मां की मौत पर नहीं रोया…

बलराम गुमास्‍ता, भोपाल

मां गांव में मरी
जिसकी सूचना भोपाल में मुझे
तीन दिन बाद मिली

इस तरह
मरने के बाद भी
मेरे लिए
तीन दिन और जिंदा रहीं मां

दोस्त -संबंधी और तमाम
वह अपने
जिनकी सूचनाएं वर्षों से नहीं
कहीं
इसी तरह से तो नहीं
बचे हुए हैं जिंदा

अतीत में घट चुके को
वर्तमान बनाती सूचनाएं
हमें बनाती हैं अमानवीय
वह भी इतना कि
देखो तो भला
मैं
मां की मौत पर नहीं
उसकी
सूचना पर रोया

एक दिन सूचना थी कि
ब्रह्मांड में खोज लिया गया है
पहले से वहां उपस्थित
एक और नया तारा

जिस पर करोड़ों वर्ष पहले
समाप्त हो चुका हुआ है जीवन

हर -एक नई सूचना के साथ
इस तरह
मैंने
अपना एक अर्जित सच खोया

अमानवी होते जा रहे
इस समय में
मां की मौत पर
पूरे मनोयोग से रो कर
बचाया जा सकता था
भीतर
नित-प्रति मरता जात
मनुष्‍य

मगर सुखों और दुखों का हिसाब
गड़बड़ाया इतना कि जीवन अवशेष हुआ
आवेगों की प्रामाणिकताएं
समाप्त होती हैं जहां
वहां तब
पेड़ तक संवाद नहीं करते

चिड़ियों के इस तरह गायब होने से आसमान में
होने लगते हैं सुराख
देवदूत इन्हीं से रिसते हैं
मौत को
मोक्ष का पर्याय कहने

धरती तब भी गाती है
झींगुरों में जीवन राग
जुगुनूओं में लौट-लौट आते हैं
उसके ठगे गए पूर्वज

न रो पाने का मेरा दु:ख
रह-रहकर फूटता है कि
मां की मौत पर नहीं
मैं
उसकी
सूचना पर रोया

हवा में पसीजता
पेड़-पौधों में
होता हरा
किसी नए पीके में
रह-रहकर
उगने को होता हुआ।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *