प्रीति राघव, गुरुग्राम
किसी भी शहर को देखने का, उसे याद रखने का सबका एक अलग नजरिया होता है। कोई वहां के हाट-बाजार,खान-पान,चाट,पकवानों के लिए दीवाना होता है तो कोई वहां के पहनावे, वस्त्रों, आभूषणों के लिए जाता है। कोई वहां के पुरातन किस्सों-कहानियों में सुकून पाता है तो कोई वहां के ऐतिहासिक खजानों यानी भवनों, इमारतों, महलों, मंदिरों का जुनून लिए यायावरी करता घूमता है। इसी जुनून को पंख देकर आज उड़ चली हूं मध्यप्रदेश के मुरैना जिले में स्थिति दो प्रसिद्ध मंदिरों शनिचरा और पौड़े वाले हनुमान जी के प्रांगण में। ये मंदिर हैं तो मुरैना जिला प्रशासन के अंतर्गत परंतु ग्वालियर शहर से काफी कम समय में यहां पहुंचा जा सकता है।
श्री शनिदेव को समर्पित इस शनिचरा मंदिर में सालों पहले तकरीबन बीस साल पहले जब मैं गई थी तब व्यवस्थायें बहुत कम थी। पर्वत शिलाओं का पथरीला रास्ता था और शृद्धालुओं की संख्या बहुत कम हुआ करती थी। लेकिन अब आवागमन के लिए सीधी सपाट सड़कें भी हैं और मंदिर प्रांगण को भी बहुत बड़ा व साफ-सुथरा कर दिया गया है। (बस प्रांगण में जलती समिधा कुंड ले कर बैठे पंडितनुमां लोगों की सुने बिना आगे मंदिर तरफ बढ़ जाइयेगा।)
ऐंती पर्वत से रिसती गुप्त गंगा के स्नान हेतु आज से 15 साल पहले एक साझा कुंड था, जिसके लिए कहा जाता है कि उसमें स्नान करने से असाध्य चर्म रोग भी ठीक हो जाया करते हैं। बहरहाल, आज महिला व पुरूषों के अलग घाट व गुसलखानों की पृथक व्यवस्था कर दी गई है।
शनिधाम/शनिचरा से जुड़ा इतिहास
मुरैना में ऐंती पहाड़ को श्री शनिदेव मंदिर के कारण अब शनिचरा पहाडी कहा जाने लगा है। यह देश का सबसे प्राचीन त्रेतायुगीन शनि मंदिर है और यहां स्थापित श्री शनिदेव की प्रतिमा भी अद्भुत है। कहा जाता है कि यह मूर्ति आसमान से टूटकर गिरे उल्कापिण्ड से निर्मित हुई है। प्रचलित पुरातन कथाओं के अनुसार हनुमान जी ने अपने बुद्धि-चातुर्य व बल द्वारा लंकापति रावण के पैरों के नीचे दबे शनिदेव को मुक्त कराया था। कई वर्षो तक दबे होने के कारण शनिदेव अति दुर्बल हो चुके थे। शनिदेव ने हनुमान जी को बताया कि जब तक वे लंका में रहेंगे तब तक लंका-दहन नहीं हो सकेगा और वे लंकापति के पैरों तले वर्षों से दब कर इतने दुर्बल हो चुके हैं कि उनका चलकर कहीं भी जाना नामुमकिन है। तब हनुमान जी ने शनिदेव को पूरी शक्ति के साथ फेंका और शनिदेव मुरैना जिले के ऐंती ग्राम के पास स्थित एक पर्वत पर उल्कापिंड की तरह जा गिरे थे। इसलिए उसे अब शनि पर्वत कहा जाता है।
शास्त्र कथाओं में वर्णित है कि शनि पर्वत पर ही शनिदेव ने घोर तपस्या कर शक्ति एवं बल प्राप्त किया। इसी कारण इस स्थान को शनिदेव की तपोभूमि भी कहा जाता है। शनिदेव की तपस्या में लीन मूर्ति की स्थापना चक्रवर्ती महाराज विक्रमादित्य ने उल्काशिला को यहां लाकर की थी एवं मंदिर का निर्माण कराया था। विक्रमादित्य ने ही शनिदेव की प्रतिमा के सामने हनुमान जी की मूर्ति की स्थापना की थी। मंदिर प्रांगण में शिलालेख पर भी यही लिखा हुआ है। पहले हनुमान बाबा का घी का दीप जला कर आगे बढ़ शनि को तेलार्पण व तेलदीप जलाया जाता है । शनिचरा पहाड़ी पर प्रतिमा स्थापित होने के कारण ही शनि के प्रभाव से यहां लौह अयस्क की भरमार है ।
सिंगनापुर से शनिचरा का नाता
यह भी कहा जाता है कि शनि सिंगनापुर (महाराष्ट्र) में स्थापित शिला को शनिचरा पहाड़ी पर गिरे उल्कापिंड की शिला से ही ले जाकर स्थापित किया गया था। पहाड़ी पर आज भी वह गड्ढ़ा प्रत्यक्ष देखा जा सकता है जहां पर कथाओं में वर्णित शनिदेव आकर गिरे थे। अर्थात् कहा जा सकता है कि मुरैना का शनिचरा धाम विश्व भर के शनि मंदिरों का राजा है ।
यहां अब शनीचरी अमावस्या को एक बड़ा मेला लगता है तथा प्रत्येक शनिवार को विशेष पूजा-अर्चना भी की जाती है। शनिवार को भक्त भंडारे करते हैं, तेल चढ़ाते हैं, हवन करते हैं, गुप्त गंगा स्नान कर के शनि का प्रभाव कम करने को लोग उतरे कपड़े-चप्पल आदि यहीं पहाडी पर फेंक जाते हैं। कहते हैं ये सबसे बड़ा शनि सिद्ध पीठ है यहां शनि की तपस्या और स्थापना से अलौकिक शक्तियां महसूस की जाती हैं। मन को यहां आकर एक सुकून सा मिलता है। मानो कोई सिर पर हाथ रख कह रहा हो कि- चिंता ना करो मैं हूं ना साथ। दर्शन बाकी सब दिनों में आसान हैं परंतु शनिश्चरी अमावस पर आसपास के गांवों से शृद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है तो दर्शन में लंबा समय लगना लाज़मी है। यहां तेल चढाना भी बहुत सरल है बड़ी सी लोह ट्रे में आप अपना तेल डालें वो पाइप के जरिये अलौकिक शनि प्रतिमा के सिर से पैर तक गिरता है। यहां पहले मैं, पहले मैं की आपाधापी भी नहीं है। सबकी पूजा व तेल स्वीकारा जायेगा बस तनिक संयम से धैर्य से बिना धक्का-मुक्की बढ़े चलें।
मध्यप्रदेश टूरिज्म के संरक्षण में आने पर यहां मंदिर की रंगत बदल गयी है। हनुमान जी की मूर्ति के अलावा अब यहां काली मां,राधाकृष्ण, विघ्नहर्ता गणपति भी विराजमान हैं ।
हंसते-हंसते कट गये रस्ते
मेरी यात्रा मुरैना से प्रारंभ हुई थी तो हम वहां से निकल कर ग्वालियर रोड पर टोल से आगे नूराबाद कस्बे तक बढ़ते हैं। नूराबाद भी अपनी कहानी लिए मुस्कुराता है,कहते हैं कि नूराबाद पर एक दफा मल्लिका नूरजहां ने अपना पढ़ाव डाला था तभी से इस जगह का नाम नूराबाद पड गया। यहां पर आवाजाही के लिए उस वक्त एक पुल भी बनवाया गया था। आज जर्जर हुए इस पुल पर आप मुगलकालीन सुंदर नक्काशी देख कर यह अंदाजा कर सकते हैं।
बहरहाल हम नूराबाद के बीचोंबीच से घरों, बाजारों को देखते आगे निकले सफर पर और शनिधाम की ओर बढ़ चले। ‘नूराबाद’ से बाएं हाथ ले कर कस्बे के भीतर से थोडी घुमावदार पर सही सड़क है। कस्बा खत्म होते-होते रेलवे क्रासिंग है मगर अब वहां अंडरपास बना दिया गया है तो हम गाड़ी वहीं से आगे बढाते हैं। अंडर पास की वजह से रेलवे क्रासिंग की रुकावट से बच गये थे, तब वहां से कोई ट्रेन जा रही थी।
दोनों तरफ गेहूं के खेतों के बीच से हम बढ़ते जाते हैं 20-25 मिनिट में पड़ावली गांव होते हुये आगे बढते हैं। पडावली गांव के भीतर का बस 8-10 मिनिट का रास्ता ढुच्चुक-पिच्चुक है (जिसे मैं ऊंट रोड़ कहती हूं) पर तकलीफदेह नहीं है। इसके बाद चिकनी सपाट डंबर रोड है। प्रधानमंत्री सड़क योजना ने सडकों का नक्शा बदल कर रास्ता इत्मीनान वाला कर दिया है।
इसके बाद हम लगभग 18 -20 मिनिट पर ‘भूराडांडा’ गांव पहुंचे। वहां से आगे ‘रान्स’ गांव अपनी झलक दिखा रहा था। हम लगातार ऐंती पर्वत शृंखला के नजारे लेते हुये बढते जा रहे थे।
कभी रोड घुमाव लेते हुए ऊपर तो कभी नीचे ढलान ले रही है। झूले के झौंटों का आनंद इसी को कहते है शायद।
रान्स से बढ़ते हुए मुश्किल से 10 या 15 मिनिट और लगे हमें ‘शनिचरा शनिधाम’ पहुंचने में… ये कह सकती हूं कि नूराबाद के मध्य से होते हुये ज्यादा से ज्यादा 40-45 मिनिट बस।
(ग्वालियर की तरफ से बसों व टैक्सियों से भी शनिचरा पहुंचा जा सकता है। राजमाता विजयाराजे सिंधिया हवाई अड्डे से शनिश्चरा मंदिर सिर्फ 15 किलोमीटर दूर है। जबकि शनि अमावस्या पर यहां भीड़ होने के कारण उस दिन कई स्पेशल ट्रेन और बसें मंदिर तक के लिए चलाई जाती हैं।)
पौड़े वाले हनुमान जी
शनिचरा दर्शन के पश्चात हम धाम के मुख्य द्वार तक वापस बाहर आये। वहीं से उल्टे हाथ पर मुड़कर पहाड़ी के ऊपर बस 5 से 7 मिनिट के रास्ते पर ‘पौड़े वाले’ मतलब लेटे हुये हनुमान जी की बहुत सुंदर प्रतिमा है। यहां आकर मुख्य पुजारी जी से यह खास बात भी पता चली कि यह मूर्ति आश्चर्यजनक तरीके से स्वयं सिर की तरफ से ऊपर की ओर उठ रही है, हमने करीब जाकर देखा भी। उत्सुकतावश मैंने बूढ़े पंडित से प्रतिमा के इस तरह उठने के विषय में पूछा तो उन्होंने बताया, ‘‘जिस रोज ये प्रतिमा पूर्ण रूप से सीधी खड़ी हो जाएगी उस दिन कलयुग की समाप्ति होनी निश्चित है।’’
मैं हनुमान भक्त हूं तो मेरा तो यहां निहाल होना बनता ही था। पस्साद(चंबल की भाषा में ‘प्रसाद’ को कहते हैं) चढ़ा के बाहर आई ही थी कि सामने नजर गई नये बने मंदिर पर जहां विशाल शिवलिंग स्थापित था मेरे बर्फानी बाबा का और सामने नंदीश्वर व कोटरे के भीतर अर्द्धनारीश्वर रूप विराजमान था। मन तो मानो रम ही गया। घर लौटने को दिल ही नहीं हो रहा था। पर यायावर रुकते कहां हैं उन्हें उनका अगला पढ़ाव जो टेर लगा रहा होता है।
नोट: शनिचरा मंदिर पर अब शनिदेव की प्रतिमा का छायाचित्र निकालना वर्जित है, सो नियमों का उल्लंघन मत करिएगा। यात्रा का आनंद भरपूर लीजिएगा।