि फिर साथ रहने वाला भी वन-एट्टी डिग्री रूपांतरित हो जाए। यहां देखने से अर्थ संपूर्णत: जीने से है,जीवन से है। आध्यात्मिकता या स्पिरिचुअलिटी दरअसल एक प्रक्रिया है जिसमें शुरूआत ही देखने यानी ऑब्जर्वेशन से की जाती है। इसके तहत हम सीखते हैं कि यह देखना सीखना भी किस तरह अलग है कि देखना कैसे है, कि कैसे देखा जाता है। जैसे ही आप देखना सीख जाते हैं, आप पाते हैं, आपकी आंखें अब जाकर खुली हैं, आप यह भी समझ पाते हैं कि पहले वे बंद थीं। जो रोज-रोज के जीवन की भट्टी में एक ही रूटीन में खुद को खपा रहा है, खर्च किए जा रहा है जिसकी कोई खोज नहीं है, एक ऑर्गेनिक लक्ष्य नहीं है, वह स्पिरिचुअल नहीं है, फिर वह मटेरियलिस्टिक आदमी है।
उसके जीवन में वह खुद नहीं है। उसके जीवन में वही नहीं है और बाकी सब कुछ है। हां! ऐसा ही है कि उसके जीवन में उसको छोड़कर बाकी सब वो है जो महज सामान की परिभाषा के अंतर्गत है। उसे कुछ खोजना नहीं उसे बस पाना ही पाना है। उसे खुद को खोजने में कोई सार नजर नहीं आता। वह खोजने की पीड़ा से गुजरना ही नहीं चाहता। वह पके पकाए फल खाना चाहने वाले अय्याश लोगों की प्रवृत्ति का है। उसका फंडा ही यह है कि रात को खाओ पियो, दिन को आराम करो। इंटरमेंट, इंटरमेंट और इंटरटेनमेंट ही उसका मूलमंत्र है। दु:ख, पीड़ा, श्रम, कष्ट उसके लिए वर्जित शब्द हैं। वह इकहरे, एकतरफा जीवन का हामी है। उसकी दुनिया सिक्के के एक ही पहलू से चलती है। अलावा उसके यहां ऐसे भी नादान है जिनकी तलाश में कोई सिर्फ एक है या हरेक चीज है जिसमें वही, वही एक समाया हुआ है। बहुत कम लोगों की तलाश में सबसे बना यह विविधतापूर्ण अस्तित्व है।
इस अस्तित्व की खोज की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह पहले से है। अस्तित्व अस्तित्व में ही है। अस्तित्व तुम सहित है। अस्तित्व तुमसे है। तुम भी अस्तित्व हो। तुम ही अस्तित्व हो। तुम अस्तित्व के भीतर हो। अस्तित्व तुम्हारे भीतर है। तुम्हारे अस्तित्व के भीतर तुम्हारा मूल है। अपने मूल स्वरूप को जान लेना ही अस्तित्व को जानना है। तुम और अस्तित्व एक हो इसका अहसास हो जाने पर तत्क्षण यह भी जानना हो जाता है कि मैं कौन हूं। इस तरह हम पाते हैं, दरअसल, किसी खोज की आवश्यकता ही नहीं थी। हम वहीं उसी जगह पर खड़े थे जहां की हमें तलाश थी। बस नीचे झुककर देखना भर तो था। और इस रंग-बिरंगी, मायावी दुनिया का कोलाहल यह होने नहीं दे रहा था। इस भागदौड़ में हम अपने को भुला बैठे थे। अंतर्यात्रा के बाद किसी अन्य यात्रा की आवश्यकता ही नहीं।
वास्तव में माइक्रो यानी ही मैक्रो है। जब यह जाकर पता चलता है कि जिसकी तलाश में हम थे उसके बारे में हमें बताया जा रहा था कि वह बाहर है और हम उसकी तलाश में बाहर गली-चौबारे,सड़क,मोड़ पर मत्था टेकते थे,पर वह वहां कहीं मिलता ही नहीं था। हमारे दु:ख समझने वाला वहां बाहर था ही नहीं तो वहां बाहर दुख भी किसको होता। तो एक दिन जब बाहर खोज ही खत्म हो गई तब बहुत बड़ी ऊर्जा बच रह गई। फिर हमने पाया कि हमारा अपने-आप से डायरेक्ट कनेक्शन हो गया। हमने पाया इस डायरेक्ट कनेक्शन के लिए संपूर्ण ऊर्जा चाहिए होती है जो पहले बाहर खर्च हो रही थी। जैसे ही हम अपने एन्टैन्गल्ड पार्ट से जुड़ते हैं हमारी संपूर्ण शक्ति लौट आती है। सिक्के के दोनों पहलू एक हो जाते हैं और अब यह सिक्का खरा होकर चलने को तैयार है पहले उसका पूरक भाग गायब था, लापता था अब वह आ गया है। आवाज आ रही है-मैं आ गया हूं।
वह आ गया है जिसे आना ही चाहिए था। वह जो पहले से मौजूद था, उसका होना अब जाकर पता चला है। वह जिसे तलाशने की जरूरत ही न थी। वह जिसकी तलाश ने उम्र भर भटकाया। वह ऊर्जा का संचय कर लेने भर से मिला। वह ऊर्जा पहले से ही हमें प्रदत्त थी, हममें समाई थी और हम उस ऊर्जा को बाहर ढूंढ रहे थे,खरीदने चले थे। अंतर्यात्रा से लौटकर हम स्थिरता पा जाते हैं। हम अपने को पा जाते हैं। भटकन समाप्त हो जाती है। एक होरिजेंटली बह रही ऊर्जा वर्टिकल की दिशा पाकर लांच के लिए तैयार हो जाती है। सितारे की यात्रा शुरू होने को है।
हम पाते हैं एक फूल की भी वही सुगंध है जो एक माला में है। इस ब्रह्मांड में एक सूर्य दूसरे एक बड़े सूर्य का चक्कर लगा रहा है। सारे उजले सूर्य किसी सूर्य जैसी ही प्रकृति के कृष्ण विवर की परिक्रमा कर रहे हैं। यानी बात एक ही है। बात एक ही ऊर्जा की है जो दो सूर्य के बीच है। बात दो फूलों के बीच एक जैसी सुगंध की है। दोनों फूल एक-सी सुगंध के कारण ही माला में जगह पाते हैं। दोनों का ऑर्बिट जब एक होता है तब केंद्र में उन्हीं की सुगंध जैसा ही ठीक वैसा ही एक और फूल होता है। यानी ऑर्बिट में भी वही सुगंध और केंद्र में भी वही सुगंध। माला भी वही, सुगंध भी वही। घूमने वाला भी वही,घुमाने वाला भी वही। यानी बहुत साफ तरह से समझकर कहा जाए कि ऊर्जा ही स्वयं का चक्कर लगा रही है। यानी ऊर्जा का पथ स्पायरल है। यानी स्पायरल फॉर्म में ऊर्जा के पैकेट्स सर्वत्र मौजूद हैं। यानी जो कुछ भी यहां अस्तित्व में है,जड़ या चैतन्य वह ऊर्जा का ही रूप है। तो जो जहां है ऊर्जारूप ही है,चैतन्य का अंश है,चैतन्य है। यानी जो जहां है वहीं यूनिवर्स है। वही यूनिवर्स है। अहं ब्रह्मास्मि यही तो है!
समय अपने-आप में एक अस्तित्वहीन विषय का विषय है। यह मानस में तब उगता-उभरता है जब आप अस्तित्व की सारी क्रमबद्ध चीज़ों में से अलग कर किसी एक चीज या कई चीजों पर अटेंशन देते हैं,ध्यान देते हैं। फिर बोझिलपन और अरूचि से ऐसा महसूस होता है कि कभी समय लंबा लगने लगता है तो वहीं दूसरी ओर सुखानुभूति के समय ऐसा महसूस होता है कि समय छोटा लगने लगा है। जब तक आप सारे अस्तित्व के साथ समाहित होकर उसके लिए बने हुए होकर रहते हैं तब तक टाईम और स्पेस की अनुभूति नहीं उपजती। हां! एक दूजे के लिए के अनन्य भाव जैसा। ऐसा इसलिए कि तब आप आनंद रस में डूबे हुए रहते हैं अपने-आपको विस्मृत किए हुए जैसे। समय वर्तमान में ही है। भूत,भविष्य,पहले,बाद में जैसा कुछ नहीं होता। जैसे ही आप प्रेज़ेन्ट या वर्तमान में रहना,टिकना सीख लेते हैं,आप एक तरह से समय से सिंक होकर,तादात्म्य बैठाकर स्वयं समय हो जाते हैं। समय होते ही आप आनंदमयी अवस्था में विराजमान हो जाते हैं। फिर ये दुनिया आपको बच्चों का,दीवानों का खेल मालूम पड़ती है।
किसी वस्तु या व्यक्ति या भावना के प्राकट्य के पीछे तथ्य यही है कि जब किसी पर बहुत ही ध्यान देते हैं तो उसका प्राकट्य हो जाता है। अर्थात आपके होने,अलग तरह के होने,वह भी सेपरेट आईडेंटिटी के बतौर होने से एक अलग टाईम-स्पेस का निर्माण होता है और तब वहां आप अपने पर अटेंशन की चाह रखते हैं फलत: अटेंशन के भाव के कारण ही चीजों की और आपकी मौजूदगी होने की स्थिति बनती है। यह पैरेलल टाईम-स्पेस में घटता है और इस घटने की चेन रिएक्शन प्रणाली का नाम ही शारीरिक चेतना आधारित जीवन है,जिससे मुक्ति या मोक्ष की कामना में जीवन बीत जाता है। इसीलिए अस्तित्व में घुलकर इस तरह रहना श्रेयस्कर है जैसे आपका कोई अस्तित्व ही न हो,अलग से। दृश्य में अदृश्य-सा मगर फिर भी दृष्टव्य-सा भी। वह अदृश्य जिसका न कभी जीना और न ही मरना। हां! इसे ही आप कह सकते हैं आत्मा सरीखा जीवन। अमर।
हर कार्य डूबने का एक माध्यम है,स्वयं को विस्मृत कर तिरोहित कर देने का एक जरिया। ऐसे आत्म-विस्मृति के काल में फिर टाईम और स्पेस का अस्तित्व नहीं होता। ऐसा अपने-आपके प्रति की आसक्ति सहित सभी प्रकार के मोह छोड़ देने के बाद घटता है। टाईम और स्पेस मापन के लिए,मेजरमेंट के लिए,तुलना के लिए चाहिए। तुलना यानी द्वैत या डुएलिटी यानी अहं का विषय। वहीं इसी बात के दूसरी तरफ साक्षी भाव के पार एक और स्थिति है और वह है देखते हुए भी न देखना। निर्विचार,निरपेक्ष दृष्टाभाव। शब्दों,विचारों,भावों से परे की स्थिति। इस टेक्नीक में होते हुए जब आप चीजों का आना-जाना भर होने देना चाहेंगे तब आप पाएंगे अब आपको चीजें नहीं घेर रही हैं बल्कि चीजें ही आपकी ओर आकर्षित हो रही हैं। यह स्थिति आपको एक पावर सेंटर बना देती है। लाचारी की अवस्था पलटकर चुनावकर्ता में बदल जाती है। किसी की कुछ पंक्तियां यहां याद आ रही हैं;
ऐसे देखते हैं जैसे देखा ही नहीं,
ज़ालिम के देखने का अंदाज तो देखो।
या
ऐसा होता तो नहीं है पर ऐसा हो न कहीं,
उसने मुझे न देखकर देखा हो न कहीं।
या
वो देख रहा है कि मैं देख रहा हूं या कि नहीं
और मैं सोच रहा हूं उसे देखूं या कि नहीं।
माया के संसार का अनावश्यक और निरर्थक चीजों से अटा पड़ा बाज़ार जो सभी को बेचैन किए रखता है चौबीसो घंटे,उससे जूझने की बजाय इसी तरह की निर्विचार दृष्टा की तकनीक अपनाई जाए तो जीवन में शांति उतरेगी, भागदौड़ कम होगी,बहुमूल्य ऊर्जा बचेगी। विचार ही नहीं तो इच्छा ही नहीं फिर क्रिया भी नहीं। देखना आपको हर बार अस्तित्व से अलग करता है। देखने में न देखा हुआ-सा या न देखने जैसा देखना अगर आ जाए जिसका आउटपुट शून्य हो यानी विचार न भावना बस एक किस्म की निस्पृहता तो वह कॉस्मिक आई हो जाना है। गहरे लगातार तलहट की ओर जब डूबते चले जाते हैं तब रास्ते में जो अदृश्य का संसार सामने से गुजरता चलता है उससे समझ आ जाता है कि संसार का सब कुछ चैतन्य है। मानस की हंसिनियों के अध्येता और उन पर बाज दृष्टि रखने वाले देवदत्त जैसे विवेकवान-काक मनुज कुशल के क्वांटम ऑप्टिकल बिहेवियर सिस्टम के प्रेक्षण से उपजा है यह आलेख। पाठक इसे पढ़कर बुद्ध के बताए साक्षी भाव की महत्ता को निश्चित ही समझ पाएंगे। कुल मिलाकर यह हर उस एक शमां का जलना है जिसे रोशन खुदा करता है और यही बात जड़मतियों,तार्किकों,नास्तिकों के पल्ले कभी नहीं पड़ती।
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