मंज़िल पर पहुंचने की चाह में रास्तों से गुज़रना भूल जाते हैं…

  • आशीष दशोत्‍तर

साहित्‍यकार एवं स्‍तंभकार

धड़कती ज़िन्दगी की ख़ामोश उलझन

सिम्फे-सुखन के बेहतरीन ज़ाविए उभारने वाले शाइर जनाब कृष्ण बिहारी ‘नूर’ का यह शेर साधारण हो कर भी असाधारण प्रतीत होता है। इस शेर को जितना पढ़ा जाएगा उतना समझा भी जा सकेगा। लफ़्जी मआनी पर ग़ौर करें तो शाइर कहना चाहता है कि आईना मेरे होने को तो बता सकता है लेकिन यह नहीं बता सकता है कि मुझमें क्या है। बहुत सामान्य सी बात है कि आईना हमारे चेहरे को तो परख सकता है हमारी रूह को नहीं।

यहां आईना महज आईना नहीं है। एक अर्थ में आईना पूरा समाज है जो मेरे होने को तो साबित कर देता है। यह बता देता है कि मेरी हस्ती क्या है,मेरा रूतबा क्या है। दौलत, शोहरत और इज़्ज़त की ताईद तो समाज कर दिया करता है लेकिन मेरी असलियत को नहीं बता पाता है। बताने से हिचकता है। डरता है। यहां ‘ख़ामोश’ शब्द का इस्तेमाल इसी हिचक और डर का द्योतक है। ज़ाहिर सी बात है कि सानी मिसरे से यह पता चलता है कि जो उले मिसरे में कहा गया है, वह ग़लत है। उसे तब तक सही नहीं समझा जा सकता है जब तक कि ख़ामोशी मौजूद है।

इस शेर को तसव्वुफ़ के नज़रिए से समझा जाए तो इसके अलग ही प्रभाव देखने को मिलते हैं। यहां आईना ईश्वर है जो यह तो सबको बता रहा है कि मैं क्या हूं, मेरा स्वरूप क्या है, मेरा रंग-रूप क्या है, मेरी चाल -ढाल क्या है। मेरा क़द कितना है। समाज में मेरी हैसियत क्या है। मेरे पास कितनी दौलत है। मेरा परिवार कितना बड़ा है। मैं कितना रसूखदार हूं। यह सब कुछ तो ईश्वर ने सबके सामने बता रखा है लेकिन मेरे भीतर क्या है यह सिर्फ़ और सिर्फ़ ईश्वर ही जानता है।

प्रत्येक इंसान अपने भीतर की बात किसी से नहीं कहता। अमूमन यह कहा जाता है कि उम्र भर साथ रहने वाले हमसफ़र भी एक दूसरे से कुछ बातें छुपा लिया करते हैं। यानी कोई किसी के सामने पूरी तरह खुला हुआ नहीं रहता। कुछ राज़ ऐसे होते हैं जो हर इंसान के साथ दफ़न हो जाते हैं। सिर्फ ईश्वर ही होता है जो उन राज़ों को जानता है। बावजूद इसके वह किसी को कुछ नहीं बताता। यहां ईश्वर की ख़ामोशी इंसान के वजूद को कायम रखने में मददगार साबित होती है। कल्पना कीजिए यदि ईश्वर सबके भीतर की बातों को सामने ले आए और उसकी हक़ीक़त से सबको रूबरू करवा दे तो इंसान, इंसान न रहे। उसके भीतर के सारे राज़ दुनिया को पता चल जाए तो जो लोग अभी उससे मोहब्बत कर रहे हैं वे पल में उससे नफ़रत करना शुरू कर दें। मरने-मारने पर उतारू हो जाएं। उससे अपने रिश्ते- नाते तोड़ लें। उसकी सारी दौलत छीन लें। उसकी हस्ती को मटिया मेट कर दें। यहां ईश्वर की ख़ामोशी उस इंसान को हर बार एक मौका देती है कि वह ख़ुद अपने भीतर छुपे हुए इंसान को बाहर लाए।

जो बंदा बंदगी के रंग में डूबता है वह दुनियादारों से कुछ इसीलिए अलग होता है क्योंकि वह अपने भीतर छुपे हुए राज़ को राज़ नहीं रहने देता। वह सब कुछ सामने लाने की हिम्मत करता है। हमारी आश्रम व्यवस्था में तो अंतिम आश्रम वानप्रस्थ संन्यास को ही कहा गया है। जिसमें समाज के सामने अपने सारी हक़ीक़त बयां के बाद ख़ुद को ख़ुदा की राह में सौंप दिया जाता है। सांसारिक वस्तुओं को लुटाया इसीलिए जाता है कि अब मेरे पास अपना कुछ नहीं है। न बाहर,न भीतर। दुर्भाग्यवश यहां भी इंसान के भीतर की बातें बाहर नहीं आ पातीं और वह भीतर ही दबी रह जाती हैं। शाइर यही कहना चाहता है कि वह बातें जो ईश्वर सब कुछ जानता है फिर भी सबके सामने इसीलिए नहीं ला रहा है कि कभी तो इंसान इस बात को समझेगा कि ख़ुद को बाहर और भीतर एक सा बनाना है। लोभ, मोह, क्रोध,मद, अहंकार अपने भीतर पाले रखने वाले इंसान को बेनकाब आईने रूपी ईश्वर करने के बजाए ख़ामोश रहता है।

इस बात को इस तरह भी समझा जा सकता है कि सभी के सामने रास्ते भी होते हैं और मंज़िल के ख़्वाब भी। कुछ लोग मंज़िल पर पहुंचने की चाह में रास्तों से गुज़रना भूल जाते हैं और कुछ लोग रास्तों से गुज़रते रहते हैं बगैर इस फ़िक्र के कि मंज़िल कब मिलेगी। लक्ष्य दोनों का मंज़िल ही होता है , मगर तरीका अलग-अलग। कुछ लोग रास्ते को ही अपनी मंज़िल समझ लेते हैं और कुछ लोग मंज़िल को भी रास्ते का एक पड़ाव ही मानते हैं। सारे रास्ते सभी के सामने खुले हैं। अब यह व्यक्ति को तय करना है कि उसे किस रास्ते पर जाना है। किस तरह के रास्ते पर चलना है। जब तक आंखों में कोई ख़्वाब नहीं होगा, कोई उस रास्ते पर चल नहीं पाएगा जो मंज़िल तक पहुंचा दे।

रास्ता यहां हर राही को यही कह रहा है कि यहां तक पहुंचाने वाले ने तुमको यह तो बता दिया है कि मैं हूं लेकिन यह नहीं बताया कि मेरे भीतर क्या है। किस तरह गुज़रने पर तुम्हें मंज़िल मिल सकती है। यह तो तुम्हें ख़ुद ही तय करना होगा। ख़ुद ही अपने रास्ते का चुनाव करना होगा। यहां ख़ामोशी ज़िन्दगी की एक बहुत बड़ी और ख़ूबसूरत उलझन भी है, जो हर कहीं मौजूद रहती है और जो इस शेर के साथ बहुत सादगी के साथ हमारे सामने आ रही है।

संपर्क: 9827084966

6 thoughts on “मंज़िल पर पहुंचने की चाह में रास्तों से गुज़रना भूल जाते हैं…”

  1. विष्णु बैरागी

    मुझे उर्दू का ज्ञान बिल्कुल नहीं है। इसलिए, बहुत कुछ, शब्दशः समझ नहीं पड़ता किन्तु पढ़ते हुए बराबर लगता रहा कि बात मुझ तक पहुँच रही है।
    आशीष का लिखा, मुझे पढ़ना ही पड़ता है। मजबूरी है। लेकिन अधिकांशतः मुझे तृप्ति नहीं मिलती। किन्तु इस आलेख में आशीष का घनत्व अनुभव होता है। मेरे तईं यह बहुत बड़ी खुशी और तसल्ली है।
    यह आलेख पढ़वाने के लिए धन्यवाद।

    1. Dr Abhay Pathak

      मैने आपकी आसानी के लिए गूगल से यह जाना कि
      बाहम का अर्थ है – आपस में, परस्पर, एक दूसरे के साथ

      1. दुष्यन्त व्यास

        नक्श लालपुरी का शेर और आशीष का तर्जुमा फिर एक नफासत के साथ व्याख्या सोने पर सुहागा।
        बात कहना बहुत आसान है पर रूह तक बात पहुंच जाय ,एक तस्वीर ज़हन में उभरे यही कहने का तरीका आशीष की खासियत है। बहुत शानदार

  2. Mahavir Prasad Verma

    बहुत ही उम्दा शेयर हैं, आशीष जी।
    बहुत ही खूब लिखा है ।आज आपके इस आलेख को पढ़के मन को तृप्ति हुई ।बहुत अच्छा लगा। आप ऐसे ही निरंतर लिखते रहे।

  3. दुष्यन्त व्यास

    नक्श लायलपुरी का शेर और आशीष का तर्जुमा फिर एक नफासत के साथ व्याख्या सोने पर सुहागा।
    बात कहना बहुत आसान है पर रूह तक बात पहुंच जाय ,एक तस्वीर ज़हन में उभरे यही कहने का तरीका आशीष की खासियत है। बहुत शानदार

  4. Mahavir Prasad Verma

    बहुत ही उम्दा तरीके से शेरा समझाया है । व्याख्या पढ़ते पढ़ते ऐसा लगने लगता है कि कहीं न कहीं हम जीवन मर्म
    समझ रहे हैं। अच्छा लगता है जब व्याख्या की भाषा ऐसी हो कि वो आम जन तक पहुंचे, कहने का आशय इसमें सरल उर्दू का प्रयोग हो ,या जन भाषा में व्याख्या की जाए तो ये ज्यादा सुगम होगा।
    आपको बहुत बहुत शुभकामनाएं और अच्छा काम आगे बढाने के लिए।

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