Mobile Etiquette: यूं खर्च होते हैं, जैसे लूट जाता है कोई …

  • टॉक थ्रू

सेहत के लिए जरा-जरा सतर्क हो रही दुनिया को डॉक्‍टर सलाह देते हैं, वॉक शुरू कीजिए। और वॉक पर जाएं तो जरा अकेले रहने का जतन कीजिए। यह फोन भी बैरी है, कोशिश कीजिए कि यह दूर ही रहे।

जरा-जरा संभलते लोगों को सलाह दी जाती है, कोशिश कीजिए कि अपनी हॉबी के संग रह सकें। जरा हरियाली के बीच गुजारे वक्‍त।

वह पूछता है और हम सोच पड़ जाते हैं कि वाकई कब देखा था खुले आसमान की ओर भरपूर? हम तो गर्दन झुकाए स्‍क्रीन में नजरें गढ़ाए रहने के ही आदी हो चुके हैं।

भूख लगती है? जब यह सवाल होता है तो याद आता है कि भूख पेट की ही नहीं होती। जाने कितनी तरह की भूख है हमारी और हम उसे मिटाने को भाग रहे हैं। ठहरने की जरा फुर्सत मिली भी तो वह छूट गए काम के हिसाब में कट जाती है।
जब डॉक्‍टर पूछता है, कब सोए थे चैन की नींद तो बरबस मुस्‍कुरा उठते हैं। मानो कहना चाहते हैं, कहां सो पाते हैं वैसा जैसा बचपन में सोया करते थे। वैसा कि फिक्र को भी जरा अवकाश पर भेज कर सो जाएं। ऐसे जैसे बस अभी बिके हों घोड़े सारे और बस अभी टिकाया हो सिरहाने पर सिर।

और जो वह औचक पूछ ले कि सोने देते हो किसी को चैन से? तब? तब क्‍या जवाब होता है?
तुरंत उत्‍तर होगा, हां जी।

मगर जरा ठहर कर सोचेंगे तो पाएंगे कि हम बेवजह किसी के खर्च होने का कारण बन रहे हैं। हमें लगता है कि हम ऐसा क्‍या कर रहे हैं कि सामने वाला तंग हो जाए जबकि सामने वाला खीज कर कहला चाहता है, कर क्‍या रहे हो?

इस कर क्‍या रहे हो की फेहरिस्‍त लंबी है।

बहुत आम सी बात है। सामान्‍य इतनी कि हममें से अधिकांश यही करते हैं। सुबह उठते हैं और धड़-धड़ सुप्रभात के मैसेज फारवर्ड करने में जुट जाते हैं। किसी को 2 मिनट लगते हैं, किसी को आधा घंटा लेकिन जब तक सभी ग्रुप में, ब्रॉडकास्‍ट लिस्‍ट में सुप्रभात न कह आएं, कुछ फारवर्ड मैसेज डाल न आएं तब तक चैन नहीं मिलता। चाय का घूंट गले से नीचे नहीं उतरता। तत्‍परता ऐसी कि एक मैसेज करना छूट गया तो सामने वाला पता नहीं जिंदा रह पाएगा या नहीं! धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्रदान करने के जतन गुड मार्निंग और गुड नाइट मैसेज से ही तो हो सकते हैं!

सुबह वाला यही काम रात में भी होता है। जब तक सभी को सुला न दें, खुद को नींद आती नहीं।

अब इसमें क्‍या बुराई है भला? कुछ ज्ञान की बात, कुछ हौंसला बढ़ाने वाली बात, कुछ तस्‍वीरें, कुछ इरादे शेयर कर लिए तो क्‍या हुआ? इतनी ही‍ दिक्‍कत है तो मत खोलो हमारे मैसेज। मत देखो।

बस यही तो समस्‍या है। आपने कह दिया और समझ लिया तो क्‍या हो गया काम? आप कुछ भी मानें, सामने वाला जरा संवेदनशील हुआ तो उसका बिखरना तय है। इसी भाव से कि कोई संकट न हो, कोई आफत में न घिरा हो, आपदा में न हो अपना प्रिय मैसेज की टोन बजते ही वह झट से फोन उठाता है फिर चाहे वह गहरी नींद में हो, काम में डूबा हुआ हो, दैनिक कार्यों से निवृत्‍त होता हुआ हो, या पूजा घर में ही क्‍यों नहीं हो। और संदेश देखते ही सिर पटक लेता है जब पाता है, सुप्रभात का एक संदेश, फारवर्डेड मैसेज या शुभ रात्रि का एक थका-हारा मैसेज।

भेजने वाला इस बात से बेखबर कि अभी उसे सोना कहां है, अभी तो वह अपनी उलझनों में भटका है, अभी उसे कोई दर्द सालता है, अभी उसे काम करने है बीसियों। आपका मैसेज पा कर वह ऐसी कोरी शुभकामना पर हँस भी नहीं सकता, रो भी नहीं सकता।

जरा आंख लगती है और मोबाइल बजता है। उठा कर देखता है तो एक सुप्रभात का संदेश खटक जाता है। भेजने वाला तो इस बात से भी अनजान रहता है कि वह कब सोया है। 9 बजे जो उसे सुलाकर गया था वह उसे 5 बजे जगाने आ गया। यह बात और है कि एक शख्‍स जिसने उसे रात 1 बजे सुलाया था वह दोपहर बाद करेगा शुभ दिन का मैसेज।

हां, इस तरह की केयर दिखावटी सी लगती है। दिखावटी है भी तो? थोथी एकदम। भर-भर चिंता जताने वाले को इतनी भी खबर नहीं रहती कि जिसकी वह‍ फिक्र कर रहा है, जिस पर वह अपने भाव, अपनी पीड़ाएं, अपनी निराशा लाद कर रहा है, वह खुद खर्च हो रहा है ऐसे आदतन व्‍यवहार से। तुम एक फारवर्ड मैसेज को भेज कर इतिश्री कर लेते हो और वह कोफ्त में डूबा खो जाता है गहरे अवसाद में, निष्क्रियता में।

वक्‍त बेवक्‍त इस तरह खर्च होना ऐसा ही है जैसे पंप पर ईंधन भरवाते समय पेट्रोल का हवा में उ़ड़ने से होने वाला नुकसान। इसे मापने का एक पैमाना है। और जो देर तक खुला छोड़ दो ढक्‍कन तो? तब तक उड़ जाएगा पेट्रोल और ग्राहक अपने नुकसान से फट पड़ेगा।

एक खर्च होना ऐसा भी है कि इत्र की शीशी कुछ देर खोल कर बंद कर दो। पल भर में महक उठेगा कमरा। आजकल डिस्‍फ्यूजर आते हैं ऐसे। और जो पूरी खोल कर रख दो इत्र की शीशी तब? तब खूशबू ऐसे ही खर्च हो जाएगी जैसे अनजाने में अपने ही लोग अपने ही संबंल की ऊर्जा खर्च करते हैं, फिजूल, बेवजह। ऐसे कि जब जरूरत हो तब मिले ही नहीं सहारा क्‍योंकि सहारा पाने का अवसर तो अपनी हरकतों से आप पहले ही खर्च कर चुके हैं।

और इसका दोष भी तो उसी के सिर जाएगा क्‍योंकि आप तो अपनी मासूमियत में यह समझ ही कहां पाएंगे कि जो आपका

आसरा था, उसे आपने ही खर्च किया। जो ऊर्जा आप तक आनी थी, उसे आपने ही लूट कर उड़ा दिया।
वह तब भी परेशान होता है जब आप उसे लूट रहे होते हैं और वह तब भी परेशान होता है जब आपकी लूट का शिकार वह आपकी मौके पर सहायता नहीं कर पाता है।

है ना विडंबना? हैं न हम ही अपने भस्‍मासुर।

तो आगे से खुद भी सवाल कीजिए, मैं चैन से सो पाता हूं? क्‍या मैं किसी को चैन से सोने दे रहा हूं?

यह समय सोचने का है कि क्‍या मोबाइल एटिकेट्स की कोई क्‍लास शुरू होनी चाहिए क्‍योंकि कथित सभ्‍य से लेकर निरक्षर तक हर व्‍यक्ति को ऐसी क्‍लास की जरूरत है। ऐसी क्‍लास जो यह सिखाए कि सार्वजनिक स्‍थानों पर तेज आवाज में बात करने से क्‍या होता है। ट्रेन, बस, मॉल, दफ्तर ही नहीं घर में भी स्‍पीकर पर बात करना किसी की निजता, गरिमा और सम्‍मान का हनन है। ऐसी क्‍लास जो यह सिखा पाए कि मनचाहे वक्‍त मैसेज या वीडियो कॉल कर देना आपके लिए सामान्‍य हो सकता है, दूसरे के लिए आफत। किसी के घर जाने के पहले पूछा जाता है। सीधे घर में घुसा नहीं जाता। डोर बेल बजा कर आने का संकेत दिया जाता है। ताकि मेजबान को संभलने का मौका मिल जाए। मगर फोन कॉल? यह तो वक्‍त-बेवक्‍त सामने वाले की सुविधा-असुविधा का ख्‍याल किए बिना कर दिया जाता है, जैसे जब अपना मन किया, फोन उठाया और कर दिया किसी को अस्‍त-व्‍यस्‍त।

संभव है वह कह न पा रहा हो, कह भी रहा है तो आप सुन नहीं रहे हों। एक ऐसी क्‍लास की जरूरत है जो हमें अपनों की पीड़ा सुनना सीखा दे। सोचिए, वाकई जरूरत है या नहीं?

यह सोचने में चंद्रकांत देवताले की इस कविता को पढ़ना आपकी सहायता करेगा:

अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही
तो मत करो कुछ ऐसा
कि जो किसी तरह सोए हैं
उनकी नींद हराम हो जाए

हो सके तो बनो पहरुए
दुःस्वप्नों से बचाने के लिए उन्हें
गाओ कुछ शांत मद्धिम
नींद और पके उनकी जिससे

सोए हुए बच्चे तो नन्हें फरिश्ते ही होते हैं
और सोई स्त्रियों के चेहरों पर
हम देख ही सकते हैं थके संगीत का विश्राम
और थोड़ा अधिक आदमी होकर देखेंगे तो
नहीं दिखेगा सोये दुश्मन के चेहरे पर भी
दुश्मनी का कोई निशान

अगर नींद नहीं आ रही हो तो
हँसो थोड़ा, झाँको शब्दों के भीतर
खून की जाँच करो अपने
कहीं ठंडा तो नहीं हुआ।

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