
- प्रो. परिचय दास
लेखक रवींद्र श्रीवास्तव नव नालंदा महाविहार विश्वविद्यालय (संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार ) नालंदा में प्रोफेसर हैं।
महुआ के फूल जैसे समय की उस गंध की स्मृति हैं जो किसी भी घड़ी को जीवन की संपूर्णता से भर सकता है। वे केवल फूल नहीं बल्कि एक मादक उपस्थिति हैं जो मिट्टी के स्वाद में, हवा के भार में और लोकगीतों की छाया में महकते हैं। वे स्मृति में ऐसे उतरते हैं जैसे किसी आत्मीय की कोई पुरानी चिट्ठी — पीली, मुलायम और सुगंध से लिपटी हुई। उनके रंग में सूरज के उतरने का धीमा उजास होता है और उनकी गंध में धरती की गोद में छुपे सौ वर्षों के प्रेमपत्र।
गाँव के अंतिम छोर पर खड़ा वह महुआ का पेड़, जिसकी छाँव में बच्चों की परछाइयाँ लंबी होकर दोपहर को पार करती थीं, उसी की डालियों से गिरते थे वे पुष्प, जिन्हें कोई फूल नहीं कहता था — ‘महुआ गिरा है’ — यह वाक्य किसी नई ऋतु के आगमन की तरह आता था। गिरा हुआ महुआ ही अपने उठाए जाने की प्रतीक्षा में सुगंध फैलाता था। उसमें एक सौम्यता थी, जैसे कोई शांत नारी जिसका मौन ही उसका संगीत हो। महुआ जब गिरता था तो धरती में एक मधुर थपकी देता था। उस थपकी में बच्चों के कंठ में फूटती तानें थीं, बूढ़ियों की हथेली में झोले की गंध थी और पुरुषों की आँखों में पुरखों की सी मिट्टी थी।
महुआ के फूलों में केवल रस नहीं, भाषा होती है — एक ऐसी भाषा जो अनकही होते हुए भी समझी जाती है। वह भाषा कविता की नहीं, जीवन की होती है — धान की बालियों, आम के बौर, सरसों के रंग और आँवले की खटास जैसी। महुआ बोलता नहीं लेकिन उसकी गंध बोलती है — और उस गंध की बोली में माँ की ओढ़नी की सलवटें, बहनों की चुन्नियों की झालरें और पत्नी की चूड़ी की छनक तक समा जाती है।
महुआ का गिरना, दरअसल कोई गिरना नहीं, एक सृजन है — गिर कर मिट्टी से मिल जाना और मिट्टी में खुद को छोड़ देना। उसमें से रस निकलता है, और वही रस जब कच्चा होता है तो आँखों में चुभता है और जब पक जाता है तो जीवन की कड़वाहट तक मीठी लगती है। लोकगीतों में वह ‘मधु’ है, और ऋषियों की वाणी में ‘मौन’। वह शराब भी है लेकिन संयम की; वह फूल भी है लेकिन भिक्षा-सा। वह स्वाद है जो भूख से नहीं, प्रेम से उपजता है।
महुआ के फूलों की ख़ास बात यह है कि वे किसी ऋतु की घोषणा नहीं करते बल्कि स्वयं ऋतु होते हैं। वे फागुन और चैत्र के बीच का एक संधि बिंदु हैं — जब मौसम स्थिर होता है और हवा में एक निश्चिंतता होती है। उस हवा में महुआ का फूल गिरता है जैसे कोई पुरानी दुपट्टा हवा में लहराकर ज़मीन पर बिछ जाए। उस पर किसी ने पाँव नहीं रखा होता फिर भी उसमें प्रेम की रेखा उभर आती है। उसकी गंध उस स्त्री की स्मृति बन जाती है जो कभी सुबह के धुँधलके में महुए के नीचे से गुज़र गई थी।
महुआ जब पेड़ पर होता है तब वह केवल एक प्रतीक्षा है। जब गिरता है तो एक यथार्थ। और जब उठा लिया जाता है तो वह स्मृति बन जाता है। यही उसकी त्रयी है — प्रतीक्षा, यथार्थ, स्मृति। वह किसी ब्रह्मा की तरह स्वयं सृष्टा है — अपने गिरने से उत्पन्न और अपने उठाए जाने से अमर। महुआ का यह जीवन-चक्र किसी दर्शन से कम नहीं। वह बताता है कि गिरना भी एक सुंदरता है और मिट्टी में समा जाना भी एक सौंदर्य है।
गाँव की स्त्रियाँ जब महुआ चुनने जाती हैं तो कहते हैं कि उनके हाथों में चूड़ियाँ नहीं होतीं — शायद इसलिए कि महुआ की नींद न टूटे। उनकी उँगलियाँ एक अजीब प्रकार की नमी से भरी होती हैं — जैसे वे सिर्फ फूल नहीं, किसी की स्मृति को छू रही हों। वे उसे अपने आँचल में रखती हैं, जैसे कोई माँ अपने शिशु को रखती है। महुआ वहाँ फूल नहीं, सन्तान हो जाता है — जिसकी देखभाल भी है और जिसका मोल भी।
महुआ की वही गंध, जब देह के भीतर उतरती है तो वह शरीर को भी एक ऋतु बना देती है — देह के भीतर एक फागुन उतरता है और अंतस में रस फूटता है। जो शराब इससे बनती है, वह देह को तो क्या, आत्मा तक को बहका देती है। जैसे कोई पुराना गीत जिसे किसी बूढ़े गायक ने गाया हो और जिसमें केवल शब्द नहीं, युगों की पीड़ा और प्रेम हो।
महुआ केवल गाँव की चीज नहीं — वह शहर में भी उसी तरह आता है जैसे कोई लोकगीत किसी फिल्मी गीत के भीतर से झाँक जाए। वह किसी कहानी का उपसंहार नहीं, आरंभ है — जो बताता है कि जीवन में जो गिरता है, वही उठाया जाता है और जो उठाया जाता है, वही सँजोया जाता है। उसके गिरने में एक ऐसी करुणा है जो रोती नहीं, लेकिन सुनाई देती है — ठीक वैसे ही जैसे कोई चुप रहने वाला वृद्ध जब मुस्कुराता है।
महुआ का फूल किसी चित्रकार की तूलिका से नहीं बनता — वह धरती की आत्मा से उपजता है। उसमें रंग भी है, गंध भी, स्वाद भी और एक अदृश्य कंपन भी जो उस समय को थामे रखता है जब सब कुछ अस्थिर हो रहा हो। वह कंपन वही है जो प्रेम के प्रथम स्पर्श में होता है, किसी लम्बे वियोग के पश्चात मिलने वाली साँझ की छाया में होता है।
जब बचपन में महुआ के पेड़ के नीचे बैठकर मैं उसे गिरते देखता था तब लगता था कि कोई स्वर्ग का दूत हर थोड़ी देर में एक उपहार भेज रहा है। उस फूल को पकड़ना, उसे सूँघना और फिर कंठ में भर लेना — यह कोई खेल नहीं था, यह किसी अनाम आस्था की क्रिया थी। उसमें एक मौन पूजा थी — जहाँ ईश्वर का नाम नहीं लिया जाता था लेकिन ईश्वर उपस्थित रहता था।
अब, वर्षों बाद जब शहर की सड़कों पर चलते हुए मुझे किसी फूल की गंध आती है तो अनायास ही महुआ याद आ जाता है। वह गंध मुझे अपने बचपन की गोदी में ले जाती है — जहाँ सब कुछ धीमा था, मधुर था और मर्मस्पर्शी था। अब महुआ के फूल शायद कम हो गए हैं लेकिन उनकी स्मृति और महक अभी भी बची हुई है — किताबों की अलमारियों में, माँ की बक्सियों में, पिता की पुरानी चिट्ठियों में और हृदय के एक अदृश्य कोने में।
महुआ का फूल, दरअसल, गंध से अधिक एक भाषा है — और भाषा से अधिक एक अनुभूति। वह किसी गद्य का विषय नहीं — वह तो काव्य का गुप्त छंद है, जो खुलता नहीं लेकिन पढ़ा जा सकता है। वह एक ऐसा क्षण है, जो सहेज लिया जाए तो जीवन एक कविता बन जाता है और यदि छूट जाए तो सारा जीवन किसी भूली हुई कविता की खोज में बीतता है।
महुआ, अब भी जब गिरता है तो पृथ्वी हल्की मुस्कान से भर जाती है — जैसे किसी को सदियों बाद अपनी प्रेमिका की चिट्ठी मिल गई हो। वह चिट्ठी किसी भाषा में नहीं होती — वह सिर्फ गंध में लिखी होती है।
महुआ के फूलों को सिर्फ देखा नहीं जाता, उन्हें महसूसा जाता है। वे जब खिले होते हैं तो ऐसा लगता है जैसे धरती के हृदय पर किसी ने पीली चूड़ियों की थाली रख दी हो। यह दृश्य केवल आँखों के लिए नहीं होता, आत्मा के भीतर कुछ फूट पड़ता है। कोई बहुत पुरानी बात जो हम कभी कह न पाए, वह महुआ की गंध में घुलकर उभरती है। जैसे कोई स्त्री जो वर्षों पहले किसी गली में लापता हो गई हो, अचानक किसी दोपहर उस गंध में लौट आए।
महुआ का खिलना किसी उत्सव की तरह नहीं होता — वह किसी मौन व्रत की तरह धीरे-धीरे घटित होता है। उसकी एक-एक कली जब खिलती है, तो ऐसा लगता है जैसे धरती की छाती में कोई अनकहा संवाद लिखा जा रहा हो। वह संवाद फूलों की भाषा में है, पत्तियों के स्पर्श में है, हवा के कंपन में है। वह संवाद ऐसा है जिसे सुनने के लिए आपको बहुत चुप, बहुत धैर्यशील होना पड़ता है। जैसे किसी वृद्ध गुरु की अंतिम वाणी हो — धीमी लेकिन गहन।
मैंने एक बार एक जनजातीय स्त्री को देखा था जो महुआ के फूलों से अपना माथा सजाए खड़ी थी — न उसके पास दर्पण था, न साज-शृंगार की कोई साधन सामग्री लेकिन उस फूलों की माला में एक ऐसी प्रभा थी जो सबसे सुंदर स्त्रियों को भी विलीन कर दे। वह महुआ उसके बालों में नहीं था, उसके आत्मा में था। वह फूल जब किसी स्त्री की देह से होकर गुजरता है, तो वह केवल आभूषण नहीं रह जाता — वह प्रेम की भाषा बन जाता है।
महुआ के फूलों की गंध जब किसी युवा के मन में उतरती है, तो वह किसी मीठे सपने जैसा होता है — वह न तो संपूर्ण नींद में आता है, न पूर्ण जागरण में। वह उनींदी-सी दोपहर की उस रेखा में आता है, जब ज़िंदगी सबसे अधिक कोमल होती है। तब महुआ की गंध से ही प्रेम पत्र लिखा जा सकता है — कागज़ की ज़रूरत नहीं, सिर्फ हवा होनी चाहिए और कोई चुपके से उसे पढ़ लेने वाला।
गाँव में एक वृद्धा थी जो कहा करती थी कि महुआ के फूल पेड़ से तब गिरते हैं जब कोई अपार प्रेम भीतर उमड़ता है। प्रेम जिसे कहा नहीं जा सकता, वह महुआ बनकर पेड़ से छलक पड़ता है। तब वह धरती की गोद में गिरता है और धरती उसे सहेज लेती है — जैसे कोई माँ अपने बिछड़े हुए बेटे को बिना प्रश्न किए गले लगा ले। वह वृद्धा अपने जीवन में कभी शहर नहीं गई लेकिन उसके भीतर महुआ की पूरी ऋतु बसी हुई थी।
महुआ के फूलों को देखकर कई बार यह समझ में आता है कि जीवन में सबसे सुंदर चीजें वही होती हैं जो बिना प्रयास के घटित होती हैं। जो गिरते हैं, लेकिन टूटते नहीं — जो बिखरते हैं लेकिन दुर्गंध नहीं छोड़ते। वे गंध के साथ बिखरते हैं और अपनी उपस्थिति का सबसे मर्मस्पर्शी प्रमाण दे जाते हैं। वे हमें सिखाते नहीं, लेकिन हमें बदल देते हैं।
कभी-कभी ऐसा होता है कि आप किसी अकेली दोपहर में, किसी उदास मन लेकर निकलते हैं और रास्ते में एक महुआ का फूल आपकी राह में गिरा मिलता है। वह फूल कोई चमत्कार नहीं करता — लेकिन आपके भीतर कुछ पिघलने लगता है। वह जो जम गया था जो रूठा हुआ था, जो चुप था — वह सब फूल की एक गंध से बोल पड़ता है। जैसे किसी कवि की गुम कविता अचानक मिल जाए।
महुआ, गाँवों की आत्मा है। वह उन लोकगीतों की तरह है, जिन्हें गाने वाले कभी प्रसिद्ध नहीं होते लेकिन जिनकी धुनें पीढ़ियों तक गूंजती रहती हैं। वह लोक में बसा हुआ वह मधुर कंपन है, जो शहर के शोर में दब जाता है, लेकिन मिटता नहीं। वह चूल्हे की आँच में पकते हुए महुए के लड्डुओं की गंध है जो हर घर को एक मंदिर बना देती है।
एक बार किसी पहाड़ी गाँव में एक बुजुर्ग आदमी ने कहा था — “महुआ एक ऋतु नहीं, एक चरित्र है।” मैंने उनसे पूछा — “क्या मतलब?” उन्होंने जवाब दिया — “महुआ ऐसा है जो सब कुछ सहता है, चुपचाप देता है, और बदले में कुछ नहीं माँगता।” वह उनकी आँखों में एक दिव्यता बनकर चमक रहा था। महुआ का ऐसा चरित्र होता है — देने वाला, मौन और सुंदर।
महुआ की शराब पर बहुत कुछ कहा गया है — लेकिन शायद उतना नहीं कहा गया कि वह शराब उन रातों की तरह होती है जो खुद को छुपा लेती हैं लेकिन सपनों में उतरती हैं। वह नशा देह से ज़्यादा आत्मा को छूता है। वह किसी अधूरी कविता की तरह भीतर बहती है — और जब सुबह होती है, तो वही कविता किसी फूल की तरह मन में महकती है।
महुआ सिर्फ फूल नहीं है, वह संस्कार है। वह स्मृति में ऐसे रहता है जैसे किसी पुरखे की बोली। वह मिट्टी के दीपक में जलता हुआ तेल है — कम दिखता है लेकिन सबसे अधिक उजाला वही देता है। गाँवों में जब कथा होती है तो कथावाचक के कंठ में जो मिठास होती है, वह महुआ की ही होती है — अनजाने में वहाँ उतर जाती है।
जब बारिश की पहली बूंदें गिरती हैं तो वे महुआ के बचे हुए फूलों को भीग जाने देती हैं — जैसे कोई अधूरी बात अंततः रो पड़ती है। उस गीले फूल की गंध, शब्दों से परे होती है। उसे सिर्फ वही समझ सकता है जिसने प्रेम में प्रतीक्षा की हो, जिसने किसी के लौट आने की राह देखी हो।
महुआ की सबसे गहरी बात यह है कि वह कभी मांग नहीं करता। वह गिरता है, और चुपचाप पड़ा रहता है — उसे कोई उठाए या नहीं, उसकी गंध फैलती रहती है। उसमें एक ऐसी करुणा है जो किसी धर्मग्रंथ में नहीं मिलती। उसमें एक मूक करुणा है — जैसे किसी स्त्री की आँखें, जो रोती नहीं लेकिन उनका नीर हमेशा बहता रहता है।
कई बार लगता है कि महुआ का फूल कोई कविता नहीं, कोई कथा है — बहुत पुरानी, बहुत सुस्त लेकिन बहुत गहरी। वह कथा जिसे नानी ने रात में नहीं सुनाया लेकिन उसकी थाली में परोसे गए पराँठे में था, उसके माथे पर रखे हाथ में था और उसकी चुप मुस्कान में था। महुआ उसी कथा का एक हिस्सा है — जो कभी पूरी नहीं होती लेकिन हर बार नई लगती है।
शहर में रहते हुए अब महुआ नहीं दिखता लेकिन उसकी छाया कहीं न कहीं बनी रहती है। जब किसी राह चलते अचानक कोई गंध याद आती है या कोई गीत अनायास गुनगुनाने लगता है — तो लगता है कि महुआ अब भी भीतर किसी जगह पर खिला हुआ है। वह देह से नहीं, मन से जुड़ा होता है।
महुआ के फूल को जिस दिन मन में जगह दे दी जाती है, उस दिन से जीवन में कोई कोमलता उतरने लगती है। वह कोमलता हमें कठोर नहीं होने देती, चाहे हम जितना भी थकें, टूटें, या हारें। वह कोमलता जीवन की अंतिम रोशनी बन जाती है — एक सूखे वृक्ष पर खिला अकेला फूल।
कभी जीवन में कुछ ऐसा चाहिए होता है जो हमें यह भरोसा दे कि गिरना भी सुंदर हो सकता है — और महुआ यही करता है। वह बिना किसी शोर के गिरता है और अपनी गंध से समय को संवार देता है। वह हमें बताता है कि सौंदर्य हमेशा ऊँचाई में नहीं होता — वह ज़मीन पर पड़ा हुआ भी हो सकता है, और सबसे ज़्यादा वही संजीवनी दे सकता है।
जब कोई प्रेम कविता लिखी जाती है तो उसमें महुआ का नाम भले न हो लेकिन उसकी गंध ज़रूर होती है। वह हर प्रेम की तह में बैठा होता है — जैसे हर नदी के तल में कोई चुप पत्थर जो सब जानता है लेकिन कहता कुछ नहीं। महुआ का फूल जीवन के इसी मौन को शब्द देता है।
बहुत अच्छा लगा पढ़ कर
सुंदर