बंसीलाल परमार, प्रख्यात फोटोग्राफर
गंगधार चौमहला (जिला झालावाड़ राजस्थान) तथा इसके आसपास के गांव मिट्टी के बर्तनों के लिये बहुत प्रसिद्ध हैं। यहां कुम्हार मटके, घड़े, भोजन पकाने की हांडी, दोणी, रोटी सेंकने के कडेले, उंधेले तथा आटा गूंथने की मिट्टी की थाली जिसे दातली कहते हैं, आदि मिट्टी के बर्तन बनाते हैं।
पुराने जमाने में धोरी कलश में चार बड़े मटके तथा उनके ऊपर आकार के क्रमानुसार छोटे मटके तथा सबसे उपर गुबडा़ ढ़ंका जाता था। विवाह में कुम्हार की भूमिका महत्वपूर्ण थी। विवाह में सर्वप्रथम चाक की पूजा होती थी जिसे चाक नोतना कहते थे। आजकल धोरी कलश की जगह टेंटहाउस के रेडिमेड रंगे हुए धातुओं के कलश मिलने लगे हैं। या स्टील बर्तन की दुकान पर किराये से मिलने लगे हैं। कुल मिलाकर परंपरागत संबंध खत्म होते गये।
कुम्हार के कार्य में भी परिवर्तन आया है। लकड़ी द्वारा घुमाया जाने वाला चाक आजकल बिजली से चलने लगा है। गधे पर मिट्टी लाने का काम ट्रैक्टर पर निर्भर हो गया है। बेचने के लिये फेरी लगाने के लिए मोटरसाइकिल का प्रयोग होने लगा है। इससे ज्यादा और दूर-दूर तक सामान बेचने की सुविधा मिली है। मटके के स्वरुप आज भी वही हैं लेकिन अब उन पर तरह-तरह की डिजाइन उकेरी जाने लगी है। सुविधा बढ़ाते हुए नल वाले मटके भी मिलने लगे हैं।
पुरुष चाक पर काम करता है। महिलाएं गेरु से मटके पर डिजाइन बनाती हैं। शेष काम दोनों साथ साथ करते हैं। आकार के अनुसार मटके के भाव हैं। मटके का पानी फ्रीज के पानी से अच्छा होता है और तृप्ति देता है। यह पारंपरिक रूप से रेफ्रिजरेटर का कार्य कर रहा है। मटकों के छिद्र से पानी रिसता है और सतह से वाष्पित हो जाता है। सतत चलने वाली यह प्रक्रिया मटके की सतह को नम रखती है। इस तरह मटके के अंदर पानी का तापमान होता जाता है। खासबात यह है कि बाहर गर्मी जितनी अधिक होगी,शीतलन का प्रभाव उतना ही अधिक होगा। यानी मटके का पानी उतना ही अधिक ठंडा होगा। यह पानी सेहत के लिए काफी अच्छा माना जाता है। विशेषज्ञ बताते हैं कि ठंडा होने के बाद भी मटके का पानी फ्रिज के पानी जितना नुकसान नहीं पहुंचाता है। RO पानी को फिल्टर करने के दौरान उससे जरूरी पोषक तत्वों को भी बाहर कर देता है, जबकि मटका प्राकृतिक छन्नी की तरह है। मटके का पानी आयरन की कमी दूर करने में भी सक्षम होता है।
मानव इतिहास को देखें तो पाषाणकाल के शुरूआती 3 कालों तक बर्तनों प्राप्त नही होते। मध्य पाषाण काल, नवपाषाणकाल और ताम्र पाषाण काल के दौरान बर्तन का निर्माण मिलता है। पाषाणकाल मे चाक नहीं थे इसलिए अलग-अलग विधियों से बर्तन बनाए जाते थे। नवपाषाण काल के दौरान मिट्टी के बर्तनों में काफी बदलाव हुआ। चाक की खोज हो जाने के बाद से मिट्टी के बर्तनों की सूरत ही बदल गई।
दुनिया में अब तक की सबसे प्राचीनतम बर्तन का अवशेष चीन से प्राप्त हुआ जिसकी तिथि तकरीबन 18,000 ईसा पूर्व है। भारत में प्राचीनतम बर्तन के अवशेष उत्तर प्रदेश के लहुरदेवा से प्राप्त हुए जिसे 7,000 ईसा पूर्व का माना जाता है। बर्तन पर बनी कलाकृतियां तत्कालीन संस्कृति से परिचय करवाती है।
इतना सब जानने के बाद यही कहा जा सकता है कि आइए, मिट्टी के मटकों को अपनाएं, सेहत पाएं तथा अति ऐतिहासिक परपंरा कायम रखें, इसे मृत न होने दें।