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पंकज शुक्ला, पत्रकार-स्तंभकार
1
यहीं तो रखी थी। पता नहीं मिल ही नहीं रही है।
उसने रुआंसा होते हुए कहा।
उधर से ढांढस का स्वर आया, देखो यही कहीं होगी। रख कर भूल गई होगी। तुम अक्सर भूल जाती हो।
हां। काश! ऐसा हो कि भूल ही गई हूं।
वह कल से अपनी सोने की चेन खोज रही है। बात कीमत की नहीं थी। असल में वह पिता की एकमात्र निशानी थी और इस कारण उसका महत्व बेहद था।
हर संभावित जगह एक बार नहीं एक दर्जन बार देख ली गई थी। कोई कोना छोड़ा नहीं। मगर चेन का पता नहीं चल रहा था।
वह थक हार कर बैठ गई।
कुछ देर सोचते हुए उसने कहा- कहीं…
तुम भी वही सोच रही हो जो मैं?
इस वाक्य के साथ दोनों की नजरें टकराईं।
मन मानने को तैयार नहीं था। मगर शंका तो शंका है। एक बार घर कर गई तो कोई भी बचता नहीं है।
शक हो गया था कि घर में काम करने आने वाली सहायिका ने कहीं… दिल मानने को तैयार नहीं था, मगर तर्क चैन नहीं लेने दे रहा था।
अभी आएगी तो पूछ लेना।
हां कह तो दिया लेकिन मन बेचैन था। कैसे पूछुंगी, वह बुरा नहीं मान जाएगी। इतने साल हो गए। कभी कुछ इधर से उधर न हुआ। फिर अब कैसे…
वह बार-बार घड़ी देख रही थी। एक घंटा देरी हो गई अब तक आई नहीं। कहीं वह सच में गायब तो नहीं हो गई… आशंका को बल मिला जब पति ने निर्णय सुनाते हुए कहा-
मैं हमेशा कहता हूं। सब पर भरोसा न किया करो। मगर तुम हो कि मानती ही नहीं। क्राइम पेट्रोल देखा करो। पता चल जाएगा दुनिया कहां पहुंच गई है और तुम अब तक 18 वीं सदी में बैठी हो। पुलिस के हवाले करो, एक सेकंड में सब उगल देगी।
इस उलाहने ने मजबूत कर दिया था। अब तो सीधे पूछ लूंगी चेन कहां है। सीधे सीधे नहीं बताया तो पुलिस कब आएगी। अच्छे-अच्छे अपना पाप कबूल कर लेते हैं।
डोर बेल और फोन की रिंग एक साथ बजी। वह दरवाजा खोलने गया। उसने फोन उठाया। फोन पर आधी अधूरी बात सुन वह हॉल की तरफ भागी। कहीं पति कुछ कह न दें।
उसने हैरत से देखा। वह बोली, वो मैं अपनी चेन कल मां के घर भूल आई…
2
दुकान अतिक्रमण थी नहीं। बड़े मजे से काम चल रहा था। मगर सरकार ने सड़क को चौड़ा करना चाहा और इस चाहत में सड़क अतिक्रमण करते हुए दुकान तक आ गई। लोग खुश थे कि अब सड़क पर बार-बार के जाम से मुक्ति मिलेगी। गाडि़यों की रफ्तार बढ़ जाएगी मगर उस जैसे कुछ लोगों के आंसू किसी को दिखाई नहीं दे रहे थे। दुकान हट जाने का मतलब था रोजी खत्म हो जाना। विकास के उत्सव में उनकी कराह कौन सुनता भला?
वह रोज की तुलना में काफी देर से घर पहुंचा। वह जानता था कि पत्नी चिंता कर रही होगी लेकिन घबरा रहा था कि घर जा कर कहेगा क्या?
वह घर पहुंचा तो पत्नी दरवाजे पर नजरें टिकाए मिली। उसके आने से पहले ही दुकान हटा दिए जाने की खबर घर पहुंच गई थी।
संकट कितना ही छोटा या बड़ा हो दुनिया से राहत नहीं मिलती। राहत तो घर में ही मिलती है। पत्नी ने पानी पिलाया। खाली परोसी। उसने बिना नानुकूर किए खाना शुरू किया।
पत्नी ने इतना ही कहा, नई दुकान देखी?
हां, एक जानने वाले ने कहा है। दूसरे चौराहे पर मेरा ठेला लगवाने का इंतजाम कर देगा।
अच्छा है ये तो। फिर क्यों चिंता करते हो? अपने तो ग्राहक बंधे हुए हैं। अगले चौराहे पर आ जाएंगे साब-मेम साब लोग।
आ तो जाएंगे। मगर वह ठेला लगाने के 15 हजार मांग रहा है।
इतना सुनते ही वह पुलक उठी। बस इतनी सी बात जैसे राहत भरे वाक्य को मन में दबा कर इतना ही बोला, तुम फिक्र मत करो। ऊपर वाला है न। इस बार भी सब ठीक कर देगा। कल देखना।
वह जानता था कि यह वाक्य एक जादू था। जब जब उसने कहा है, तब तब कुछ किया है उसने। वह कल भी कुछ कर देगी।
यह उस पर उसका भरोसा था।
अगले दिन। काम अधूरा छोड़ वह सबसे पहले अपने काम करने की जगह पर पहुंची।
मैम साब। एक काम है… उसकी बात पूरी होती उसके पहले मैम साहब ने कहा, ये सब छोड़, पहले नाश्ता बना। छोटे साहब को जाना है।
वह पूरे मन से काम में जुट गई। सारा काम करते करते दोपहर हो गई। यह तो मैम साहब के सोने का समय है। वे सो न जाएं। घड़ी देख कर वह ऊपर भागी।
मैम साब…
हां बोलो।
वो, मेरे पैसे जमा हैं न आपके पास…
कौन से पैसे?
वो कोविड के समय मेरी तनख्वाह। आपने कहा था अभी काम बंद है तो आप बाद में दे देंगी। याद आया?
अच्छा वो? वो तो तू ले गई थी।
कहां मैम साब? आपने कहा था कि आप मेरी बैंक है। सारे पैसे जमा हो रहे हैं। 15 हजार थे।
तू पूरी भूलक्कड़ है री। ले तो गई कब से। कितनी बार कहा है, अच्छे डॉक्टर को दिखा। कभी-कभी चाय में शकर डालना भी भूल जाती है।
अरे मैम साब, वो तो साहब की फीकी चाय …
उसका गला रूंध गया था। बोला भी नहीं जा रहा था।
चल अब हट, मुझे सोने दे। जाते जाते दरवाजा लगा जाना। और कल समय पर आना।
वह सोचने लगी, मैम साहब कह रही हैं तो सच ही कह रही होंगी। पर मुझे तो याद नहीं मैंने कब पैसे लिए?
दरवाजा बंद हो चुका था। एक दरवाजा कमरे का, एक दरवाजा भरोसे का, एक दरवाजा उम्मीद का।
…
3
सर एक रिक्वेस्ट कर सकता हूं…
उसने मुझे कातर दृष्टि से देखते हुए आवाज मैं पूरी नरमी लाकर कहा।
मैं उसके हावभाव देख कर सतर्क हुआ। यात्रा के दौरान ऐसे कई बार ठगा गया हूं। जानता हूं कि सामने वाला झूठ बोल रहा है लेकिन फिर भी उसकी बातों में आ ही जाता हूं। अक्सर लगता है कि वह मदद मांग रहा है, 10-20 रुपए से उसका क्या होगा। थोड़ी ज्यादा रकम उसके हवाले कर कसम खाता हूं अगली बार धोखा नहीं खाऊंगा।
यह अगली बार मेरे सामने थी। ठीक वैसे ही जैसे वह रिक्वेस्ट के अंदाज में खड़ा था मैंने अपने दिल के कोमल भावों को दबाते हुए भरपूर कठोरता लाते हुए कहा, कहो, क्या प्रॉब्लम है।
क्या मैं आपकी बाइक ले जा सकता हूं। यूं गया और यूं आया।
कैसी अजीब मांग थी। बाइक … कहीं यह चोर निकला तो…?
मैं सोचने लगा, किसी के हाथ में यूं बाइक की चाबी थमा देना। सबसे पहले यही ख्याल आया कि लोग क्या कमेंट करेंगे। कितनी खिल्ली उड़ेगी मेरी कि मेरी आंखों में मिर्ची झोंक देना कितना आसान काम है।
क्यों, बाइक क्यों चाहिए तुम्हें…
मेरा सवाल होता उसके पहले वह बोला, अभी जो बस गई है उसमें मेरा दोस्त गया है। उसकी कल परीक्षा है और एडमिट कार्ड मेरे पास रह गया है।
मुझे वह सही लगा। मैंने झट से चाबी उसके हवाले कर दी।
मैं पूछना चाहता था, वापस कब तक…
मेरे कहने के पहले ही वह बोल पड़ा, अभी निकली है बस। बस यूं गया और यूं आया।
मेरे देखते ही देखते वह फर्राटा भरते हुए आंखों से ओझल गया।
कुछ देर में यहां वहां टहला। आधा घंटा, एक घंटा, दो घंटा… वह गायब। मेरी बाइक के साथ वह गायब। मैं पसीना पसीना हो गया। एक दो दोस्तों को फोन लगा कर डरते डरते बताया। मुझे फटकारा गया। कैसा मूरख है, कागज ही देना था तो तू भी तो जा सकता था साथ में।
अरे हां, बाइक मेरी थी तो मैं भी तो साथ जा सकता था। चाबी देने की क्या जरूरत थी।
अब तो सच में मैं स्वयं को मूर्ख मानने को मजबूर हुआ। अतीत में मिले ताने याद आए। याद आया कि इस दुनिया के हिसाब से नहीं चला तो विफल हो जाऊंगा।
मैं खुद को कोस रहा था। क्यों ऐसा दयावान बन जाता हूं। दोस्त की सलाह भी सही लगी, मुझे उसका मोबाइल रख लेना था। नाम, पता पूछ लेना था। मगर सबकुछ इतनी जल्दी में घटा कि यह सब सोचने का समय ही नहीं मिला।
चल, अब थाने जा कर रिपोर्ट लिखा दे। ईमानदारी का पैसा है। कुछ हो ही जाएगा।- मेरी हालत देख कर एक दोस्त ने कहा।
अपनी इस मूर्खता को बताने में भी शर्म आ रही थी। मुझे लग रहा था कि आसपास से गुजर रहा हर शख्स मुझे देख कर हँस रहा है।
मैं इधर-उधर जा कर तलाश करने लगा। मन ही मन सोचा, उसे तो जाना ही था। यहां क्यों रहेगा भला।
समय बढ़ रहा था और मेरी निराशा भी।
तभी किसी ने आवाज लगाई, अंकल। मैंने पलट कर देखा। वह खड़ा था। मन किया जा कर जोर से एक तमाचा लगाऊं लेकिन मेरी हालत इतनी बुरी थी कि आवाज ही नहीं निकली।
वह बोला, सॉरी देर हो गई। बाइक पंक्चर हो गई थी। इतने ज्यादा पंक्चर थे कि मैंने सोचा ट्यूब ही बदलवा दूं।
मैं फिर भी कुछ बोल नहीं पाया। जेब से पर्स निकाल कर पैसे देने लगा तो उसने रोक दिया। वह बोला, आपको लगा मैं नहीं आऊंगा?
मैं क्या कहता? ना कहना चाहता था, मगर सच तो हां था।
वह बोला, थैंक्यू अंकल।
मैंने भी थैंक्यू कहना चाहा। मैं कुछ कह पाता उसक पहले ही वह बोला, बचपन में मैंने भी बाबा भारती की कहानी पढ़ी थी।
मैं देखता रहा, वह जा रहा था…।
मैं देर तक वहीं खड़ा रहा और सोचता रहा, फोन लगा कर सबको बता दूं, मैं मूर्ख नहीं हूं।
ओह !
हज़ार नुक़सान क़ुर्बान हैं ,सब स्वीकार ,
बस किसी को चोंट ना पहुँचे ।
सारी अपनी सी बातें।
भरोसा करने न करने की कश्मकश के बीच कई बार हम ठगे जाते हैं तो कई बार मना कर देने पर लगता है कि कोई वास्तविक जरूरतमंद मदद से वंचित न रह गया हो।
ऐसे में सही हाथों तक सही ढंग से मदद पहुंच पाती है तो सच में यह सुकून से भरा एहसास होता है और अच्छी चीजों पर फिर से भरोसा कायम होता है।
बहुत अच्छे मर्मस्पर्शी विवरण हैं। भावुक करने वाले। लेकिन हकीकत अक्सर उलट ही निकलती है। फिर भी एक अच्छा इंसान भरोसा करना नहीं छोड़ पाता। बहुत शुक्रिया इन्हें दर्ज करने के लिए।