कविता कृष्णपल्लवी के एक सघन काव्य बिंब * का लकानियन विश्लेषण
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- अरुण माहेश्वरी
प्रख्यात मार्क्सवादी चिंतक और लेखक
एक दिलचस्प और चौंकाने वाला सघन बिंब जिसकी बहुस्तरीयता इसकी थोड़ी विस्तृत मनोविश्लेषणात्मक व्याख्या के लिए उकसाती है।
पहाड़ों की शाम का आनंद इसमें क्रमशः एक ऐसी दृश्यात्मक संरचना में ढलता है, जो समय, स्मृति और अस्तित्व की परतों को खोलती है। यह कविता जिस उदासी और रंगों की बहुलता को एक साथ समेटे हुए है, वह हमें निर्मल वर्मा के अंतिम अरण्य के उन बिंबों की याद दिलाती है, जहाँ पहाड़ की ढलती शाम में दूर जलती लालटेनें किसी धीमे, बेआवाज़ जुलूस की तरह दिखती हैं- एक छायाभास, जो न तो पूरी तरह भूतकाल में स्थित है और न ही वर्तमान में। वह लालटेनें एक तरह की आखिरी रोशनी हैं, जो समय की धुंध में खो जाने से पहले टिमटिमाती हैं।
इस कविता में पहाड़ों की सांध्य-छाया उसी धूसरता को पुनरावृत्त करती है। सुरमई रंग की चादर धीरे-धीरे खेतों पर उतरती है- यह रंगों का एक समायोजन है, जो किसी इम्प्रेशनिस्ट चित्रकार की तरह दृश्य को पिघलाता चला जाता है। जैसे मोने की तूलिका घाटी के प्रसार को उकेर देती है, वैसे ही इस कविता में प्रकृति के विभिन्न तत्व (आकाश, वनस्पति, पशु, स्त्रियाँ) एक बड़े दृश्यात्मक आख्यान में रूपांतरित हो जाते हैं। यहाँ “आग का लाल गोला” क्षितिज में लुढ़कता हुआ सिर्फ एक प्राकृतिक घटना नहीं, बल्कि समय के अंतःस्राव का प्रतीक है।
इस दृश्य के भीतर एक “उत्तर-आधुनिकतावादी विचार” का उल्लेख विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। “एक निरुद्देश्य सड़क पर चहलकदमी करता काला भोटिया कुत्ता”- यह आकृति सिमोनोनियन (Simondonian) ** अर्थों में “पूर्व-व्यक्तिकरण” (pre-individual) की स्थिति को इंगित कर सकती है, जहाँ अर्थ और लक्ष्य विघटित हो जाते हैं। उत्तर-आधुनिकता के संदर्भ में यह विचार अधिक स्पष्ट होता है: न तो कोई केंद्रीय संरचना बची है, न कोई महाख्यान, और न ही कोई स्थायी लक्ष्य। पहाड़ों की इस शाम में सब कुछ किसी अनिश्चित प्रतीक्षा में डूबा हुआ प्रतीत होता है।
इसी निरुद्देश्यता में कोई लापरवाह होकर अतीत के रस का पान करता है, जैसे “एकाकी शापित देवदारु तले बैठी लड़की माल्टा चूस रही है, जैसे पिछली सदी का कोई सपना।” यह सिर्फ अतीत के प्रति रूमानी झुकाव नहीं, बल्कि उस स्मृति की ओर लौटने की एक अन्यमनस्क कोशिश है, जो अब केवल एक objet petit a (लकान का वह ऑब्जेक्ट जो आनंद की हमेशा अपूर्ण, विलंबित संभावना की ओर संकेत करता है) के रूप में मौजूद है। यहाँ लकान का संकेतक का स्वायत्त खेल (Autonomy of the Signifier) स्पष्ट रूप से दिखता है: दृश्य वास्तविकता में मौजूद नहीं, बल्कि संकेतकों की एक निरंतर रचना में बदल जाती है ।
इस पूरी कविता के दृश्यपट पर लकान का “उल्लासोद्वेलन” (Jouissance) बिखरा हुआ है। मोने की तूलिका और रंग, चाँदनी की स्निग्धता, और स्वप्निल घाटी- ये सब आनंद सिद्धांत (Pleasure Principle) की पारंपरिक सीमाओं को पार करते हुए उल्लासोद्वेलन के क्षेत्र में प्रवेश कर जाते हैं। आनंद एक संतुलित, स्थिर अवस्था है, लेकिन उल्लासोद्वेलन उस सीमा का अतिक्रमण करता है जहाँ सुख और असहनीयता एक हो जाते हैं।
मसलन, “बदन रगड़ रही बूढ़ी गाय”- यह क्रिया विशुद्ध रूप से आनंद नहीं, बल्कि एक ऐसी स्थिति को दर्शाती है जहाँ शरीर एक सीमांत अनुभव की तलाश में है।
“चाँदनी का अवाँगार्द हिरन इन्हें चर जायेगा”- यहाँ उल्लासोद्वेलन की वह प्रवृत्ति दिखती है, जहाँ सौंदर्य और विध्वंस एक-दूसरे में घुल-मिल जाते हैं। चाँदनी का हिरन अवाँगार्द कला का प्रतिनिधि है, और यह दृश्यात्मक सौंदर्य को मिटा देने के लिए प्रस्तुत होता है।
“स्वप्नहीनता के शिकार स्वच्छंदतावादी पखेरू”- स्वप्नहीनता उल्लासोद्वेलन की अंतिम अवस्था हो सकती है, जहाँ प्रतीकों के माध्यम से स्वयं की रचना असंभव हो जाती है।
इस कविता में “प्राच्य निरंकुशता का सीपिया रंग” और “सबाल्टर्न कोलाहल” का संदर्भ हमें और भी दिलचस्प संकेत देता है। यह वाक्यांश न केवल औपनिवेशिक अतीत और उसकी निरंतरता को इंगित करता है, बल्कि आधुनिकता के उस निहित संघर्ष को भी उजागर करता है, जहाँ सांस्कृतिक संरचनाएँ अपने ही अंतर्विरोधों में फँस जाती हैं। पंचायत घर में बैठे सयानों को “सब कुछ पता होता है”- यह सामाजिक संरचनाओं की उन निहित सत्ता रणनीतियों की ओर संकेत करता है, जो उत्तर-आधुनिक संदर्भ में एक निरंतर चलने वाले षड्यंत्र की तरह लगती हैं।
लकान के विमर्श में, यह “नाम-का-पिता” (Name-of-the-Father) का विघटन है- जहाँ परंपरा की कठोर व्यवस्था विखंडित हो जाती है और नया कोई निश्चित अर्थ नहीं देता। यही कारण है कि कविता का अंत इस प्रश्न से होता है: “अच्छी ख़बरों की उम्मीद इन दिनों भला कहाँ किसी को होती है?” यह केवल यथार्थवादी निराशा नहीं, बल्कि विमर्श के ढहने की स्वीकृति भी है।
इस प्रकार, कविता अंततः स्वयं एक उल्लासोद्वेलन का रूप ले लेती है। यह एक स्टिललाइफ पेंटिंग की तरह है, जिसमें गति अदृश्य है, परंतु अस्तित्वमान भी है। यही वह बिंदु है जहाँ यह कविता अंतिम अरण्य के उत्तर-आधुनिक रूपांतरण को पूर्ण कर देती है। निर्मल वर्मा की लालटेनें जो एक निश्चित स्मृति को संरक्षित करने की कोशिश कर रही थीं, वे यहाँ प्रकाश और अंधकार के बीच फैले किसी liminal space में विलीन हो जाती हैं।
यह कविता न तो केवल सौंदर्य का बखान है और न ही केवल सामाजिक यथार्थ का निरूपण। यह “आनंद सिद्धांत” और “उल्लासोद्वेलन” के बीच की उस झीनी दीवार को पार करने का प्रयास है, जहाँ विचार, दृश्य और भाषा अपनी स्थिरता खो देते हैं और केवल प्रभावों के स्तर पर मौजूद रहते हैं- एक अवचेतन रंग-संकेत श्रृंखला की तरह।
यहाँ, जीवन के “नए जादुई आख्यान” का संकेत दिया गया है, परंतु यह आख्यान अपने भीतर “संकेतों का एक अंतहीन खेल” (infinite play of signifiers) ही रह जाता है क्योंकि हर उत्तर आधुनिकता, अंततः, एक नए सिरे से अपने ही पूर्वज की वापसी है।
* पहाड़ों की शाम की बहुरंगी उदासी का क़सीदा
सुरमई रंग की एक चादर
मन्द-मंथर गति से लहराती हुई
हरी कच्ची बालियों वाले गेहूँ के
सीढ़ीदार खेतों पर उतर रही है।
रोशनी पीली पड़ती हुई
ऊपर चोटियों की ओर
खिसकती जा रही है।
सामने आग का लाल गोला
नीचे की ओर तेज़ी से
लुढ़कता जा रहा है।
चारे का गट्ठर लिये एक बूढ़ी स्त्री
चढ़ रही है ऊपर बस्ती की ओर।
एक पुरानी उम्मीद की मद्धम पड़ती पुकार।
निरुद्देश्य सड़क पर चहलकदमी
कर रहा है काला भोटिया कुत्ता।
एक उत्तर-आधुनिकतावादी विचार।
अखरोट के सख़्तजान दरख़्त से
बदन रगड़ रही है एक बूढ़ी गाय।
प्राच्य निरंकुशता का सीपिया रंग
चमकता हुआ सबाल्टर्न कोलाहल में।
आसमान के अदृश्य आँसुओं से
भीग रहा है
एकाकी शापित देवदारु तले बैठी लड़की का
नीला स्कार्फ
और वह बेख़बर माल्टा चूस रही है
जैसे पिछली सदी का कोई सपना।
प्यार पर एक अराजनीतिक कविता।
सहसा बुरांश के झुरमुट से
उड़ता है एक मुनाल
और इम्प्रेशनिस्ट पेंटिंग के फ्रेम से
बाहर निकल जाता है।
क्लोद मोने झुँझलाते हुए ब्रश और पैलेट
ढलान पर फैली झाड़ियों में फेंक देते हैं।
रंग बिखर जाता है इधर-उधर
पत्तों और घास पर।
जल्दी ही चाँदनी का अवाँगार्द हिरन
इन्हें चर जायेगा
और धूसर विचारों में सराबोर
स्वप्नहीनता के शिकार
रात के सभी स्वच्छंदतावादी पखेरू
इस दुखद घटना के बारे में चुप रहेंगे।
एक अनुर्वर शाम
निर्दोष भोली आत्माओं के शिकार के लिए
घात लगा रही है।
रात में डोलेंगी बेरहम बुराइयों की
रहस्यमय परछाइयाँ
और पंचायत घर की कोठरी में बैठे सयानों को
सबकुछ पता होगा
कि कल कब-कब कहाँ-कहाँ
कितनी हत्याएँ होंगी!
अच्छी ख़बरों की उम्मीद इनदिनों भला
कहाँ किसी को होती है?
हर स्टिललाइफ़ पेंटिंग में
अदृश्य होती है जीवन की गति।
विचारों के पहरे में
जो कविताएँ जागती रहती हैं सारी रात
वही कई-कई रातों और दिनों के
गुज़रने के बाद
किसी एक सुबह
जीवन का एक नया जादुई आख्यान
लेकर आती हैं।
** एक फ्रांसीसी दार्शनिक गिल्बर्ट सिमोंदों (1924-1989) जिन्होंने मुख्य रूप से तकनीक, व्यक्ति (individual) और रूपांतरण (individuation) की प्रक्रियाओं पर विचार किया। वे अस्तित्व को केवल पूर्ण “व्यक्तिगत” (individual) स्तर पर देखने के बजाय, उसके बनने की प्रक्रिया को समझने पर बल देते हैं।
सिमोंदों के अनुसार, “व्यक्ति” कोई स्थिर और अंतिम इकाई नहीं होता, बल्कि वह रूपांतरण (individuation) की प्रक्रिया से बनता है। इस प्रक्रिया से पहले, अस्तित्व एक “पूर्व-व्यक्तिक” (pre-individual) अवस्था में होता है। यह अवस्था एक संभाव्य (potential) स्थिति होती है, जिसमें व्यक्ति बनने के अनेक आयाम और संभावनाएँ संचित होती हैं, लेकिन वे अभी निष्क्रिय होती हैं। “पूर्व-व्यक्तिक” (pre-individual) अस्तित्व की एक ऐसी अवस्था है, जिसमें व्यक्ति बनने की असंख्य संभावनाएँ संचित होती हैं, लेकिन वे अभी निष्क्रिय होती हैं। यह अवस्था स्थिर नहीं होती, बल्कि इसके भीतर एक गतिशील ऊर्जा होती है, जो सही परिस्थितियों में सक्रिय होकर व्यक्तिकरण की प्रक्रिया को जन्म देती है। इस दृष्टि से, व्यक्ति कोई पूर्ण इकाई नहीं, बल्कि लगातार बनने वाली (becoming) प्रक्रिया का हिस्सा होता है।