राघवेंद्र तेलंग, सुपरिचित कवि,लेखक,विज्ञानवेत्ता
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प्रकृति की तकनीक बहुत ट्रिकी है। यह अपना हर काम अपने सर्वाइवल के लिए, अपनी निरंतरता के लिए पहले करती है। भौतिक स्तर पर भी और अभौतिक यानी विचार के स्तर पर भी। विचार प्रकृति में प्रकृति से हममें आते हैं या कहें तो हमको छूकर गुज़रते हैं। यह हम पर निर्भर करता है कि उस विचार को अपने में प्रवेश करने दें या नहीं। इस विचार से दूरी बना लेने की समझ प्रकृति की तकनीक की समझ है। जिस विचार तकनीक की बात यहां हम करने जा रहे हैं वह है काम यानी प्रणय का विचार जो भावना में घुलकर प्रकृति की निरंतरता को अंजाम देता है। व्यापक फैलाव के नजरिए से देखें तो यही विचार रिश्तों में फैल कर रिश्तों के फैले वितान का स्वरूप ग्रहण करता है।
चूंकि मनुष्य में ब्रह्मचर्य का यानी सेलीबेसी का यानी आत्म नियंत्रण का बोध है। अत: इस बोध को अपने होश में बदलकर वह प्रकृति की सृजन प्रक्रिया को नया स्वरूप दे देता है। तमाम कलारूप इसी तथ्य की अभिव्यक्ति हैं। और यही बात उसे पशुओं-जानवरों से अलग करती है। सभ्यता के उत्स के पीछे प्रकृति की इस ताकत का मनुष्य द्वारा रूपांतरण ही एकमेव कारण है।
जब हम किसी से बेइंतहा मोहब्बत करते हैं तब यह पानी का वही फैलाव होता है जो हिलोरे लेता है, ऐसी मोहब्बतें ज़बान की मोहताज नहीं होतीं, भला लहरों को लफ़्ज़ आखिर चाहिए भी क्यों? उनका काम है दिल में उतरकर समा जाना। एक लहर जब दूसरी लहर में समा जाती है वहां आवाजें मौन में, ध्यान में घुल जातीं हैं। कन्फ्यूज़न वहां है जहां एक से अधिक विचार क्रिया के लिए बेचैन होकर उतरते हैं। एक साथ। यही द्वैत है।
शहरों में जहां जीवन दाता पेड़ काट डाले गए हैं, उन पर आश्रित निवास करने वाले सभी जीव जंतुओं का चक्र गड़बड़ा गया है, उस शहर के जीवन से प्रेम के स्पंदन गायब है, तभी तो जीवन ठहरा हुआ है। पानी की जड़ें आकाश की यात्रा करते हुए ज़मीन पर बिछी मिट्टी के ह्रदय में उतरीं हैं। पानी की जड़ों का फैलाव समुंदर तक जाता है। जड़ों का आपस में बात करना नि:शब्द ही होता है। सोचो तो एंटीडोट है यह! प्रकृति सानिध्य अपूर्व रूप से सहयोगी है।
हर आदमी प्रकाश कण है। उसी से बना हुआ है। वह उसके स्वभाव में होता है। प्रकाश यानी फोटान से ही हम जागते हैं। इग्नाइट होते हैं। वही बोध का स्रोत है जीवन के लिए। हम फोटो सेंसिटिव बॉडी हैं। पदार्थ हैं। विचार पदार्थ में होता है। वहां पदार्थ की सीमित ऊर्जा है। बहुत सारे पदार्थो की कुल ऊर्जा से बनता है कांशसनेस। वह भी मटेरियल से तैयार होता है। पदार्थवादी चेतना को रूपांतरित कर आकाशिक चेतना से जा जुड़ना ही इस मानव जन्म का ध्येय है और इसका बोध पनपने की हमें प्रतीक्षा रह्ती है। एक बार इस प्रोसेस की ट्रिगरिंग हो जाती है तो आप चार्ज्ड हो जाते हैं, प्रोसेस के साथ कनेक्ट हो जाते हैं। इस विधि में ही होश रखने और बोध को बढ़ाते चलने की प्रक्रिया छिपी है।
इसके स्याह यानी काले पक्ष की बात करें तो आपने गौर किया होगा कि माल और बड़े शो-रूम्स में तेज और चौंधिया देने वाली लाइट्स होती हैं, हाई फ्रिक्वेंसी की लाइटें, जिनकी वजह से हमारे मस्तिष्क की तरंगों में बेचैनी पैदा हो जाती है और संतुलित निर्णय लेने का विवेक कम बहुत कम हो जाता है। यह मटेरियल दुनिया की सम्मोहन तकनीक है। रंगों की आवृत्तियों और विवेक का, अनुभूति का एक दिलचस्प रिश्ता होता है। मनुष्य पदार्थ के पार नहीं जा सकता जब तक वह स्वयं पदार्थ है। पदार्थ में से होकर सिर्फ ऊर्जा ही गुजर सकती है। अपने को ऊर्जा में रूपांतरित करने की जरूरत की अपनी आवाज को सुनिए।
यह तो आप मानते ही हैं कि आप जो कुछ भी हैं अपने विचारों के कारण हैं। ये विचार ही हैं जो आपके जीवन के हर क्षण को, उसके परिणाम को निर्धारित करते हैं। विचार शरीर से उपजते हैं और विचार के लिए टॉप प्रायोरिटी शरीर हमेशा बना रहता है। कोई भी शरीर के परे जाकर विचार करने की कोशिश नहीं करता। इस तरह शरीर एक पिंजरा है जिसमें विचार का पंछी सदा फड़फड़ाता रहता है। पिंजरे के पंछी को आजाद भी कर दो तो उसके दिल में जो पिंजरा बैठा रहता है उसका ख़्याल या डर या तमन्ना निकाल सकना बेहद मुश्किल काम है। यह समझ पाना कि शरीर के भीतर से पैदा होने वाले विचार की ही जैसी कार्यप्रणाली शरीर के बाहर भी सर्वत्र कार्य करती है, अलग-अलग आयामों में, लोगों को असंभव लगता है। ऐसा इसलिए कि यह उनकी कल्पना में ही नहीं आता। जो कल्पना में नहीं इसीलिए तो वह असंभव कहलाता है।
जो स्मृति में बस न सके, टिक न सके, फिर वह चाहे व्यक्ति, लोग, चीज, संकल्पना या विचार ही क्यों न हो, भरोसा मत करो। स्पष्ट है कि न वह तुम्हारे लिए और न ही तुम उसके लिए हो। जो टिके नहीं उसकी गति तेज है, वह आवारा है,उच्छृंखल-चंचल है,क्षुद्र है,कोई तय ऑर्बिट नहीं है उसका। इसीलिए वह अनप्रेडिक्टेबल है। उसे जानने के लिए अभी कोई गणित नहीं बना। वह अचानक है,अप्रत्याशित। अचानक यकीन से परे,कल्पना से परे की चीज है। अचानक की इस प्रकृति को समझकर ही उसके प्रति डर से पार पाया जाता है। मृत्यु की अचानकता को समझकर स्वीकार किया जा सकता है।
ये संसार एक ठहरा हुए तालाब जैसा है जहां बहाव नहीं एक दिशा में इसमे वर्टिकली ही एस्केप प्वांइट ढूंढना होगा,जैसा कमल पुष्प करता है। जब अचानक बारिश होने लगे भीतर तब तुम्हारे भीतर बरसों से पड़ी धूल पर भी कुछ बूंदें पड़ेंगी और फिर एक खुशबू हां! वही खुशबू,उसकी सुगंध उसके आने का पता देगी। तुमसे कुछ कहते न बनेगा। सोचो, भला ऐसे में कुछ कहने को होता भी है क्या! और कहना भी किससे, उससे जिसे हमारी हर आती-जाती सांस का पता हमसे पहले से ही है। जो भाषा की ध्वनियां तरंगित करे भीतर! कहना और उससे! अपनी नादानी जाहिर करने अलावा और क्या कहलाएगी! इसीलिए तो तब सब द्वार बंद कर लिए जाते हैं उसके आते ही,एक ही कामना के साथ कि वह आए तो अब कभी न जाए और जाए तो अपनी निगेहबानी में हमें उठाकर ले जाए या फिर साथी बनाकर साथ ले जाए ले जाए साबुत का साबुत, इस बार मगर तोड़कर नहीं।
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