
- कविता वर्मा
लेखक साहित्यकार हैं।
एडोलोसेंस: किशोरावस्था की पुकार
इस सीरीज का टीजर नेटफ्लिक्स ने मुझे बार बार दिखाया और हर बार इसे देखकर मैं आगे बढ़ गई। हालाँकि, कहीं न कहीं इसका शीर्षक और संबंधित विषय मुझे आकर्षित कर रहा था लेकिन टीजर इतना इंटेंस था जो मुझमें एक भय भर रहा था। मनोरंजन और समय काटने के लिए देखे जाने वाली फिल्म या सीरीज इस तरह दिल को झकझोरने वाली होना चाहिये क्या? हर बार उत्तर था नहीं कुछ हल्की-फुल्की जो दिमाग में न चढ़े थोड़ी उत्सुकता बैचेनी तो पैदा करे लेकिन इस तरह न मथ दे कि उससे बाहर आना मुश्किल हो। लेकिन फिर भी वह नाम याद रहता शायद दिमाग खुद को तैयार कर रहा था कि इसे देखा जाये और फिर उस दिन मैंने मन बना लिया कि आज इसे देखा जाए।
एडोलोसेंस फिल्म नहीं सीरीज है लेकिन सिर्फ चार एपिसोड की यह देखकर राहत मिली क्योंकि सस्पेंस थ्रिलर क्राइम एक बैठक में देखने का आनंद है। पहले एपिसोड की शुरुआत इंवेस्टिगेटिंग टीम के अफसर (एशले वाल्टर्स) और उसके बेटे के संवाद से होना ही शायद इसकी कथावस्तु को स्पष्ट रूप से दर्शाता है। इंग्लैंड के एक छोटे से शहर में पुलिस टीम सुबह साढ़े छह बजे मिलर फैमिली के घर में दरवाजा तोड़कर घुसती है उनके तेरह वर्ष के बेटे जेमी को मर्डर के आरोप में गिरफ्तार करने के लिए। अचानक पुलिस का आना, फिर सभी को सिर पर हाथ रख कर फर्श पर बैठने का कहना, जेमी मिलर (ओवेन कूपर) की पहचान के बाद उसे गिरफ्तार करना। सदमे में आ चुके परिवार को थाने पर आने और बेटे के बचाव के लिए जरूरी निर्देश देना ड्यूटी और मानवता के हिंडोले में डोलते दृश्य दर्शक को स्तब्ध करते हैं।
कुल चार एपिसोड में यह पहला एपिसोड ब्रिटेन की पुलिस कार्यवाही को विस्तार से बताता जरा लंबा लग सकता है लेकिन तब नहीं जब आप एक असहाय पिता (स्टीफन ग्राहम) को अपने तेरह वर्ष के बेटे को इस सबसे गुजरते देखने की असहायता को देखते हैं। जब जेमी के कपड़े उतरवा कर उसकी तलाशी ली जाती है तब कैमरा पूरी तरह पिता के चेहरे पर केंद्रित रहता है। अपने बेटे के कपड़े उतरते और तलाशी होते देख एक पिता को कैसा लग सकता है वह हताशा खुद की असहायता के वे भाव दर्शक के दिमाग में स्थिर हो जाते हैं। खुद का कोई वकील न होने के कारण उन्हें सरकारी वकील दिया जाता है जिस पर विश्वास करना मुश्किल है लेकिन करना पड़ता है। फैमिली रूम में बैठी माँ और बहन सिवाय इंतजार के कुछ नहीं कर पाती; इंतजार किसका यह उन्हें खुद नहीं पता। शायद सब ठीक होने का लेकिन अब यह फैसला थाने में तो हो नहीं सकता। पहले एपिसोड में परिवार के ट्रामा के साथ ही तेरह साल के बच्चे जेमी के चेहरे पर डर के बाद स्थिति को समझते हुए खुद को संभालने और पूछताछ का सामना करने के सीन बहुत अच्छे बन पड़े हैं।
इस सीरीज की खासियत यह है कि इसका पूरा एपिसोड एक शाॅट में फिल्माया गया है। हाँ यह बात हैरान करती है कि कैसे एक घंटे या पचास पचपन मिनिट का पूरा एपिसोड एक शाॅट में फिल्माया जा सकता है लेकिन कैमरा कहीं आउट या ब्लैंक नहीं होता और अगर थोड़ा ध्यान दें तो आप खुद इसके फिल्मांकन में अन्य फिल्म से अंतर समझ पाएंगे।
सीरीज का पहला एपिसोड आपको हक्का बक्का छोड़ देता है और दूसरा एपिसोड देखने पर मजबूर करता है। दूसरा एपिसोड इस सीरीज का बेहद अहम हिस्सा है। इसे देखते हम आज के किशोर युवा बच्चों के व्यवहार बदतमीजी उनकी घुटन हर बात को मजाक में उड़ाते हुए यथार्थ से दूर होने की कोशिश बुलिंग के द्वारा शायद खुद को साबित करने की कोशिश देखकर हतप्रभ रह जाते हैं। आज का युवा होने को अग्रसर किशोर किस मानसिक तनाव साथियों के दबाव में जी रहा है इसे समझना है तो यह सीरीज जरूर देखना चाहिए। हर बीस साल बाद युवा पीढ़ी बदल जाती है और बदल जाते हैं उनके तनाव उनके समय की चुनौतियाँ उनकी बातों के विषय उनके अस्तित्व के पैमाने जिसे समझना न माता-पिता के बस का है न टीचर्स के न सामाजिक कार्यकर्ता इसे समझ पा रहे हैं और न ही कोई मनोचिकित्सक। कारण शायद हम हैं वे बड़े जिन्होंने जीवन में बदलाव की गति इतनी तेज कर दी है कि वे खुद इस में पिछड़ गये हैं।
अगर थोड़ी देर रुककर विचार करें तो एक बड़ा प्रश्न है आज के अधिकांश किशोर युवाओं के पास लगभग हर सुख सुविधा है फिर आखिर क्या बात है जो उनमें इतनी हताशा निराशा है? क्यों वे ऐसी चीजों को अपने अस्तित्व का पैमाना बना बैठे हैं जो चालीस साल पहले इस उम्र में शायद मायने भी नहीं रखता था? क्या हमने सुख सुविधाएं देकर उन्हें जीवन के लिए आवश्यक असली चुनौतियों से दूर कर दिया है और आज ये युवा कृत्रिम चुनौतियों के द्वारा खुद को साबित करने की कोशिश कर रहे हैं। या हमने तेजी से बदलती इस दुनिया में बचपन को बहुत जल्द युवावस्था के द्वार पर ला खड़ा किया है और युवावस्था की पहचान उसके मायने बदल दिए हैं।
स्कूल में बच्चों के व्यवहार के सामने विवश टीचर्स इंवेस्टिगेशन आफिसर। कुछ जानते हुए भी बता नहीं पाने की विवशता से भरी छात्रा की कुंठा आक्रोश सोचने पर विवश करते हैं। हाँ ऐसी स्थिति बहुत युवाओं की शायद नहीं रहती है लेकिन किसी एक की होना भी त्रासद है और एक जिंदगी के खत्म होने से उपजे उस खालीपन को भरना असंभव।
यह एपिसोड स्कूली बच्चों के बारे में कई चौंकानेवाली जानकारी देता है जो क्षुब्ध करती हैं सोचने पर विवश करती हैं । जब इस सीरीज की मेकिंग देखेंगे तब आश्चर्य होगा कि कैसे इसे एक शाॅट में फिल्माया गया है।
एक पंद्रह साल का लड़का (ओवेन कूपर) जिसने न कभी थियेटर किया न कहीं कोई एक्टिंग और वह लगभग आधे घंटे का एक शाॅट देता है जो अविश्वास, विश्वास, गुस्से, मजाक, उसके भीतर दबे दर्द, झूठ और सच के बीच झूलता है। वह भावुक होता है गुस्सा होकर चिल्लाता है खेद प्रकट करता है एक पल विश्वास करता है अगले पल ठगा सा महसूस करता है। एक साइकिएट्रिस्ट ब्रायोनी एरिस्टन (एरिन डोहर्टी) उसके अंतस को जानने की कोशिश करती है। तेरह साल के एक हत्यारे लड़के के साथ एक कमरे में अकेले होते अपने प्रश्नों को पूछते प्रतिक्रिया पर संभलकर शब्दों का इस्तेमाल करते खुद को कंट्रोल करते हुए एक अपराधी बच्चे की भावनाओं के उतार चढ़ाव को संभालते नियमों से बंधी वह पुरुषत्व की नई और पुरानी अवधारणाओं के आधार पर जेमी को परखने की कोशिश करती है।
पुरुषत्व की परिभाषा क्या है? तेरह साल के एक लड़के के लिए अपने पौरुष के बारे में कितनी सजगता है और वह इसे किस तरह से समझता है? बातचीत के दौरान पता चलता है कि जीवन में छोटी छोटी हर बात कितनी महत्वपूर्ण होती है। माता-पिता का हर व्यवहार बच्चे के दिमाग में किस तरह अंकित होता है और जीवन के किसी नाजुक मोड़ पर कैसे उसका व्यवहार बन जाता है यह जानकर दर्शक हतप्रभ रह जाते हैं।
यह सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक ड्रामा भावनाओं के संवेग से अपनी पकड़ खोने नहीं देता और यही इसकी कलात्मकता है।
चौथा और आखिरी एपिसोड इस हत्या के तेरह महीने बाद जेमी के परिवार पर केंद्रित है। एक परिवार जो खुद सदमे में दर्द तकलीफ में है उसके साथ समाज अड़ोस-पड़ोस कैसा व्यवहार करते हैं। किस तरह किसी की तकलीफ में उसे और परेशान करके आनंद लेते हैं ऐसे लोग हर देश हर समाज में हैं। अपने दर्द को पीते हुए परिवार के लिए जीना खुद को दोषी मानना दूसरे को हिम्मत देना यह एपिसोड एक परिवार की भावनात्मक उथल-पुथल को दर्शाता है। जेमी की माँ मांडा (क्रिस्टीन ट्रेमार्को) का सबकुछ संभालते हुए अकेले फूट-फूट कर रोना दिल चीर जाता है वहीं जेमी की बहन लीसा (एमिली पीस) का मुरझा जाना एक मासूम द्वारा किये गये अपराध के गंभीर प्रभाव दिखाता है।
चारों एपिसोड एक अपराध से जुड़े अलग अलग आयामों पर केंद्रित हैं जिनमें इंवेस्टिगेशन के दौरान कुछ बेहद भावुक और सुकूनदायक सीन आते हैं जो शीतल हवा के झोंकों सा अहसास देते हैं कि बस यही तो है समस्या का समाधान।
जैक थोर्ने और स्टीफन ग्राहम द्वारा लिखित यह ब्रिटिश साइक्लाॅजिकल ड्रामा इन दिनों नेटफ्लिक्स पर धूम मचाए हुए है। इसे आलोचना और समीक्षाएं दोनों भरपूर मिल रही हैं। फिलिप बरान्टिनी द्वारा निर्देशित इस सीरीज ने न सिर्फ अपनी कथावस्तु के लिए बल्कि एक समस्या को केंद्र में रखते हुए जिस तरह इसे फिल्माया है इसके छुपे हुए पहलुओं को सामने लाने का प्रयास एकनिष्ठा से किया है उसके कारण भी सबका ध्यान खींचा है।
हर माता-पिता को जिनके बच्चे किशोरावस्था में हैं शिक्षक या समाज के उन सभी लोगों को जिनके आसपास हमारी भावी पीढ़ी रहती है उन्हें यह सीरीज जरूर देखना चाहिए।