लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…

मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता

खुरई 1970-72

ट्रेन मेरा पहला प्यार था। हमारे घर के पीछे एक मैदान था, जिसे काटती हुई रेलवे लाइन गुजरती थी। तकरीबन 150 मीटर दूर से। स्टीम इंजन पूरी गरिमा और गुस्से के साथ धुएं का बादल और भाप छोड़ता हुआ ट्रेन को खुरई स्टेशन पहुचता या अगले स्टेशन ले जाता। उत्कल एक्सप्रेस उस रूट की एक महत्‍वपूर्ण गाड़ी थी। मैं सुबह रोज उसे गुजरते हुए निहारता। हमारा घर संभवतः स्टेशन के आउटर सिग्नल के पास था। मैं ट्रैन्स की विभिन्न सीटियों (patterns) को समझने की कोशिश करता। उस समय खुरई के पास कोई शंटिंग इंजन नहीं रहा होगा। कुछ मजदूर ही मिल की मालगाड़ियों के खाली/भरे डब्बों को शंट करते थे।

पापा के ऑफिस की जो चीज मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित करती वो था हाथ से खींचे जाने वाला पंखा। पंखा एक मोटा और विशाल कपड़े का था जिसके ऊपर और नीचे नक्काशीदार लकड़ी पिरोई गईं थी। उससे बंधी रस्सी ऑफिस के बाहर तक आती थी, उसे खीचने और छोड़ने के लिए एक वर्दीधारी व्यक्ति तैनात था। मैं जब भी उनके ऑफिस जाता, उन्हें request कर कुछ देर रस्सी खींचता था।

मेरा दूसरा प्यार जो ज्‍यादा साकार हुआ, वो है जीप। पापा को मिली हुई थी। मैं हमेशा इस गुंताड़े में रहता कि कैसे इसे चलायें! पापा के सख्त कानून के चलते और मेरी उम्र के आलोक में यह सौभाग्य मुझे न मिला। सपने हमें आशापूर्ण बनाए रखने में बहुत मददगार होते हें। धीरे-धीरे मैं एक ड्राइवर बनने के सपने देखने लगा। मुझे लगता कि एक ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं हो सकती।

हमारे घर की छत कवेलू/खपरैल की थी। बारिश की बूंदें उस पर पूरा संगीत समारोह सा आयोजित करती। उसमें गौरैया अपने घोंसले बनातीं। कुछ सीलिंग फैन की रॉड की कटोरी में। गर्मी का मौसम शुरू होने के ठीक पहले चिड़िया व्यस्त हो जातीं अपने घौंसले बनाने में। जब अण्डों से चूजे निकलने का वक्त होता, घर में लगे बिजली के पंखे भी चालू हो जाते। चूजे निकलते ही खाने के लिए चिल्लपों मचाना शुरू कर देते और चिड़िया/चिरोटा दिन भर उनकी चौंच में दाना डालने की जुगत में भिड़े रहते। हर गर्मी में कुछ चिड़ियाएं पंखे से टकराकर मर भी जातीं। हम सब उसका सोग मनाते।

सिविल लाइंस में सरकारी बंगले व क्वार्टर आसपास ही बने हुए थे। इसलिए उनके रहवासी बच्चे आपस में भौगोलिक दोस्त हो जाते थे। ये एक फ्लोटिंग दोस्ती ही होती थी जो मेरे पापा या उनके ट्रांसफर तक ही सीमित होती थी। मिलजुल कर खेले जाने वाले खेलों में, छुपम–छुपाई, सितौलिया, विष–अमृत आदि थे। बैठ कर चपेटा, लूडो, सानो-सीढ़ी आदि खेले जाते थे। हमउम्र बच्चे बिना किसी लिंगभेद के मिलकर खेलते और लड़ते थे। हर दूसरे दिन कोई न कोई मानसिक अथवा शारीरिक रूप से घायल होकर घर जाता। नित नए गुट बनते और नित नई व्यूह रचनाएं।

घरों के पास ही कुछ टीन की छत वाले खाली गोदाम थे। वो तालाबंद रहते थे, परंतु गोदाम में घुसने लायक एक छेद था जो हम भाई–बहनों तथा कुछ चुनिंदा दोस्तों के छुपने की पसंदीदा जगह थी। इसका इस्तेमाल तत्कालीन विरोधी गुट के खिलाफ स्ट्रेटजी बनाने के लिए भी होता था। इंसानियत जिंदा थी, कभी भी किसी बच्चे के साथ कोई अनहोनी नहीं हुई। बाकी साथियों का नाम और ठीक से चेहरा भी याद नहीं, मैं खुद 5 वर्ष का था। पर दोस्त के तौर पर जो चेहरा मुझे याद है वो एक सरदार का है। उसके पापा के खेत थे। वो हरे कच्चे गेहूं के दाने और होरे या हरे चने लाता और मुझ से शेयर करता।

एक शाम खबर आ लकड़ी की की पापा की गाड़ी का एक्सीडेंट हुआ है। बारिश के ही दिन थे, और पापा शाम को दौरे से लौट रहे थे। एक किसान अपने खेत से बैलों के साथ लौट रहा था। बैल जीप की आवाज से बिदक गए और उनको बचाने में, ड्राइवर ने जब गीली सड़क पर ब्रेक लगाए तो जीप पलट गई। देर शाम वे पट्टियों में लिपटे घर आए। उन दिनों सीट बेल्ट नहीं पाई जाती थी पर गाड़ियों की स्पीड भी 40 ही होती होगी।

एक शाम हमारे घर के गेट पर एक बड़ा सा पहाड़ी कछुआ आया। शाम के धुंधलके में गार्ड उसे पत्थर समझ उस पर बैठ गया। जब पत्थर चला तो अहसास हुआ। मम्मी ने देखा कि वो घायल था। उसके पेट पर दर्जनों जोंक चिपकी हुई थीं जो उसका रक्त चूस कर उसे और कमजोर कर रहीं थीं। मेरी मम्मी ने उसकी ड्रेसिंग की। उसे जोंक मुक्त किया फिर उसे आंगन में छोड़ दिया गया। आंगन के एक कोने में जलावन लकड़ियों का ढेर था जहां उसने शरण ली। हर सुबह वो भोजन के लिए अपने आश्रय से निकल, रसोई के दरवाजे पर पहुंच जाता (जैसे हम पहुँचते थे) और भोजन पाता। इन्हीं दिनों हमारे घर के सामने वाले मैदान में बड़े लड़कों ने क्रिकेट खेलना शुरू किया और एक खिलाड़ी फील्डिंग करते हुए घायल हुआ। मम्मी ने उसकी भी ड्रेसिंग की। मां का संदेश साफ था, किसी की भी मदद कर सको तो बिना किसी शर्त पर करो। मम्मी उस समय की स्नातकोत्तर थी और सभी पशु/पखेरुओं से आदर और प्यार से पेश आती थी।

दिसंबर 1971:

भारत – पाकिस्तान युद्ध छिड़ चुका था। खुरई क्‍योंकि सागर और बबीना (cantonments) के बहुत करीब था, इसलिए वहां भी ब्लैक आउट और गाड़ियों की हेडलाइट्स को काला करने का आदेश था। भारतीय सेना वायु मार्ग से पर्चे गिरा रही थी, कि सिविलियन्स से किस तरह के व्यवहार की दरकार है। हम बच्चों के लिए ये दौर बहुत रोमांचक था। आखिर 2 हफ्ते में ही पाकिस्तान की पराजय हुई।

घर में भी गहमागहमी थी। मेरी दादी और बुआ आए हुए थे। अचानक 24 दिसंबर की रात हलचल बढ़ गई और मम्मी के कमरे से क्रंदन सुनाई दिया। मेरा छोटा भाई और हमारा छठा सहोदर दुनिया में अपने आने की घोषणा कर रहा था। ठीक रात 12 बजे उसका आगमन हुआ। मुझे जल्द ही इस बात का अहसास हुआ कि अब मैं भी किसी पर दादागिरी कर सकता हूं। स्थानीय कोटवार, अपनी भरमार बंदूक ले कर आया और उसने कुछ हवाई फायर किए। उत्सव शुरू हुआ।

आखिर हमारी रवानगी का वक्त आया। पापा का तबादला पन्ना हो गया। पहली बार मुझे अहसास हुआ कि मेरी मम्मी एक पैकिंग एक्सपर्ट भी थी। एक मिनी बस (Station wagon) हमें खुरई से पन्ना ले जाने के लिए हाजिर हुई। सारा सामान ट्रक में लोड होने के बाद, श्यामा ट्रक पर सवार हुई। ट्रक की रवानगी के बाद अगले दिन हम भी चल पड़े, अपने नए अनुभवों के लिए।

इस तरह मैं जिया-1:  आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’

2 thoughts on “लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…

  1. खपरैल वाली छत पर बारिश का संगीत !
    उसके लिए तो मेरा मन आज भी आकुल व्याकुल हो जाता है !
    और कितनी बातें जो आप लिख रहे हैं , लगता है मुझसे ‘चुर गयीं हाय ! ‘ 😃

    क्या बात है : इसी लिए आप बंधु बांधव से लगे !

  2. इन अनुभवों के साथ हम अपने बचपन को जी रहे हैं। हालांकि, ये बातें तब की हैं जब मेरा जन्‍म भी नहीं हुआ था लेकिन समय की साम्‍यता है। नई पोस्‍ट का इंतजार रहेगा।

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