
- आशीष दशोत्तर
साहित्यकार एवं स्तंभकार
तवील राहों से गुज़रना मंज़िल पाने से बेहतर
मिरे राहबर मुझको गुमराह कर दे,
सुना है कि मंज़िल क़रीब आ गई है।
उर्दू ग़ज़ल को अपने लबोलहजे और बारीकियों से सराबोर करने वाले उस्ताद शाइर ख़ुमार बाराबंकवी साहब का यह शेर बने बनाए फलसफे को पलटने वाला है। बहुत सादा ज़ुबान में कहा गया यह शेर कई तहें खोलता है और एक नए आयाम की तरफ़ हमें ले जाता है। शेर के लफ़्ज़ी मआनी पर गौर करें तो राही शायद राह बताने वाले से कह रहा है कि वह उसे गुमराह कर दे क्योंकि मंज़िल क़रीब आ गई है। यहां समझ यह नहीं आता है कि मंज़िल के करीब आने पर गुमराह होने का क्या रिश्ता है। अमूमन तो चाहत यह रहती है कि जल्द से जल्द मंज़िल तक पहुंच जाएं। राह दिखाने वाला भी यह दुआ करता है कि राहगीर को इस मोड़ पर कोई गुमराह न कर दे, क्योंकि मंज़िल सामने ही दिख रही है। यह तो वैसा ही हुआ कि सांप-सीढ़ी के खेल में कोई आख़िरी खाने तक पहुंचने से पहले यह दुआ करे कि उसे सांप काट ले और फिर से वह पीछे की तरफ लौट जाए। यह मुमकिन नहीं। कोई ऐसा नहीं चाहेगा।
लेकिन इस शेर में अगर शाइर इस बात की ताईद कर रहा है कि मंज़िल से पहले राहगीर को गुमराह कर दिया जाए तो इसके पीछे बहुत गहरे संदर्भ छिपे हुए हैं। राही जब किसी राह पर चलता है तो उसे दो बातों की ज़रूरत होती है। एक तो वह चाहता है कि उसे बना बनाया रास्ता मिल जाए और दूसरा उसे कोई राह दिखाने वाला मिल जाए। यदि ऐसा होता है तो वह अपनी मंज़िल तक पहुंच जाएगा। अब यहां प्रश्न यह उठता है कि यदि इस तरह कोई राही अपनी मंज़िल तक पहुंच जाए तो यहां तक पहुंचने में उसका अपना क्या योगदान रहा? बनी बनाई राह उसे मिल गई, राह बताने वाला भी मिल गया तो उसे मंज़िल तो मिलना ही थी। इसके विपरीत जो लोग अपनी मंज़िल ख़ुद तय करते हैं वे अपनी राह भी ख़ुद बनाते हैं और किसी राहबर का सहयोग भी नहीं लेते हैं। यहां शाइर ऐसी बनी बनाई राह पर न चलने की नसीहत तो दे ही रहा है साथ ही यह भी कह रहा है कि यदि ऐसा कहीं होता है तो आप ऐसी मंज़िल को पा कर भी कुछ नहीं पाएंगे, इसलिए ऐसी मंज़िल से दूर रहना ही बेहतर है। यह किसी आशिक के अपने माशूक से मिलने की पराकाष्ठा है। तसव्वुफ़ के नज़रिए से इसे समझा जाए तो अपने माशूक के क़रीब पहुंचकर आशिक दीवाना नहीं होना चाहता। वह नहीं चाहता कि अपने माशूक के नूर के सामने आकर वह बेनूर हो जाए, इसलिए वह चाहता है कि उसे गुमराह ही कर दिया जाए तो बेहतर है ताकि उसकी ज़िन्दगी में अपने माशूक से मिलने की चाहत तो बनी रहे
अब इस शेर की भीतरी तह पर जाएं तो हम पाते हैं कि मंज़िल का मिलना किसी भी सफ़र के ख़त्म होने का सूचक है। मंज़िल मिलने के बाद इंसान के सामने कोई रास्ता नहीं बचता। किसी ऊंचे पहाड़ की चोटी पर पहुंचने के बाद और कहीं पहुंचने की गुंजाइश नहीं होती। वहां से फिर उतरना ही होता है। मंज़िल किसी भी राह का अंतिम पड़ाव होता है। वे लोग और होते हैं जो मंज़िल को अपने सफ़र का पड़ाव समझ कर सफ़र जारी रखते हैं। यहां शाइर कहना चाह रहा है कि मंज़िल के क़रीब आने की आहट मिल रही है इसलिए राह बताने वाले, तू अभी गुमराह कर दे क्योंकि मंज़िल पर पहुंचकर मैं कहीं पहुंचने लायक नहीं रहूंगा। मंजिल को पा लेना ख़ुद को ख़त्म कर देने के समान है।
एक रचनाकार जब यह समझ लेता है कि उसकी रचना पूर्ण हो गई, उस दिन वह ख़त्म हो जाता है। एक शाइर जिस दिन यह मान लेता है कि उसने ज़िन्दगी का सबसे अच्छा शेर कह दिया है, वह उसी दिन ख़त्म हो जाता है। जैसे एक रचनाकार अपने आप को उम्र भर विद्यार्थी ही बना कर रखना चाहता है, इस तरह यहां शाइर भी चाहता है कि वह उम्र भर अपनी मंज़िल को पाने में लगा रहे। अभी मंज़िल क़रीब आ रही है इसलिए उसे फिर से गुमराह कर दिया जाए ताकि वह फिर से अपनी मंज़िल की तलाश में आगे की तरफ़ बढ़ सके और उस तलाश में वह उन पड़ावों से गुज़र सके जहां से अभी गुज़रना बाक़ी है।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि मंज़िल को पा लेना रास्ते की तमाम तकलीफ़ों से गुज़रना नहीं होता। कई बार मंज़िल मिल जाती है मगर रास्ते में मिलने वाली तकलीफ़ों से सामना हो ही नहीं पाता। कई बार भाग्य के भरोसे भी मंज़िलें मिल जाया करती हैं। इसलिए मंज़िल का मिलना उतना ख़ास नहीं है जितना ख़ास रास्तों की तकलीफ़ों का सामना करना और समझना। इसलिए शाइर यह चाहता है कि अभी कुछ भी सहा तो है ही नहीं और मंज़िल सामने दिख रही है। मुझे और चलने की ज़रूरत है। राह दिखाने वाले इस मंज़िल को मेरी निगाह से ओझल कर दे ताकि मैं रास्ते की तकलीफ़ों से रूबरू हो सुकूं और अपने आप को पुख्ता बना सकूं। मंज़िल किसी भी सफ़र का अंतिम मुकाम होता है। एक क्रियाशील मनुष्य कभी भी ऐसे मुकाम पर नहीं पहुंचाना चाहता, जहां उसकी क्रियाशीलता ख़त्म हो जाए। मंज़िल से पहले गुमराह होने की ख़्वाहिश किसी बड़े मक़ाम तक पहुंचने का पैग़ाम है। गुमराह होना एक नए रास्ते की तामीर करने के लिए ज़रूरी है। गुमराह होना अपनी सोच को साकार करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है। शाइर इसीलिए मंज़िल से पहले गुमराह होने की बात कह रहा है।
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मंज़िल से पहले गुमराह होने की ख़्वाहिश किसी बड़े मक़ाम तक पहुंचने का पैग़ाम है। गुमराह होना एक नए रास्ते की तामीर करने के लिए ज़रूरी है। गुमराह होना अपनी सोच को साकार करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है……..वाह सोच साकार करने के लिए अब गुमराह होना ही होगा…..