
- जे.पी.सिंह
वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के विशेषज्ञ
अदृश्य शक्तियों की मौजूदगी को लेकर सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण और आधुनिक विज्ञान की अवधारणा
‘अदृश्य शक्ति के प्रभाव में हत्या’ का एक हालिया मामला 2025 में सामने आया है, जहां एक मां ने अपनी बेटियों की हत्या की और अदृश्य प्रभाव का दावा किया। सुप्रीम कोर्ट ने मां की मानसिक अस्थिरता को ध्यान में रखते हुए मामले में सजा कम की, लेकिन यह विवादास्पद और जटिल है। 29 अप्रैल 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने चुन्नी बाई बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले में फैसला सुनाया, जहां एक मां को अपनी 3 और 5 साल की बेटियों की हत्या के लिए दोषी ठहराया गया था। उसने दावा किया कि वह ‘अदृश्य प्रभाव’ के तहत थी, जिसे संभवतः अस्थायी मानसिक अस्थिरता के रूप में देखा गया। सुप्रीम कोर्ट ने सजा को हत्या से कम करके दोषपूर्ण हत्या (IPC धारा 304 भाग II) में बदल दिया क्योंकि उसे कोई स्पष्ट मकसद नहीं था और उसका व्यवहार अजीब था। यह मामला मानसिक स्वास्थ्य और कानूनी प्रणाली के बीच का है। अदृश्य शक्ति का दावा सांस्कृतिक या आध्यात्मिक विश्वासों से भी जुड़ा हो सकता है, जो विवादास्पद है और विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है।
चुन्नी बाई बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले में, चुन्नी बाई को अपनी 3 और 5 साल की बेटियों की हत्या के लिए दोषी ठहराया गया था। मूल रूप से, उसे IPC धारा 302 (हत्या) के तहत 2016 में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी, जिसे हाई कोर्ट ने बरकरार रखा। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने सजा को IPC धारा 304 भाग II (दोषपूर्ण हत्या, जो हत्या के बराबर नहीं है) में बदल दिया। इस निर्णय के पीछे का तर्क था कि चुन्नी बाई ने दावा किया था कि वह ‘अदृश्य प्रभाव’ के तहत थी, जिसे संभवतः अस्थायी मानसिक अस्थिरता के रूप में देखा गया।
न्यायालय ने नोट किया कि: उसका व्यवहार अजीब और अस्पष्ट था, जैसे कि घटनास्थल से भागने के बजाय रोते हुए और बार-बार कहते हुए कि उसने अपने बच्चों को मार दिया है। कोई स्पष्ट मकसद नहीं था, जो हत्या के इरादे पर संदेह पैदा करता हो। चिकित्सीय सबूत निर्णायक नहीं थे कि वह IPC धारा 84 (असामान्य मानसिक स्थिति वाले व्यक्ति का कार्य) के तहत आती है। चूंकि उसने पहले से 9 साल और 10 महीने की सजा काट ली थी, और धारा 304 भाग II के तहत अधिकतम सजा 10 साल है, उसे रिहा करने योग्य माना गया।
इस निर्णय से कानूनी प्रणाली में मानसिक स्वास्थ्य और अपराध के बीच के संबंध की बहस शुरू हो गई है।
दरअसल, सुपर-नैचुरल ताकतों पर विश्वास दुनिया भर के कई धर्मों में देखा जाता है। हिंदू धर्म में देवी-देवताओं की कृपा, इस्लाम में जिन्न, ईसाई धर्म में चमत्कार और अन्य धार्मिक परंपराओं में भी अलौकिक शक्तियों का उल्लेख मिलता है। लेकिन सुपर-नैचुरल ताकत के अस्तित्व को विज्ञान नहीं मानता है। विज्ञान केवल प्रमाण और परीक्षण पर आधारित होता है और अभी तक कोई ठोस वैज्ञानिक प्रमाण सुपर-नैचुरल ताकतों के अस्तित्व को साबित नहीं कर पाया है। सवाल है कि क्या किसी इंसान के शरीर में कोई अदृश्य शक्ति जैसे देवी, माया, भूत पिशाच की छाया नजर आ सकती है। क्या कोई इंसान देवी का रूप धारण कर अंगारों पर चल सकता है। मंदिर में आरती शुरू होते ही कुछ महिलाओं में देवी (माता) तो कुछ पुरुषों में देवी का वाहन शेर या काल भैरव प्रवेश करते हैं और ये अजीबो-गरीब ढंग से व्यवहार करते हुए स्वयं भी देवी की आराधना करते हैं तथा देवी के रूप में भक्तों को आशीर्वाद भी देते हैं। इन लोगों में देवी का शरीर में आगमन होने का जुनून इस हद तक होता है कि ये जलता हुआ कपूर अपनी जुबान पर रखकर देवी की आरती उतारते हैं तो कुछ हाथ में जलता कपूर लेकर देवी की आरती करते हैं। कभी ऐसे ही बैठे ठाले इस तरह का घटना क्रम होते हुए दिख जाता है विशेषरूप से गाँवों में या देवी मन्दिरों में। अस्थायी तौर पर माता आने के अलावा कई मामलों में लोग स्थाई तौर पर खुद को देवी या देवता होने का दावा करने लगते हैं। कई पुरुष भी ऐसा कर चुके हैं।
1971 बैच के आइपीएस अधिकारी डीके पांडा ऐसे ही एक शख्स थे। वे भगवान कृष्ण की भक्ति में ऐसे डूबे कि खुद को राधा कहने लगे। वे कहते थे कि खुद भगवान ने सपने में आकर उनसे ये भेद खोला कि वे राधा थे। सालों तक वे छिपकर राधा बने रहे, फिर साल 2005 में वे खुलकर सामने आ गए। वे राधा की तरह कपड़े पहनने और शृंगार करने लगे। माथे पर सिंदूर और हाथों में चूड़ियां पहनने लगे।
इसे मनोविज्ञान की भाषा में पजेशन सिंड्रोम कहा जाता है जो एक एक मानसिक और सांस्कृतिक रूप से प्रभावित स्थिति है, जिसमें व्यक्ति को लगता है कि उसके शरीर में कोई अलौकिक शक्ति या आत्मा प्रवेश कर गई है। यह सिंड्रोम विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं से जुड़ा हो सकता है और इसे डिसोसिएटिव ट्रांस डिसऑर्डर के रूप में भी जाना जाता है। पजेशन सिंड्रोम को एक विघटनकारी विकार के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसमें रोगी अनजाने में मानते हैं कि वे बुरी आत्माओं से ग्रस्त हैं जो अपनी निषिद्ध इच्छाओं को पूरा करती हैं। अभिव्यक्ति रोगी के दृष्टिकोण पर निर्भर करती है कि राक्षसी आत्माएं कैसी होती हैं और उन्हें कैसे कार्य करना चाहिए।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ ने साल 1969 में दावा किया था कि ये सिंड्रोम किसी एक देश या जेंडर तक सीमित नहीं बल्कि पूरी दुनिया की 488 सोसाइटी में है। अलग-अलग धर्मों में भी ये दिखता है। जैसे हिंदुओं में देवी या माता आना है, वैसे ही इस्लाम में जिन्न आना या फिर क्रिश्चियनिटी में ऐसा दिख जाता है, जब लोग अपने ऊपर किसी सुपर-नैचुरल ताकत का वास होने का दावा करने लगते हैं। मनोवैज्ञानिक शोध बताते हैं कि यह एक प्रकार का डिसोसिएटिव ट्रांस डिसऑर्डर हो सकता है, जिसमें व्यक्ति अपनी वास्तविकता से कट जाता है और एक नई पहचान या शक्ति को महसूस करता है। न्यूरोसाइंस अनुसंधान दर्शाते हैं कि गहरे तनाव और मस्तिष्क की असामान्य गतिविधियों के कारण व्यक्ति को ऐसे अनुभव हो सकते हैं। कुछ मामलों में सामूहिक मनोविज्ञान (Mass Hysteria) भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, जिसमें कई लोग एक साथ समान अनुभव साझा करते हैं।
आधुनिक विज्ञान अदृश्य शक्तियों की मौजूदगी को लेकर विभिन्न दृष्टिकोण रखता है। क्वांटम भौतिकी और न्यूरोसाइंस जैसे क्षेत्रों में कुछ सिद्धांत ऐसे हैं जो इस विषय को रोचक बनाते हैं। क्वांटम यांत्रिकी के अनुसार, कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं जिन्हें हम प्रत्यक्ष रूप से नहीं देख सकते, लेकिन उनका प्रभाव मौजूद होता है।डार्क मैटर और डार्क एनर्जी ब्रह्मांड का एक बड़ा हिस्सा हैं, लेकिन इन्हें सीधे देखा नहीं जा सकता।
न्यूरोसाइंस और मनोविज्ञान: कुछ लोग अदृश्य शक्तियों का अनुभव करते हैं, जिसे वैज्ञानिक मस्तिष्क की गतिविधियों और संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं से जोड़ते हैं। हेलुसीनेशन (भ्रम) और स्लीप पैरालिसिस जैसी स्थितियां लोगों को ऐसा अनुभव करा सकती हैं कि कोई अदृश्य शक्ति मौजूद है। वैज्ञानिकों का मानना है कि ऊर्जा का अस्तित्व होता है, लेकिन इसे किसी अलौकिक शक्ति से जोड़ना कठिन है।कुछ शोध बताते हैं कि इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फील्ड्स और साइकोलॉजिकल फैक्टर्स लोगों को अदृश्य शक्तियों का अनुभव करा सकते हैं। विज्ञान का मानना ये है कि जब व्यक्ति जिसका दिमाग कमजोर होता है वो एक ही चीज़ के बारे में बार-बार सोचता है। जैसे की रात्रि के समय अगर वो माता के बारे में ही सोचता रहेगा उतने समय तक तो उसका दिमाग यही सोचने लगता है। उसके बाद उसे वैसा ही महसूस होता है जैसा वो दिमाग में सोचता है। महिलाओं पर देवी आने की घटना को कई लोग अलग-अलग तरीकों से समझते हैं। कुछ इसे धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखते हैं, जबकि अन्य इसे मानसिक और सामाजिक दृष्टिकोण से समझने की कोशिश करते हैं।
धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण: कई धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, देवी का आना एक दिव्य अनुभव माना जाता है। इसे देवी की कृपा और आशीर्वाद के रूप में देखा जाता है। विशेषकर नवरात्रि और अन्य धार्मिक अवसरों पर, महिलाओं पर देवी आने की घटनाएं अधिक देखी जाती हैं।
सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण: कुछ समाजशास्त्रियों का मानना है कि यह घटना समाज में महिलाओं की भूमिका और उनकी इच्छाओं को व्यक्त करने का एक तरीका हो सकता है। समाज में महिलाओं की इच्छाओं और आकांक्षाओं को दबाने की परंपरा के कारण, यह घटना एक प्रकार की मानसिक प्रतिक्रिया हो सकती है
मानसिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण: मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार, यह घटना मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का परिणाम हो सकती है। इसे सामूहिक हिस्टीरिया या अवचेतन मन की दबी हुई इच्छाओं के रूप में भी देखा जा सकता है।
अवचेतन में दबी हुई इच्छाएं, अंधविश्वास और गांवों में महिलाओं या पुरुषों पर ‘देवी आना’, हनुमान जी या काल भैरव आना कोई भी मानसिक स्थिति जब तक व्यक्ति में सीमित है तो व्यक्ति का नुकसान करती है लेकिन जब वह समाज में चलन या एक काल्पनिक सत्य की तरह बरती जाने लगती है तब वो समाज का नुकसान करती है। देवी -देवता, भैरव आना या पीर जिन्न का मनुष्यों पर आना एक धंधा व्यापार भी बन गया है। देवी-देवता आना हमेशा आस्था से जुड़ा या अवचेतन संवेग से जुड़ा विषय नहीं होता कभी-कभी मनुष्य की चालाकी और धूर्तता भी होती है।