फोटो: खुरचन एमपी के सतना की प्रख्यात मिठाई है जो शुद्ध दूध को पका कर उसकी परत से तैयार की जाती है। माना जाता है कि नागौद राजघराने के दरबारी पंडित वैद्यनाथ ने इसे सबसे पहले तैयार किया था। खुरचन की मांग विदेशों तक में है। पहले इसे फेरी लगा कर आसपास के जिलों में बेचा जाता था।
इस तरह मैं जिया-4: फेरीवाला टेर लगाता था, ‘आ गया खुरचन–मलाई वाला… नागौद वाला…
कहते हैं होनहार बिरवान है होत है चीकने पात या पूत के पांव पालने में दिखाई देते हैं। यानी बचपन में तय हो जाता है कि भविष्य किस दिशा में विस्तार लेगा। हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
पन्ना: 1973-75
पन्ना में हमारे घर को सु-व्यवस्थित रखने के लिए और मम्मी, पापा की मदद के लिए चार व्यक्ति थे। एक थे पंडित, जो रसोई संभालते, उन दिनों चूल्हे पर खाना बनता था। पीतल की बटलोई में दाल चढाई जाती जिसमें खड़ा नमक और हल्दी डाली जाती। खद–बद बनती दाल जब पक जाती तो मां एक दिए में घी रख के उसे अंगारों पर रखती, जब दीया लाल हो जाता तब उसमें जीरा और हींग का छोटा सा टुकड़ा छोड़ा जाता और दीये को बटलोई में छोड़ दिया जाता। सिल-बट्टे पर सुबह शाम मसाला पिसता जो सब्जी के लिए इस्तेमाल होता।
लाइफबॉय साबुन लड़कों के लिए और लक्स महिलाओं के लिए इस्तेमाल होता। उन दिनों हर तरह के खर्चों में किफायत बरतने का रिवाज था। चाकू से काट कर लाइफबॉय के दो टुकड़े किए जाते; एक नहाने के लिए और दूसरा हाथ धोने के लिए। उस दिन भी यही हुआ। साबुन को काटा गया और चाकू वापस रसोई में पहुंचा। अब पंडित जी इस बात से बेखबर थे। उन्होंने उसी चाकू से सब्जी काटी। फिर क्या था, सब्जी में तंदरुस्ती की रक्षा करने वाले लाइफबॉय की खुशबु व्याप्त थी। हमने दाल से ही काम चलाया।
दूसरे सज्जन थे कल्लू। उनके जिम्मे बाहर के काम थे। मसलन, ठक्कर जी के यहां से दूध लाना। मुझे उनके साथ भेजा जाता। कल्लू भाई साइकिल पर मुझे बैठाते और पहले बस स्टैंड जाते। चाय के शौकीन थे। और सच कहूं, तो मै भी। वहां की चाय का स्वाद आज तक याद है। मेरे और कल्लू भाई के बीच यह बात गुप्त रही और चाय मेरे लिए मुफ्त रही।
तीसरे सज्जन थे धन्नू। अपने काम से काम रखते और जरूरत पड़ने पर ही बोलते। उनके जिम्मे घर की साफ-सफाई, गाय की देखभाल, आदि काम थे। इन सभी की एक खासियत थी हम बच्चों के प्रति प्यार और सम्मान।
पर मेरे हीरो थे, देवीदयाल शर्मा। वे वहां चालक थे। एक चमचमाती साइकिल पर आते जिसके काले चेन-कवर पर उनका पूरा नाम सफेद रंग से लिखा हुआ था। मुझे उनसे ज्यादा खुशनसीब और खुशमिजाज व्यक्ति कोई नहीं दिखता था। उनके होठों पे हमेशा कोई फिल्मी गाना रहता और वो बड़ी लगन से जीप की सफाई करते।
साधनालय स्कूल की तरफ से हमें एक बार जबलपुर ले जाया गया। एक बड़ी सी साफ-सुथरी इमारत में हमारे ठहरने और खाने का इंतजाम था। मेरी दोनों दीदियां भी इस यात्रा की साथी थीं। हमारे रहवास के पीछे एक मैदान था जिसमें एक छोटा सा घर था। अजीब बात ये थी कि उस परिवार का बड़ा लड़का जिसका हिप्पियों जैसा पहनावा और लंबे बाल थे, कौओं को पकड़ता और उन्हें एक कपडे सुखाने वाली रस्सी पे लटका देता। फिर तमाम कौए शोर मचाते हुए आते और अपने साथी को मुक्त करने की अपील करते। जबलपुर हमें क्यों ले जाया गया था, ये तो याद नहीं पर मेरे कमरे से दिखने वाला यह दृश्य मुझे जरूर याद है।
हमारे नाश्ते और खाने के लिए हम सब एक बड़े से dining hall में पहुंचते, जहां लंबी सी टेबल पर हमें खाना परोसा जाता। तब तक पन्नावासी घर की रसोई में पाटे पर बैठ कर ही भोजन करने के आदी थे, इसलिए टेबल मैनर्स से भी अनभिज्ञ थे। हमारे टीचर्स ने पहली शाम ही हमें ज्ञान दिया और अगले दिन से ही हमने अच्छा प्रदर्शन किया।
ट्रेन और गाड़ियों के प्रति मेरे रुझान के मद्देनजर पापा ने मुझे एक खिलौना इम्पाला कार और एक मोनो ट्रेन गिफ्ट की। दोनों बैटरी से चलने वाले खिलौने थे। मेरी याद में मुझे इससे अच्छी और शानदार गिफ्ट फिर कभी ना मिलीं।
जैसा, मैंने पहले भी जिक्र किया, पन्ना के लगभग हर घर में कुआं या कुइयां थी। हमारे आंगन में भी एक बड़ा सा कुआं था। घर की लगभग सारी जरूरत का पानी उससे ही खींचा जाता। इस प्रक्रिया में कभी रस्सी टूटने या लापरवाही के कारण बाल्टियां कुएं में ही गिर जातीं। सो लगभग हर 3-4 महीने में कुएं में कांटा डाला जाता और उन डूबे हुए बर्तनों को निकाला जाता।
बहरहाल, एक बार ऐसा हुआ कि कांटा किसी भारी चीज में फंस गया। खींचने पर भी उसे ज्यादा नहीं उठा पाए। वो मकान पन्ना के राजवंश का था, इसलिए ये राय बनी कि हो न हो, कोई खजाने का बड़ा सा संदूक भी हो सकता है। फिर क्या था, हम सब मिलकर उसे खीचने की कोशिश में जुट गए। दिन के बजाय ये प्रक्रिया रात में के जाने लगी ताकि किसी और को खबर न लगे। खैर, काफी दिनों की मशक्त के बाद इस प्रयास को छोड़ दिया गया। इस बात से संतोष किया कि या तो वो किसी पेड़ की जड़ है या वो खजाना हमारी किस्मत में नही है। पर उसने जो सनसनी हम बच्चों में फैलाई, वो अतुल्य थी।
पन्ना तुझे सलाम।
पन्ना में, मैं अपनी उम्र के दस बरस तक रहा पर उसकी यादें आज भी अमिट हैं। पन्ना का पन्ना समेटने से पहले उन्हें याद करना लाजमी है। कुछ यादें इस प्रकार हैं;
गैंग: मेरे कुछ दोस्तों को लगा कि अब समय आ गया है कि हमें हमारी एक गैंग बनानी चाहिए। उसका सरदार कौन होगा ये इस बात पर निर्भर था कि हम में से कौन ऐसा है जो गैंग के लिए कम-से-कम एक हथियार हासिल कर ले ताकि हम अपनी (काल्पनिक) दुश्मन गैंग का सामना कर सकें। हमारे घर का एक कमरा स्टोर रूम की तरह इस्तेमाल होता था, जहां तरह-तरह की चीजें जो वर्तमान में इस्तेमाल में नहीं आती थीं, उनका अंबार लगा रहता। इनमें से मुझे कुछ बिजली/टेलीफोन के तार काम के लगे। मैंने उनको गूंथ के एक हंटर बनाया। हमारे दोस्तों की एक गुप्त मीटिंग हुई, जिसमें मैंने इस हंटर का प्रदर्शन किया। शर्त यही थी कि जब भी मै इसका प्रयोग धीरे से अपने गैंग के मेंबर पर करूंगा, वो आह बोले। फिर मैं गर्व से कहूं, जब इतना धीरे से लगा तो आह निकली,जब इसे दुश्मनों पे पुरजोर मारा जाएगा तो क्या होगा? सबने स्वीकारा कि मैं बॉस बनने की योग्यता रखता हूं। ये बात अलग है कि उसका इस्तेमाल कभी न हुआ, न कभी गैंगवार हुई।
पुस्तकालय: हमारे मम्मी, पापा पढ़ने के बहुत शौकीन थे। हमारे घर हिंदी की बहुत सारी पत्रिकाएं आतीं। इनमें साप्ताहिक हिंदुस्तान और कादम्बिनी प्रमुख थीं। मां ने ऊपर के एक कमरे को पुस्तकालय बना दिया था। जहां हम सब बहन- भाई, अपनी गर्मियों के अवकाश में अपनी दोपहर पढ़ते हुए बिताते थे। वो घरेलू पुस्तकालय हमारे लिए एक संजीवनी था। जहां बिना लड़ाई लिए हम दोपहर बिताते, और मां भी निश्चिंत रहती। उस पुस्तकालय ने हमें देश-दुनिया के बारे में बहुत कुछ सिखाया और बताया।
बबलू: मेरे अनुज के घर का नाम। बचपन से ही वो बहुत आकर्षक था। अभी वो 3–4 वर्ष का था और मेरी दीदी उसे पोंड्स पाउडर से सजा–धजा के अपनी सहेलियों के सामने ले जाती। वो हाथों–हाथ लिया जाता। बाकी समय उसका अपने लकड़ी के घोड़े पे बीतता, और अपनी तुतलाती आवाज में वो “ओ चल रे घोड़े चल” वाली कविता गाता हुआ सभी को सम्मोहित करता। देवीदयाल शर्मा जी, सुबह उससे मिलते ही कहते, बबलू–मन–डब्लू। डब्लू एक्स वाई जेड।
चुंगी-नाका: उन दिनों हर नगर पालिका के नाके हुआ करते थे। जहां से गुजरने वाले ट्रक्स से चुंगी (tax) वसूला जाता। मैं जब कल्लू मामा के साथ बस-स्टैंड से चाय पी कर लौटता तो इसी तरह के एक नाके से गुजरते। वो ऊपर नीचे जाने वाला बैरियर और खड़े ट्रक मुझे बहुत आकर्षक लगते। तभी मैंने ठान लिया था की मैं एक ट्रक ड्राइवर बनूंगा, और मेरे पास एक Ashok Leyland ट्रक होगा। उसकी आवाज मुझे सम्मोहित करती थी।
दूसरा विचार जो मेरे मन में आया वो ये कि एक बैरियर बना लो और आने जाने वालों से टैक्स वसूलो। मैंने अपने घर के आंगन में ही एक बैरियर बनाया, और घोषणा की कि सब आने-जाने वालों को टैक्स देना होगा। ये अलग बात है, कि उस हाईवे का इस्तेमाल किसी ने न किया। मैं समझ गया कि बिजनेस और धौंस जमाना मेरे बस का नहीं। सम्भवतः इसलिए राजनीति और सरकारी नौकरी में जाने की, न कभी इच्छा रही, न ही प्रयास। मैने प्रण किया कि जितनी जल्दी हो, मैं डाइविंग सीखूं। और ड्राइवर वाला वह गरिमामय पद पर पहुंचूं और सारे ढाबे और पेट्रोल पंप जैसे महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों से वो स्वागत पाऊं जो किसी और के नसीब में नहीं।
सिर की चोट: आपने बहुतेरी फिल्मों में देखा होगा कि हीरो को या तो दिल पे, नहीं तो सिर पर गहरी चोट आती है जिसके कारण उसके शराबी बनने या उसके मेमोरी खोने का खतरा सामने खड़ा हो जाता है, और इंटरवल की स्लाइड आ जाती है! मेरी जिंदगी में भी यह हुआ। पन्ना में ही मैने तीन बार अपना सिर घायल करवाया।
पहली बार; बरसते पानी में (जब तीन-चार दिनों की लगातार बारिश सामान्य होती थी), मैं दौड़ते हुए रपट गया। दो-तीन बार वमन हुई। अस्पताल पंहुचाया गया। डॉक्टर ने बताया गुम चोट है, घातक हो सकती थी। इस के सिर का ख़याल रखना।
दूसरी बार: पन्ना के सिविल-सर्जन के घर हम डिनर के लिए गए। उनकी छत पर दौड़ते हुए सिर एक रौशनदान के प्रोजेक्शन पे दे मारा। इस बार खोपड़ी खुल गई। पांच टांकें आए। यहां तक तो ठीक था, क्योंकि हम सिविल सर्जन के होस्ट थे पर किस्मत। मुझे ATS का इंजेक्शन देने के पहले पैच–टेस्ट किया गया। कोई एडवर्स रिएक्शन नहीं हिं था। पूरा इंजेक्शन ठुकने के 15 मिनट में ही सारे बुदन पे दाने आ गए। अब उस का इलाज शुरू हुआ।
तीसरा: गर्मियों की छुट्टियों की एक दोपहर मैं अकेला हमारे उस कमरे में था जहां हम बहन-भाइयों की खेल-कूद सामग्री एक लकडी के रैक में रखी थी। एक कूदने की रस्सी जिसके दोनों सिरों पर लकड़ी का हैंडल था, उससे बैठे–बैठे ही खेलना शुरू किया। हैंडल इस बार रैक में फंसा और जब मैंने जोर दे कर खींचा तो वो गोली की रफ्तार से मेरे मस्तक के बीचों बीच लगा। मैं मम्मी के बगल में लेट गया और उसने महसूस किया कि मेरे शरीर का तापमान तेजी से गिर रहा है। अस्पताल। बेहोशी। कई दिनों तक एडमिट। मुझे पूरा विश्वास है कि डॉक्टर ने मेरे मम्मी–पापा से कहा होगा कि अब इसे दवा की नहीं, दुआ की जरूरत है क्योंकि इस घटना के बाद से, मेरा जहां भी नए स्कूल में एडमिशन होना होता, मम्मी हेड-मास्टर/प्रिंसिपल से जरूर कहती , देखिए इसके सिर पर कभी न मारिएगा। मुझे थोड़ी शर्म सी महसूस होती।
पन्ना का एक फेरीवाला भी मुझे याद आता है, जो टेर लगाता, ‘आ गया खुरचन–मलाई वाला। नागौद वाला।’
इस तरह मैं जिया-1: आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’
इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…
इस तरह मैं जिया-3: हम लखपति होते-होते बाल-बाल बचे…
सरसता और चुटीलेपन के साथ बात कहने की आपकी कला मोहित करने वाली है।
ऐसा लग रहा कि यह श्रृंखला चलती ही रहे।