वक्त हमारा है: घड़ी, समय और जादूगर दोस्त की याद
पूजा सिंह, स्वतंत्र पत्रकार
फोटो: गिरीश शर्मा
मुझे समय से बहुत प्रेम है इसलिए मुझे घड़ियों से भी बहुत प्रेम है। आप इसका उलटा भी समझ सकते हैं। जीवन के बहुत सारे पलों में कुछ खास पल हम सभी को प्रिय होते हैं और हमेशा याद रह जाते हैं। यह भूमिका इसलिए क्योंकि आज मेरी वह घड़ी दोबारा बनकर आई है जो मेरे एक प्रिय मित्र ने 16 साल से भी अधिक पहले जन्मदिन के तोहफे में दी थी।
यह उस समय के हिसाब से और शायद आज के नजरिये से भी एक महंगा तोहफा था और मैं इसे लेना नहीं चाहती थी। बहरहाल, मुझे अपने दोस्त की जिद के आगे झुकना पड़ा। इस झुकने में थोड़ी भूमिका इस बात की भी थी कि चलो कम से कम एक मित्र तो है जो मुझे इतनी अच्छी तरह समझता है, जिसे पता है कि मुझे घड़ियों का शौक है।
लंबे समय से मैं इसे पहन नहीं पा रही थी क्योंकि इसकी एक पिन गिर गई थी जो मिल नहीं रही थी। यह इंतजार अब समाप्त हो गया है और मुझे अतीत की स्मृतियों में धकेल गया है। यह शायद अगस्त 2008 की कोई शाम थी जब हम दिल्ली के कनॉट प्लेस पर मिले और उसने बिना किसी पूर्व भूमिका के मुझे टाइटन के शोरूम में ले जाकर यह घड़ी पहना दी। मेरा किस्सागो दोस्त मेरी हिचकिचाहट को भांप चुका था और उसने अपनी कहानी कला का वार भी तत्काल ही मुझ पर कर दिया, “सुनो पूजा तुम इसे लेने से मना नहीं कर सकती। यह तुम्हारा वक्त है। तुम इसे जैसे चाहो वैसे इस्तेमाल करो। जिस तरह चाहो जियो, तुम्हें कोई रोक नहीं सकता।”
मैंने दोस्त की बातों को लिटरली ले लिया और उसका यह महंगा तोहफा कुबूल कर लिया। वहां से मैं सीधे अपने अखबार के दफ्तर में पहुंची। दोस्त की बातों ने मेरे दिलोदिमाग पर एक तरह से मरहम का काम किया था क्योंकि उस दफ्तर में मैं ऐसे क्षेत्रीय और जातिवादी गिरोहबंधी से जूझ रही थी जिसे याद करके आज भी मेरा मन कड़वा हो जाता है। मैं आज डेढ़ दशक बाद लिख रही हूं और उन यादों को दोबारा जीते हुए डर रही हूं कि मुझे ही ऐसे दिन क्यों देखने पड़े? फिर मुझे लगता है कि शायद मुझसे कमजोर कोई लड़की होती तो? उसका क्या होता?
मैं समय पर अपने दफ्तर जाती। मैं एक बड़ी वेबसाइट से काम करके देश के एक बड़े अखबार के नेशनल ब्यूरो में पहुंची थी। अखबार के काम मुझे थोड़े कम आते थे लेकिन मैं किसी पुरुष सहकर्मी से काम में मदद लेने के बदले उसके साथ चाय-कॉफी पीने नहीं जाती थी जैसा कि उन दिनों उस जगह पर चलन हुआ करता था। मेरा वेतन भी ठीकठाक था। मैं स्त्री थी, मैं एक जाति विशेष की नहीं थी, मेरा वेतन अच्छा था, मैं सीधे बॉस को रिपोर्ट करती थी और मैं अनावश्यक मेलजोल में यकीन नहीं रखती थी। इतने दुर्गुण मेरे खिलाफ गिरोहबंदी के लिए काफी थे।
मैंने ये भूमिका इसलिए बांधी कि उस दिन जिस दिन मेरा जन्मदिन था और मेरे दोस्त ने मुझे यह सुंदर घड़ी भेंट में देते हुए कहा था कि वक्त तुम्हारा है, ठीक उसी दिन लगभग उसी समय नियति ने मेरे लिए कुछ और तय कर रखा था। मैं दफ्तर पहुंची तो मुझे चीफ एडिटर यानी मेरे बॉस के कमरे में तलब किया गया। वहां खलों की एक मंडली पहले से प्रतीक्षारत थी। बॉस ने मुझे खड़ा करके एकतरफा और निर्णायक ढंग से आरोपों की झड़ी लगा दी थी। मैं सबकुछ सुनते हुए भी नहीं सुन रही थी। मुझे लग रहा था कि आज मेरा जन्मदिन है। मैं एक अच्छी शाम की याद और एक प्यारी भेंट के साथ दफ्तर आई हूं और मुझे यह सब क्या सुनना पड़ रहा है। मन के किसी कोने से एक आवाज आई, “पूजा, व्हाट आर यू डूइंग हियर। यू डोंट डिजर्व दिस शिट!” (पूजा तुम यहां क्या कर रही हो? तुम कम से कम इन चीजों को झेलने के लिए नहीं बनी हो)।
मैं उस चिल्ला-चोट के बीच अचानक मुस्करा उठी। सामने वाला पक्ष हतप्रभ था। उसे वह रिएक्शन नहीं मिल पा रहा था जिसके लिए मुझे तलब करवाया गया था। आप समझे मैं क्यों मुस्करा रही थी…? क्योंकि मैं इस आवाज को पहचान गई थी जिसने मुझे कहा था कि इस चिरकुटई से बाहर निकलो। यह मेरे प्यारे दोस्त की आवाज थी जो मेरे भीतर से आई थी।
आज यह घड़ी तब बनकर आई है जब मैंने घड़ी पहनना ही छोड़ दिया है। पारंपरिक घड़ी की जगह जाने कब स्मार्ट वॉच ने ले ली है। वैसे भी सच कहूं तो मैंने तो इसके बनने की उम्मीद ही छोड़ दी थी। अब जबकि यह घड़ी मेरी कलाई पर दोबारा सज चुकी है। मुझे अपने दोस्त की बहुत याद आ रही है। दोस्त अब भी मेरा दोस्त है लेकिन जैसा कि समय के साथ होता है। डेढ़ दशक में हम दोनों का जीवन, हमारी जिम्मेदारियां और प्राथमिकताएं बहुत बदल गई हैं। वो क्या गीत है गीता दत्त का, वक्त ने किए क्या हंसी सितम, हम रहे न हम तुम रहे न तुम।
टु डू लिस्ट में जोड़ लिया है। दोस्त को फोन करना है और इस पूरे वाकये को दोबारा याद करना है, उसे जीना है। दोस्त से कहना है फिर कुछ जादुई बात बोल दो मेरे यार! शायद दफ्तर की उस शाम की तरह कुछ अनोखा घटित हो जाए और मैं मुश्किलों से चमत्कारी ढंग से कुछ और आजाद हो जाऊं।