द्वापर के कृष्ण देव होते हुए निरंतर मनुष्य बनते रहे

मनुष्य की शारीरिक सीमा उसका चमड़ा और नख हैं। यह शारीरिक सीमा, उसे अपना एक दोस्त, एक मां, एक बाप, एक दर्शन वगैरह देती रहती है। किंतु समय हमेशा इस सीमा से बाहर उछलने की कोशिश करता रहता है, मन ही के द्वारा उछल सकता है। कृष्ण उसी तत्व और महान प्रेम का नाम है जो मन को प्रदत्त सीमाओं से उलांघता-उलांघता सबमें मिला देता है, किसी से भी अलग नहीं रखता। क्योंकि कृष्ण तो घटनाक्रमों वाली मनुष्य-लीला है, केवल सिद्धांतों और तत्वों का विवेचन नहीं, इसलिए उसकी सभी चीजें अपनी और एक की सीमा में न रहकर दो और निरापनी हो गई हैं। यों दोनों में ही कृष्ण का तो निरापना है, किंतु लीला के तौर पर अपनी मां, बीवी और नगरी से पराई बढ़ गई है। पराई को अपनी से बढ़ने देना भी तो एक मानी में अपनेपन को खत्म करना है। मथुरा का एकाधिपत्य खत्म करती है द्वारिका, लेकिन उस क्रम में द्वारिका अपना श्रेष्ठतत्व जैसा कायम कर लेती है।

भारतीय साहित्य में मां है यशोदा और लला है कृष्ण। मां-लला का इनसे बढ़कर मुझे तो कोई संबंध मालूम नहीं, किंतु श्रेष्ठत्व भर ही तो कायम होता है। मथुरा हटती नहीं और न रुक्मिणी, जो मगध के जरांसध से लेकर शिशुपाल होती हुई हस्तिनापुर की द्रौपदी और पांच पांडवों तक एक-रूपता बनाए रखती है। परकीया स्वकीया से बढ़कर उसे खत्म तो करता नहीं, केवल अपने और पराए की दीवारों को ढहा देता है। लोभ, मोह, ईर्ष्या, भय इत्यादि की चहारदीवारी से अपना या स्वकीय छुटकारा पा जाता है। सब अपना और अपना सब हो जाता है। बड़ी रसीली लीला है कृष्ण की, इस राधा-कृष्ण या द्रौपदी-सखा ओर रुक्मिणी-रमण की कहीं चर्म सीमित शरीर में, प्रेमांनंद और खून की गर्मी और तेजी में, कमी नहीं। लेकिन यह सब रहते हुए भी कैसा निरापना।

कृष्ण है कौन? गिरधर, गिरधर गोपाल! वैसे तो मुरलीधर और चक्रधर भी है, लेकिन कृष्ण का गुह्यतम रूप तो गिरधर गोपाल में ही निखरता है। कान्हा को गोवर्धन पर्वत अपनी कानी उंगली पर क्यों उठाना पड़ा था? इसलिए न कि उसने इंद्र की पूजा बंद करवा दी और इंद्र का भोग खुद खा गया, और भी खाता रहा। इंद्र ने नाराज होकर पानी, ओला, पत्थर बरसाना शुरू किया, तभी तो कृष्ण को गोवर्धन उठाकर अपने गो और गोपालों की रक्षा करनी पड़ी। कृष्ण ने इंद्र का भोग खुद क्यों खाना चाहा? यशोदा और कृष्ण का इस संबंध में गु्हय विवाद है। मां इंद्र को भोग लगाना चाहती है, क्योंकि वह बड़ा देवता है, सिर्फ वास से ही तृत्प हो जाता है, और उसकी बड़ी शक्ति है, प्रसन्न होने पर बहुत वर देता है और नाराज होने पर तकलीफ। बेटा कहता है कि वह इंद्र से भी बड़ा देवता है, क्योंकि वह तो वास से तृप्त नहीं होता और बहुत खा सकता है, और उसके खाने की कोई सीमा नहीं। यही है कृष्ण-लीला का गुह्य रहस्य। वास लेने वाले देवताओं से खाने वाले देवताओं तक की भारत-यात्रा ही कृष्ण-लीला है। कृष्ण के पहले, भारतीय देव, आसमान के देवता हैं।

निस्संदेह अवतार कृष्ण के पहले से शुरू हो गए। किंतु त्रेता का राम ऐसा मनुष्य है जो निरंतर देव बनने की कोशिश करता रहा। इसीलिए उसमें आसमान के देवता का अंश कुछ अधिक है। द्वापर का कृष्ण ऐसा देव है जो निरंतर मनुष्य बनने की कोशिश करता रहा। उसमें उसे संपूर्ण सफलता मिली। कृष्ण संपूर्ण अबोध मनुष्य है, खूब खाया-खिलाया, खूब प्यार किया और प्यार सिखाया, जनगण की रक्षा की और उसे रास्ता बताया, निर्लिप्त भोग का महान त्यागी और योगी बना। इस प्रसंग में यह प्रश्न बेमतलब है कि मनुष्य के लिए, विशेषकर राजकीय मनुष्य के लिए, राम का रास्ता सुकर और उचित है या कृष्ण का। मतलब की बात तो यह है कि कृष्ण देव होता हुआ निरंतर मनुष्य बनता रहा। देव और निःस्व और असीमित होने के नाते कृष्ण में जो असंभव मनुष्यताएं हैं, जैसे झूठ, धोखा और हत्या, उनकी नकल करने वाले लोग मूर्ख हैं, उसमें कृष्ण का क्या दोष। कृष्ण की संभव और पूर्ण मनुष्यताओं पर ध्यान देना ही उचित है, और एकाग्र ध्यान। कृष्ण ने इंद्र को हराया, वास लेने वाले देवों को भगाया, खाने वाले देवों को प्रतिष्ठित किया, हाड़, खून, मांस वाले मनुष्य को देव बनाया, जन-गण में भावना जाग्रत की कि देव को आसमान में मत खोजो, खोजो यहीं अपने बीच, पृथ्वी पर। पृथ्वी वाला देव खाता है, प्यार करता है, मिलकर रक्षा करता है। कृष्ण जो कुछ करता था, जमकर करता था, खाता था जमकर, प्यार करता था जमकर, रक्षा भी जमकर करता था : पूर्ण भोग, पूर्ण प्यार, पूर्ण रक्षा।

कृष्ण की सभी क्रियाएं उसकी शक्ति के पूर इस्तेमाल से ओत-प्रोत रहती थीं, शक्ति का कोई अंश बचाकर नहीं रखता था, कंजूस बिल्कूल नहीं था, ऐसा दिलफेंक, ऐसा शरीर फेंक चाहे मनुष्यों से संभव न हो, लेकिन मनुष्य ही हो सकता है, मनुष्य का आदर्श, चाहे जिसके पहुंचने तक हमेशा एक सीढ़ी पहले रुक जाना पड़ता हो। कृष्ण ने खुद गीत गाया है स्थितप्रज्ञ का, ऐसे मनुष्य का जो अपनी शक्ति का पूरा और जमकर इस्तेमाल करता हो। ‘कूर्मोगानीव’ बताया है ऐसे मनुष्य को। कछुए की तरह यह मनुष्य अपने अंगों को बटोरता है, अपनी इंद्रियों पर इतना संपूर्ण प्रभुत्व है इसका कि इंद्रियार्थों से उन्हें पूरी तरह हटा लेता है, कुछ लोग कहेंगे कि यह तो भोग का उल्टा हुआ। ऐसी बात नहीं। जो करना, जमकर – भोग भी, त्याग भी। जमा हुआ भोगी कृष्ण, जमा हुआ योगी तो था ही। शायद दोनों में विशेष अंतर नहीं। फिर भी, कृष्ण ने एकांगी परिभाषा दी, अचल स्थितप्रज्ञ की, चल स्थितप्रज्ञ की नहीं। उसकी परिभाषा तो दी तो इंद्रियार्थों में लपेटकर, घोलकर।

कृष्ण खुद तो दोनों था, परिभाषा में एकांगी रह गया। जो काम जिस समय कृष्ण करता था, उसमें अपने समग्र अंगों का एकाग्र प्रयोग करता था, अपने लिए कुछ भी नहीं बचता था।अपना तो था ही नहीं कुछ उसमें। ‘कूर्मोगानीव’ के साथ-साथ ‘समग्र-अंग-एकाग्री’ भी परिभाषा में शामिल होना चाहिए था। जो काम करो, जमकर करो, अपना पूरा मन और शरीर उसमें फेंक कर। देवता बनने की कोशिश में मनुष्य कुछ कृपण हो गया है, पूर्ण आत्मसमर्पण वह कुछ भूल-सा गया है। जरूरी नहीं है कि वह अपने-आपको किसी दूसरे के समर्पण करे। अपने ही कामों में पूरा आत्मसमर्पण करे। झाड़ू लगाए तो जमकर, या अपनी इंद्रियों का पूरा प्रयोग कर युद्ध में रथ चलाए तो जमकर, श्यामा मालिन बनकर राधा को फूल बेचने जाए तो जमकर, अपनी शक्ति का दर्शन ढूंढ़े और गाए तो जमकर।

कृष्ण ललकारता है मनुष्य को अकृपण बनने के लिए, अपनी शक्ति को पूरी तरह ओर एकाग्र उछालने के लिए। मनुष्य करता कुछ है, ध्यान कुछ दूसरी तरफ रहता है। झाड़ू देता है फिर भी कूड़ा कोनों में पड़ा रहता है। एकाग्र ध्यान न हो तो सब इंद्रियों का अकृपण प्रयोग कैसे हो। ‘कूर्मोगानीव’ और ‘समग्र-अंग-एकाग्री’ मनुष्य को बनना है। यही तो देवता की मनुष्य बनने की कोशिश है।

देखो, मां, इंद्र खाली वास लेता है, मैं तो खाता हूं। आसमान के देवताओं को जो भगाए उसे बड़े पराक्रम और तकलीफ के लिए तैयार रहना चाहिए, तभी कृष्ण को पूरा गोवर्धन पर्वत अपनी छोटी उंगली पर उठाना पड़ा। इंद्र को वह नाराज कर देता और अपनी गउओं की रक्षा न करता, तो ऐसा कृष्ण किस काम का। फिर कृष्ण के रक्षा-युग का आरंभ होने वाला था। एक तरह से बाल और युवा-लीला का शेष ही गिरिधर लीला है। कालिया-दहन और कंस वध उसके आसपास के हैं। गोवर्धन उठाने में कृष्ण की उंगली दु:खी होगी, अपने गोपों और सखाओं को कुछ झुंझला कर सहारा देने को कहा होगा। मां को कुछ इतरा कर उंगली दु:खने की शिकायत की होगी। गोपियों से आंख लड़ाते हुए अपनी मुस्कान द्वारा कहा होगा। उसके पराक्रम पर अचरज करने के लिए राधा और कृष्ण की तो आपस में गंभीर और प्रफल्लित मुद्रा रही होगी। कहना कठिन है कि किसकी ओर कृष्ण ने अधिक निहारा होगा, मां की ओर इतरा कर, या राधा की ओर प्रफुल्ल होकर। उंगली बेचारे की दुख रही थी। अब तक दुख रही है, गोवर्धन में तो यही लगता है।

प्रख्‍यात समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया के निबंध ‘कृष्‍ण’ के संपादित अंश साभार

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